Friday, November 23, 2012

बाबूजी की कमी खलती है- अमिताभ बच्चन (Exclusive)

अमिताभ बच्चन ने दिल में अपने बाबूजी हरिवंशराय बच्चन की स्मृतियां संजोकर रखी हैं. बाबूजी के साथ रिश्ते की मधुरता और गहराई को अमिताभ बच्चन से विशेष भेंट में रघुवेन्द्र सिंह ने समझने का प्रयास किया
लगता है कि अमिताभ बच्चन के समक्ष उम्र ने हार मान ली है. हर वर्ष जीवन का एक नया बसंत आता है और अडिग, मज़बूत और हिम्मत के साथ डंटकर खड़े अमिताभ को बस छूकर गुज़र जाता है. वे सत्तर वर्ष के हो चुके हैं, लेकिन उन्हें बुजऱ्ुग कहते हुए हम सबको झिझक होती है. प्रतीत होता है  िक यह शब्द उनके लिए ईज़ाद ही नहीं हुआ है.
उनका $कद, गरिमा, प्रतिष्ठा, लोकप्रियता समय के साथ एक नई ऊंचाई छूती जा रही है. वह साहस और आत्मविश्वास के साथ अथक चलते, और बस चलते ही जा रहे हैं. वह अंजाने में एक ऐसी रेखा खींचते जा रहे हैं, जिससे लंबी रेखा खींचना आने वाली कई पीढिय़ों के लिए चुनौती होगी. वह नौजवान पीढ़ी के साथ $कदम से $कदम मिलाकर चलते हैं और अपनी सक्रियता एवं ऊर्जा से मॉडर्न जेनरेशन को हैरान करते हैं.
अपने बाबूजी हरिवंशराय बच्चन के लेखन को वह सबसे बड़ी धरोहर मानते हैं. आज भी विशेष अवसरों पर उन्हें बाबूजी की याद आती है. पिछले महीने 11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन का जन्मदिन बहुत धूमधाम से अनोखे अंदाज़ में सेलीब्रेट किया गया. इस माह की 27 तारी$ख को उनके बाबूजी का जन्मदिन है. प्रस्तुत है अमिताभ बच्चन से उनके जन्मदिन एवं उनके बाबूजी के बारे में विस्तृत बातचीत.  

पिछले दिनों आपके सत्तरवें जन्मदिन को लेकर आपके शुभचिंतकों, प्रशंसकों और मीडिया में बहुत उत्साह रहा. आपकी मन:स्थिति क्या है?
मन:स्थिति यह है कि एक और साल बीत गया है और मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों इतना उत्साह है सबके मन में? प्रत्येक प्राणी के जीवन का एक साल बीत जाता है, मेरा भी एक और साल निकल गया.
दुनिया की नज़र में आपके पास सब कुछ है, मगर जीवन के इस पड़ाव पर अब आपको किन चीज़ों की आकांक्षा है? 
हमने कभी इस दृष्टि से न अपने आप को, न अपने जीवन को और न अपने व्यवसाय को देखा है. मैंने हमेशा माना है कि जैसे-जैसे, जो भी हमारे साथ होता जा रहा है, वह होता रहे. ईश्वर की कृपा बनी रहे. परिवार स्वस्थ रहे. मैंने कभी नहीं सोचा कि कल क्या करना है, ऐसा करने से क्या होगा या ऐसा न करने से क्या होगा. जीवन चलता जाता है, हम भी उसमें बहते जाते हैं.
एक सत्तर वर्षीय पुरुष को बुजुर्ग कहा जाता है, लेकिन आपके व्यक्तित्व पर यह शब्द उपयुक्त प्रतीत नहीं होता.
अब क्या बताऊं मैं इसके बारे में? बहुत बड़ी गलतफहमी लोगों को. लेकिन हूं तो मैं सत्तर वर्ष का. आजकल की जो नौजवान पीढ़ी है, उसके साथ हिलमिल जाने का मन करता है. क्या उनकी सोच है, क्या वो कर रहे हैं, उसे देखकर अच्छा लगता है. खासकर के हमारी फिल्म इंडस्ट्री की जो नई पीढ़ी है, जो नए कलाकार हैं, उन सबका जो एक आत्मबल है, एक ऐसी भावना है कि उनको सफल होना है और उनको मालूम है कि उसके लिए क्या-क्या करना चाहिए. इतना कॉन्फिडेंस हम लोगों में नहीं था. अभी भी नहीं है. अभी भी हम लोग बहुत डरते हैं. लेकिन आज की पीढ़ी जो है, वो हमसे ज्यादा ता$कतवर है और बहुत ही सक्षम तरीके से अपने करियर को, अपने जीवन को नापा-तौला है और फिर आगे बढ़े हैं. इतनी नाप-तौल हमको तो नहीं आती. लेकिन आकांक्षाएं जो हैं, वो मैं दूसरों पर छोड़ता हूं. आप यदि कोई चीज़ लाएं कि आपने ये नहीं किया है, आपको ऐसे करना चाहिए, तो मैं उस पर विचार करूंगा. आप कहें कि अपने आपके लिए सोचकर बताइए, तो वो मैं नहीं करता. इतनी क्षमता मुझमें नहीं है कि मैं देख सकूं कि मुझे क्या करना है. 
आप जिस तरीके से नौजवान पीढ़ी के साथ कदम से $कदम मिलाकर चलते हैं, वह देखकर लोगों को ताज्जुब होता है कि आप कैसे कर लेते हैं?
ये सब कहने वाली बातें हैं. कष्ट तो होता है, शारीरिक कष्ट होता है. अब जितना हो सकता है, उतना करते हैं, जब नहीं होता है तो बैठ जाते हैं. लेकिन ऐसा कहना कि न जाने कहां से एनर्जी आ रही है, तो क्या कहूं मैं? मैं ऐसा मानता हूं कि जब ये निश्चित हो जाए कि ये काम करना है, तो उसके बाद पूरी दृढ़ता और लगन के साथ उसे करना चाहिए. परिणाम क्या होता है, यह बाद में देखना चाहिए. एक बार जो तय हो गया, उसे हम करते हैं.
क्या आप मानते हैं कि आप शब्दों, विशेषणों आदि से ऊपर उठ चुके हैं? इस बारे में सोचना पड़ता है कि आपके नाम के साथ क्या विशेषण लगाएं?
मैं अपने बारे में कैसे मान सकता हूं? और ये जो तकलीफ है, वह आपकी है. मुझ पर क्यों थोप रहे हैं आप? मैंने तो कभी ऐसा माना नहीं है. आप लोग तो बहुत अच्छी-अच्छी बातें लिखते हैं, अच्छे-अच्छे खिताब देते हैं मुझे. मैंने कभी नहीं माना है उनको, तो मेरे लिए वह ठीक है. अब आप को कष्ट हो रहा हो, तो अब आप जानिए.
बचपन में अम्मा और बाबूजी आपका जन्मदिन किस प्रकार सेलीब्रेट करते थे?
जैसे आम घरों में मनाया जाता था. हम छोटे थे, तो हमारी उम्र के बच्चों के लिए पार्टी-वार्टी दी जाती थी, केक कटता था, कैंडल लगता है. हालांकि ये प्रथा अभी तक चल रही है. अंग्रेज़ चले गए, अपनी प्रथाएं छोड़ गए. पता नहीं क्यों अभी तक केक काटने की प्रथा बनी हुई है! मैं तो धीरे-धीरे उससे दूर हटता जा रहा हूं. बड़ा अजीब लगता है मुझे कि फूंक मारो, कैंडल बुझ जाए. जितनी उम्र है, उतने कैंडल लगाओ. बाबूजी भी इसको कुछ ज़्यादा पसंद नहीं करते थे. इसलिए उन्होंने एक छोटी-सी कविता लिखी थी, जिसे जन्मदिन के दिन वो गाया करते थे. हर्ष नव, वर्ष नव...  
अभिषेक बच्चन ने हालिया भेंट में बताया कि घर के किसी सदस्य के जन्मदिन पर दादाजी उपहार स्वरूप कविता लिखकर देते थे. क्या आपने उन्हें सहेजकर रखा है?
जी, वह एक छोटी-सी कविता लिखकर लाते थे. ज़्यादातर तो हर्ष नव, वर्ष नव... ही हम सुनते थे. उसके बाद बाबूजी-अम्माजी कई जगह गाते थे इसको.
क्या बचपन में आपने बाबूजी से किसी गिफ्ट की मांग की थी? क्या आपकी मांगों को वो पूरा करते थे? उन दिनों इतने समृद्ध नहीं थे आप लोग.
कई बार हमने ऐसी मांग की, लेकिन मां-बाबूजी की परिस्थितियां ऐसी नहीं थीं कि वह हमें मिल सके तो हम निराश हो जाते थे. और अभी यह सुनकर शायद अजीब लगे, लेकिन मेरे स्कूल में एक क्रिकेट क्लब बना और उसमें भर्ती होने के लिए मेंबरशिप फीस थी दो रुपए. मैं मां से मांगने गया, तो उन्होंने कहा कि दो रुपए नहीं हैं हमारे पास. एक बार मैंने कहा कि मुझे कैमरा चाहिए. पुराने जमाने में एक बॉक्स कैमरा होता था, वो एक-एक आने इकट्ठा करके मां जी ने अंत में मुझे कैमरा दिया.
कैमरे का शौक आपको कब लगा? पहला कैमरा आपने कब लिया?
शायद मैं दस या गयारह वर्ष का रहा होऊंगा. कुछ ऐसे ही सडक़ पर पेड़-वेड़ दिखता था, तो लगता था कि यह बहुत खूबसूरत है, उसकी छवि उतारनी चाहिए और इसलिए हमने मां जी से कहा कि हमको एक बॉक्स कैमरा लाकर दो. अभी भी बहुत सारे कैमरे हैं. ये हैं परेश (इंटरव्यू के दौरान हमारी तस्वीरें क्लिक कर रहे शख्स), यही देखभाल करते हैं. कैमरे का जो भी लेटेस्ट मॉडल निकलता है, उसे प्राप्त करना और उसे चलाना अच्छा लगता है मुझे. मैं घर में ही तस्वीरें लेता हूं, बच्चों की, परिवार की.
आपमें और अजिताभ में बाबूजी का लाडला कौन था? कौन उनके सानिध्य में ज़्यादा रहता था? बराबरी का हिस्सा था और हमेशा बाबूजी ने कहा कि जो भी होगा, आधा-आधा कर लो उसको.
क्या बाबूजी आपके स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आया करते थे? क्या वे सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए आपका उत्साहवर्द्धन किया करते थे?
अब पता नहीं कि फाउंडर डे पर जो स्कूल प्ले होता है, उसको एक सांस्कृतिक ओहदा दिया जाए या... लेकिन जब भी हमारा फाउंडर डे होता था, तो मां-बाबूजी आते थे. हम नैनीताल में पढ़ रहे थे. वो लोग आते थे और हफ्ता-दस दिन हमारे साथ गुज़ारते थे. हमारा नाटक देखते थे. हमेशा उन्होंने हमारा साथ दिया. मां जी ने स्पोट्र्स में प्रोत्साहित किया.  
क्या आप बचपन में उनके संग कवि सम्मेलनों में जाते थे?
जी. प्रत्येक कवि सम्मेलन में बाबूजी ले जाते थे और मैं भी साथ जाता था. रात-बिरात दिल्ली के पास या इलाहाबाद के पास मैं उनके साथ जाता था.
बाबूजी के कद, उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा का ज्ञान आपको कब हुआ? 
सारी ज़िन्दगी. मैं तो जब पैदा हुआ, तभी से बच्चन जी, बच्चन जी थे. और हमेशा मैं था हरिवंश राय बच्चन का पुत्र अमिताभ. कहीं भी हम जाएं, तो लोग कहें कि ये बच्चन जी के बेटे हैं. उनकी प्रतिष्ठा जग ज़ाहिर थी.
निजी जीवन पर अपने बाबूजी का सबसे गहरा असर क्या मानते हैं? क्या हिंदी भाषा पर आपकी इतनी ज़बरदस्त पकड़ का श्रेय हम उन्हें दे सकते हैं?
हां, क्यों नहीं. मैंने सबसे अधिक उन्हीं को पढ़ा है. उनकी जो कविताएं हैं, जो लेखन है, जो भी छोटा-मोटा ज्ञान मिला है, उन्हीं से मिला है. लेकिन हिंदी को समझना और उसका उच्चारण करना, दो अलग-अलग बातें हैं. मैं नहीं मानता हूं कि मेरी जिज्ञासा या मेरा ज्ञान हिंदी के प्रति बहुत ज्यादा अच्छा है. लेकिन मैं ऐसा समझता हूं कि किसी भाषा का उच्चारण सही होना चाहिए. उसमें त्रुटियां नहीं होनी चाहिए. हिंदी बोलें या गुजराती या तमिल या कन्नड़ बोलें, तो उसे सही ढंग से बोलने का हमारे मन में  हमेशा एक रहता है. और बिना बाबूजी के असर के मैं मानता हूं कि मेरा जीवन बड़ा नीरस होता. स्वयं को भागयशाली समझता हूं कि मैं मां-बाबूजी जैसे माता-पिता की संतान हूं. माता जी सिक्ख परिवार से थीं और बहुत ही अमीर घर की थीं. उनके फादर बार एटलॉ थे उस जमाने में. वह रेवेन्यू मिनिस्टर थे पंजाब सरकार के पटियाला में. अंग्रेजी, विलायती नैनीज़ होती थीं उनकी देखभाल के लिए. उस वातावरण से माता जी आईं और उन्होंने बाबूजी के साथ ब्याह किया. जो कि लोअर मीडिल क्लास से थे, उनके पास व्यवस्था ज़्यादा नहीं थी. ज़मीन पर बैठकर पढ़ाई-लिखाई करते थे, मिट्टी के तेल की लालटेन जलाकर काम करते थे, लाइट नहीं होती थी उन दिनों. मुझे लगता है कि कहीं न कहीं मां जी का जो वातावरण था, जो उनके खयाल थे, वह बहुत ही पश्चिमी था और बाबूजी का बहुत ही उत्तरी था. इन दोनों का इस्टर्न और वेस्टर्न मिश्रण जो है, वो मुझे प्राप्त हुआ. मैं अपने आप को बहुत भागयशाली समझता हूं कि इस तरह का वातावरण हमारे घर के अंदर हमेशा फलता रहा. कई बातें थीं, जो बाबूजी को शायद नहीं पसंद आती होंगी, लेकिन कई बातें थीं, जिसमें मां जी की रुचि थी- जैसे सिनेमा जाना, थिएटर देखना. इसमें बाबूजी की ज़्यादा रुचि नहीं होती थी. वह कहते थे कि यह वेस्ट ऑफ टाइम है, घर बैठकर पढ़ो. मां जी सोचती थीं कि हमारे चरित्र को और उजागर करने के लिए ज़रूरी है कि पढ़ाई के साथ-साथ थोड़ा-सा खेलकूद भी किया जाए. मां जी खुद हमें रेस्टोरेंट ले जाती थीं, बाबूजी न भी जाते हों. तो ये तालमेल था उनका जीवन के प्रति और वो संगम हमको मिल गया. 
दोनों अलग-अलग विचारधारा के लोग थे. आप किससे अधिक जुड़ाव महसूस करते थे?
दोनों से ही. उत्तरी-पश्चिमी दोनों सभ्यताएं हमें उनसे प्राप्त हुईं. और उनमें अंतर कब और कहां लाना है, यह हमारे ऊपर निर्भर करता है. वो सारा जो मिश्रण है, वह हमको सोचकर करना पड़ता है.
जया बच्चन के फिल्मफेयर को दिए गए एक पुराने साक्षात्कार में हमने पाया कि आपको लिखने का बहुत शौक है. उन्होंने बताया है कि जब आप काम ज़्यादा नहीं कर रहे थे, तो अपने कमरे में एकांत में लिखते रहते हैं. क्या आप लिखते थे, वो उन्होंने नहीं बताया है.
अच्छा हुआ कि वो उन्होंने नहीं बताया है, क्योंकि मुझसे भी आपको नहीं पता चलने वाला है कि मैंने क्या लिखा उन दिनों. बैठकर कुछ पढ़ते-लिखते रहना, फिर सितार उठाकर बजा दिया, गिटार उठाकर बजा लिया. ये सब हमको आता नहीं है, लेकिन ऐसे ही करते रहते थे. 
क्या बाबूजी की तरह आप भी कविताएं लिखते हैं?
कविता हमने नहीं लिखी. अस्पताल में जब था मैं 1982 में, कुली के एक्सीडेंट के बाद, उस समय एक दिन ऐसे ही भावुक होकर हमने अंग्रेज़ी में एक कविता लिख दी. वो हमने बाबूजी को सुनाई, जब वो हमसे मिलने आए. वो चुपचाप उसे ले गए और अगले दिन आकर कहा उसका हिंदी अनुवाद करके हमको दिखाया. उन्होंने कहा कि ये कविता बहुत अच्छी लिखी है, हमने इसका हिंदी अनुवाद किया है. ज़ाहिर है कि उनका जो हिंदी अनुवाद था, वह हमारी अंग्रेज़ी से बेहतर था. वो कविता शायद धर्मयुग वगैरह में छपी थी.  
जीवन में किन-किन पड़ावों पर आपको बाबूजी और अम्मा की कमी बहुत अखरती है?
प्रतिदिन कुछ न कुछ जीवन में ऐसा बीतता है, जब लगता है कि उनसे सलाह लेनी चाहिए, लेकिन वो हैं नहीं. लेकिन ये जीवन है, एक न एक दिन सबके साथ ऐसा ही होगा. माता-पिता का साया जो है, ईश्वर न करें, लेकिन खो जाता है. लेकिन जो बीती हुई बातें हैं, उनको सोचकर कि यदि मां-बाबूजी जीवित होते, तो वो क्या करते इन परिस्थितियों में? और फिर अपनी जो सोच रहती है उस विषय पर कि हां, मुझे लगता है कि उनका व्यवहार ऐसा होता, तो हम उसको करते हैं.
अपने अभिनय के बारे में बाबूजी की कोई टिप्पणी आपको याद है? वह आपके प्रशंसक थे या आलोचक? 
नहीं, वो बाद के दिनों में $िफल्में वगैरह देखते थे और जो फिल्म उनको पसंद नहीं आती थी, वो कहते थे कि बेटा, ये फिल्म हमको समझ में नहीं आई कि क्या है. हालांकि वो कुछ फिल्मों को पसंद भी करते थे और देखते थे. जब वो अस्वस्थ थे, तो प्रतिदिन शाम को हमारी एक फिल्म देखते थे.  
कभी ऐसा पल आया, जब उन्होंने इच्छा ज़ाहिर की हो कि आप फलां किस्म का रोल करें?
ऐसा कभी उन्होंने व्यक्त नहीं किया. मैंने कभी पूछा भी नहीं. उनके लिए भी समस्या हो जाती और हमारे लिए भी.
क्या बाबूजी को अपना हीरो मानते हैं? उनकी कोई बात, जो आज भी आपको प्रेरणा और हिम्मत देती है?
हां, बिल्कुल. साधारण व्यक्ति थे, मनोबल बहुत था उनमें, एक आत्मशक्ति थी उनमें. लेकिन $खास तौर पर उनका आत्मबल. कई उदाहरण हैं उनके. एक बार वो कोई चीज़ ठान लेते थे, फिर वो जब तक $खत्म न हो जाए, तब तक उसे छोड़ते नहीं थे. बाबूजी को पंडित जी (जवाहर लाल नेहरू) ने बुलाया और कहा कि ये आत्मकथा लिखी है माइकल पिशर्ड ने. हम चाहते हैं कि इसका हिंदी अनुवाद हो, लेकिन ये हमारे जन्मदिन के दिन छपकर निकल जानी चाहिए. अब केवल तीन महीने रह गए थे. तीन महीने में एक बॉयोग्रा$फी का पूरा अनुवाद करना और उसे छापना बड़ा मुश्किल काम था, लेकिन बाबूजी दिन-रात उस काम में लगे रहे. जो उनकी स्टडी होती थी, उसके बाहर वो एक पेंटिंग लगा देते थे. उसका मतलब होता था कि अंदर कोई नहीं जा सकता, अभी व्यस्त हूं. बैठे-बैठे जब वो थक जाएं, तो खड़े होकर लिखें, जब खड़े-खड़े थक जाएं, तो ज़मीन पर बैठकर लिखें. विलायत में भी वो ऐसा ही करते थे. जब वो विलायत में अपनी पीएचडी कर रहे थे, तो उन्होंने अपने लिए एक खास मेज़ खुद ही बनाया. उनके पास इतना पैसा नहीं था कि मेज़ खरीद सकें. एक दिन मैं ऐसे ही चला गया, तो मैंने देखा कि एक कटोरी में गरम पानी है और उसमें उन्होंने अपना बायां हाथ डुबोया था. मैंने कहा कि क्या हो गया? तो उन्होंने बताया कि दर्द हो रहा था. हमने कहा कि कैसे हो गया? तो कहा कि लिखते-लिखते दर्द होने लगा. हमने कहा कि ये तो आपका बायां हाथ है, आप तो दाहिने हाथ से लिखते हैं? उन्होंने कहा कि हां, तुम सही कह रहे हो. दाहिने हाथ से लिखते-लिखते मेरा हाथ थक गया था, लेकिन क्योंकि मुझे काम खत्म करना था और लिखना था, तो मैंने अपने आत्मबल से दाहिने हाथ के दर्द को बाएं हाथ में डाल दिया है और अब मेरा बायां हाथ दर्द कर रहा है, इसलिए मैं उसकी मसाज कर रहा हूं. उनके ऐसे विचार थे.
अभिषेक और आपके बीच पिता-पुत्र के साथ-साथ दोस्त का रिश्ता नज़र आता है. क्या ऐसा ही संबंध आपके और आपके बाबूजी के बीच था?
हां, बाद के दिनों में. शुरुआत के सालों में हम सब उन्हें अकेला छोड़ देते थे, क्योंकि वो अपने काम में, अपने लेखन में व्यस्त रहते थे. मां जी थीं हमारे साथ, तो घूमना-फिरना होता था, जो बाबूजी को शायद उतना पसंद नहीं था. बाद में जब हमारे साथ यहां आए तो हमारा उनके साथ अलग तरह का दोस्ताना बना. कई बातें जो केवल दो पुरुषों के बीच हो जाती हैं, कई बार ऐसा अवसर आता था, जब हम करते थे. अभिषेक के पैदा होने के पहले ही मैंने सोच लिया था कि अगर मुझे पुत्र हुआ, तो वह मेरा मित्र होगा, वो बेटा नहीं होगा. मैंने ऐसा ही व्यवहार किया अभिषेक के साथ और अभी तक तो हमारी मित्रता बनी हुई है. 
क्या आप चाहते हैं कि अभिषेक और आपकी आने वाली पीढिय़ां बच्चनजी की रचनाओं, विचार और दर्शन को उसी तरह अपनाएं और अपनी पीढ़ी के साथ आगे बढ़ाएं, जैसे आपने बढ़ाया है?
ये अधिकार मैं उन पर छोड़ता हूं. यदि उनके मन में आया कि इस तरह से कुछ काम करना चाहिए, तो वो करें. मैं उन पर किसी तरह का दबाव नहीं डालना चाहता हूं कि देखो, ये हमारे परिवार की परंपरा रही है, हमारे लिए एक धरोहर है, जिसे आगे बढ़ाना है. न ही बाबूजी ने कभी हमसे ये कहा कि ये धरोहर है. क्योंकि उनकी जो वास्तविकता थी, उसे कभी उन्होंने हमारे सामने ऐसे नहीं रखा कि मैंने बहुत बड़ा काम कर दिया है. उसके पीछे छुपी हुई जो बात थी, वो हमेशा पता चलती थी. जैसे विलायत पीएचडी करने गए, पैसा नहीं था. कुछ फेलोशिप मिली, फिर बीच में वो भी बंद हो गई. मां जी ने गहने बेचकर पैसा इकट्ठा किया, क्योंकि वो चाहती थीं कि वो पीएचडी करें. चार साल जिस पीएचडी में लगता है, वो उन्होंने दो वर्षों में ही पूरी कर ली और का$फी मुश्किल परिस्थितियों में रहे वहां. जब वो वापस आए, तो उस ज़माने में तो विलायत जाना और वापस आना बहुत बड़ी बात होती थी और खासकर इलाहाबाद जैसी जगह पर. सब लोग बहुत खुश कि भाई, विलायत से लौटकर के आ रहे हैं और हम बच्चे ये सोचते थे कि हमारे लिए क्या तोहफा लाए होंगे. सबसे पहला सवाल हमने बाबूजी से यही किया कि क्या लाएं हैं आप हमारे लिए? उन्होंने मुझे सात कॉपी, जो उनके हाथ से लिखी हुई पीएचडी है, वो उन्होंने मुझे दी. कहा कि ये मेरा तोहफा है तुम्हारे लिए. ये मेरी मेहनत है, जो मैंने दो साल वहां की. उसे मैंने रखा हुआ है. उससे बड़ा उपहार क्या हो सकता है मेरे लिए.
बाबूजी की कौन सी रचना आपको बहुत प्रिय है और क्यों?
सभी अच्छी हैं. अलग-अलग मानसिक स्थितियों से जब बाबूजी गुज़रे, तो उन परिस्थितियों में उन्होंने अलग-अलग कविताएं लिखीं. बाबूजी के शुरुआत के दिन बहुत गंभीर थे. बाबूजी की पहली पत्नी का देहांत साल भर के अंदर हो गया था. वो बीमार थीं, उनकी चिकित्सा के लिए पैसे नहीं थे बाबूजी के पास, तो वो दुखदायी दिन थे. उनके ऊपर उनका वर्णन है. फिर मां जी से मिलने के बाद उनके जीवन में जो एक नया रंग, उल्लास आया, उसको लेकर उनकी कविताएं आईं. फिर आधुनिक ज़माने में आकर बहुत से जो ट्रेंड थे कविता लिखने के, खास तौर से हिंदी जगत में, वो बदलते जा रहे थे, हास्य रस बहुत प्रचलित हो गया था. कवि सम्मेलनों में हास्य कवियों को ज़्यादा तालियां मिलने लगीं. इन सारे दौर से गुज़रते हुए उन्होंने लेखन किया. किसी एक रचना पर उंगली रखना बड़ा मुश्किल होगा.
आपकी उनकी चीज़ों की आर्कइविंग करने की योजना थी?
प्रयत्न जारी है. समय नहीं मिल रहा है. दूसरी बड़ी बात ये है कि जो लोग बाबूजी के साथ उस ज़माने में थे, वो वृद्ध हो गए हैं. लेकिन मैं ये चाहूंगा कि जो उनके साथ उस ज़माने में थे, उन्हें ढूंढें. क्योंकि कई ऐसी बातें हैं, जो हमको नहीं पता हैं. बाबूजी पत्र बहुत लिखते थे और वो अपने हाथ से लिखते थे. प्रतिदिन वो पचास-सौ पोस्ट कार्ड लिखते थे जवाब में, जो उनके पास चिट्ठियां आती थीं और उसे $खुद ले जाकर पोस्ट बॉक्स में डालते थे. उन्होंने बहुत सी चिट्ठियां जो लोगों को लिखी हैं, उन चिट्ठियों को एकत्रित करके लोगों ने किताब के रूप में छाप दिया है. अब ये पता नहीं कि कानूनन ठीक है या नहीं, लेकिन उन्होंने कहा कि साहब, ये पत्र तो उन्होंने हमें लिखा है, आपका इसके ऊपर कोई अधिकार नहीं है. तो मैं ऐसा सोच रहा था कि कभी अगर मुझे जानकारी हासिल करनी होगी तो मैं इश्तहार दूंगा मैं या पूछूंगा कि जिन लोगों के पास बाबूजी की लिखी चिट्ठियां हैं या याददाश्त हैं, वो हमें बताएं ताकि हम उनका एक आर्काइव बना सकें.
अब आप स्वयं दादाजी बन चुके हैं. इस संबोधन से आपको अपने दादाजी (प्रताप नारायण श्रीवास्तव) एवं दादीजी (सरस्वती देवी) की याद आती है. उनके बारे में हमें बहुत कम सामग्री मिलती है.
जी, दादाजी की स्मृतियां हैं नहीं, क्योंकि जब मैं पैदा हुआ, तो उनका देहांत हो गया था. दादी थीं, लेकिन उनका भी मेरे पैदा होने के साल-डेढ़ साल बाद स्वर्गवास हो गया. मां जी की तरफ से, उनकी माता जी का देहांत उनके जन्म पर ही हो गया था. जो नाना जी थे, मुझे ऐसा बताया गया है कि अब तो वो पाकिस्तान हो गया है, मां जी का जन्म लायलपुर में हुआ था, जो अब फैसलाबाद हो गया है और उनकी शिक्षा-दीक्षा सब गर्वमेंट कॉलेज लाहौर में हुई. वो वहां पढ़ाने भी लगीं. मुझे बताया गया है कि जब मैं दो साल का था, तो मां जी उनसे मिलवाने कराची ले गई थीं. ऐसा मां जी बताती हैं कि एक बार मैं नाना के पास गया, तो चूंकि वो सरदार थे, तो उनकी दाढ़ी बड़ी थी, तो मैंने आश्चर्य से उनसे पूछा कि आप कौन हैं? तो मेरे नानाजी ने कहा कि अपनी मां से जाकर पूछो कि मैं कौन हूं.
अभिषेक चाहते हैं कि आप अब काम कम और आराम ज़्यादा करें, अपने नाती-पोतों को वह सारे संस्कार और गुर सिखाएं, जो आपने उन्हें और श्वेता को सिखाए हैं. आपकी इस बारे में क्या राय है? 
मैं ज़रूर नाती-पोतों को सिखाऊंगा और मैं काम भी करूंगा. यदि शरीर चलता रहा और सांस आती रहेगी, तो मैं चाहूंगा कि मैं काम करूं और जिस दिन मेरा शरीर काम नहीं करेगा, जैसा कि मैंने आपसे कई बार कहा है कि हमारे शरीर के ऊपर निर्भर है, चेहरा सही है, टांग-वांग चल रही है, तो काम है, वरना हम बोल देंगे कि अब हम घर बैठते हैं.
फिल्मों को लेकर आपकी ओर से कब घोषणा होगी?
एक तो अभी हुई है प्रकाश झा की सत्याग्रह और दूसरी है सुधीर मिश्रा की मेहरुन्निसा. उसमें चिंटू (ऋषि) कपूर हैं, शायद चित्रांगदा हैं और मैं हूं. दो-एक और फिल्में हैं, महीने भर के अंदर उनकी भी घोषणा की जाएगी. 



मैं शाहरुख की बात नहीं कर रहा हूं... अर्जुन रामपाल


                                                   अपने परिवार के साथ अर्जुन रामपाल
अर्जुन रामपाल ने अब उस सिनेमा की राह पकड़ ली है, जहां वास्तविकता है, अर्थ है और मनोरंजन भी. उनकी पसंद अब प्रकाश झा और सुधीर मिश्रा जैसे फिल्मकार हैं. प्रकाश झा के साथ तो उनकी तीसरी फिल्म सत्याग्रह शूटिंग फ्लोर पर जा रही है.
हाल के दिनों में अर्जुन ने अपने आप को एक नए रूप में पेश किया है, जिसे स्क्रीन पर साफ देखा जा सकता है. उनका अभिनय भी परिपक्व हो गया है. अब वह एक सफल बिजनेसमैन भी हैं. उनका नाइट क्लब लैप दिल्ली का एक हॉट स्पॉट बन चुका है. उनकी इच्छा इसका विस्तार करने की है. तो अब आप उनसे एक हॉट मॉडल और सफल एक्टर बनने के साथ ही, सक्सेजफुल बिजनेसमैन बनने का मंत्र भी जान सकते हैं.
सुबह सात बजे वह दिल्ली से एक बिजनेस संबंधी मीटिंग करके लौटे हैं, लेकिन आराम करने की बजाए वह मुंबई के महबूब स्टूडियो में अपनी फिल्म की प्रमोशनल एक्टिविटी में लग गए हैं. प्रस्तुत है अर्जुन रामपाल से बातचीत के मुख्य अंश

राजनीति के बाद चक्रव्यूह और इसके बाद सत्याग्रह, प्रकाश झा के साथ आपका एसोसिएशन बरकरार है. आप उन्हें नहीं छोड़ रहे हैं या वह आपको हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं?
(हंसते हैं) जब आप एक फिल्म बनाते हैं और आपका अनुभव अच्छा रहता है, तब एक केमिस्ट्री बन जाती है और फिर मजा आता है. आप कोई भी एक्टर को देख लो, उनका एक फेवरेट डायरेक्टर होता है, जिनके साथ वो काम करते रहते हैं, हॉलीवुड में भी और हमारे यहां भी. मेरे खयाल से प्रकाश और मैं उस मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां वो सोचते हैं कि ये किरदार अर्जुन को देना चाहिए और उन्होंने जो भी किरदार मुझे दिए हैं, चाहे वह राजनीति में हो या चक्रव्यूह में या अब सत्याग्रह हो, सारे किरदार एक-दूसरे से अलग हैं. वो मुझे डिफरेंट लाइट्स में देखते हैं. मुझे मजा आता है उनके साथ काम करके, क्योंकि उनकी रिचर्स कमाल की होती है, वो अपनी कला को बेहतरीन तरीके से समझते हैं. जब मैं इंडस्ट्री में आया था, तबसे वो मेरे साथ काम करना चाहते थे. राजनीति बनने के पांच साल पहले उन्होंने मुझे पृथ्वी का रोल ऑफर किया था. मगर तब उन्होंने वह फिल्म नहीं बनाई और पांच साल बाद मुझको ऐसे फोन किया, जैसे पांच दिन पहले ही मुझसे आकर मिले थे कि अच्छा वो फिल्म याद है, जो तुझे सुनाई थी, वो अब हम लोग बना रहे हैं. अभी मैंने सुधीर मिश्रा की फिल्म इनकार की है, वह उन्होंने ही मेरे पास भेजी थी और कहा था कि तुम सुधीर के साथ काम करो, तुम्हें मजा आएगा.

हाल के सालों में ऐसा लग रहा है कि अभिनय और सिनेमा के बारे में आपकी सोच बदल गई है. क्या यह प्रकाश झा के सानिध्य का असर है?
हर फिल्म से ऐसा होता है. ऐसी फिल्म बनाने का क्या मतलब है, जिससे आप कुछ सीखते नहीं. प्रकाश बहुत ही ईमानदार फिल्ममेकर हैं. वे सेंसेशनल फिल्में नहीं बनाते. वह टॉपिकल फिल्म बनाते हैं, जिसके बारे में आपको अच्छी जानकारी मिलती है. जैसे कि चक्रव्यूह के दौरान... मैं जानता हूं कि नक्सल मूवमेंट देश के अंदर चल रहा है. लेकिन क्योंकि हम बड़े शहर में रहते हैं, जहां आपने यह सब नहीं देखा है, तो आपकी जानकारी कितनी होती है? जितना आप अखबार या टीवी में देखते हैं. चक्रव्यूह की मेकिंग के दौरान जानने को मिला कि ये क्यों होता है? समस्या क्या है? अगर आपको जानकारी मिलती है कि समस्या यह है तो खुद-ब-खुद आपको उसका हल मिल जाएगा. वो रिचर्स प्रकाश लेकर आते हैं.

चक्रव्यूह से राजनीति के बीच में आपने हीरोइन और रासकल्स जैसी फिल्में कीं. आपके फिल्मों के चुनाव से समझ में नहीं आ रहा है कि आप किस दिशा में जाना चाहते हैं?
रासकल्स को आप मेरी फिल्म नहीं कह सकते. उसमें मेरा स्पेशल अपियरेंस था. डेविड (धवन) मेरे पास आए थे और वह संजू (संजय दत्त) के प्रोडक्शन की फिल्म थी, तो उन्होंने कहा कि हम चाहेंगे कि आप ये रोल करो. मैंने दोस्ती के लिए वह फिल्म नहीं की, मुझे किरदार अच्छा लगा. मैंने सोचा कि डेविड हंै, कॉमेडी अच्छी बनाते हैं, तो उस हिसाब से मैंने फिल्म की. मेरा छह-सात दिन का काम था. आप यह नहीं कह सकते कि मैं उस दिशा में जाना चाहता हूं इसलिए वो फिल्म की है. रा.वन फिल्म मैं करना चाहता था. उसमें पॉवरफुल रोल था. फिल्म करते वक्त मैं ये सोचता हूं कि दर्शक क्या देखने जाएंगे? दर्शक पूरी फिल्म घर लेकर नहीं जाती, वह कोई एक चीज लेकर जाती है. मैं ऐसी फिल्में ढूंढ़ता हूं, जिसमें कुछ अलग करने को मिले. क्योंकि मैं सेम चीज कर-करके बोर हो जाता हूं. मैं दर्शकों को सरप्राइज करना चाहता हूं. रा.वन के जरिए बच्चों की मेरी फैन फॉलोइंग बढ़ गई है. रा.वन से मुझे फायदा हुआ. जब मैंने रॉक ऑन की थी, तो जो बोलते थे. जब ओम शांति ओम की थी, तब मुकेश मेहरा बोलते थे. अगर आपको किरदार के नाम से लोग आपको पहचानते हैं, तो आपको लगता है कि आपने ठीक काम किया है. अभी मैं ऐसी फिल्में कर रहा हूं, जो रीयल हैं, एंटरटेनिंग हैं और कमर्शियल भी हैं. ये कॉम्बिनेशन मुझे अच्छा लगता है. 

इस वक्त आप कैरेक्टर की बात कर रहे हैं, लेकिन पहले आप सिर्फ हीरो की फिल्में करते थे. आपकी ये सोच कब बदली?
सोच नहीं बदली. जमाना बदल गया है, ऑडियंस बदल गई है. आप फिल्में देखें जो आज चल रही हैं, वैसी फिल्में तो नहीं हैं कि उसमें एक ही हीरो था, उसका एक ही हेयर स्टाइल होता था, एक ही तरह से चलता था, वही बैकग्राउंड म्यूजिक होता था. और आप फर्क नहीं कर सकते कि ये कौन-सी फिल्म है. मुझे तो बहुत अफसोस होगा अगर मैं किसी फिल्म के सेट पर जाऊं और पुछूं कि यार, ये कौन सी फिल्म है? मेरे किरदार का नाम क्या है? इतनी समानता नहीं होनी चाहिए कि मैं कंफ्यूज हो जाऊं. क्योंकि आपने अपनी एक इमेज बना ली है और आप उस इमेज से बाहर नहीं निकल सकते, तो फिर आपकी कला क्या है? कुछ नहीं. ऐसी फिल्में आज की तारीख में चलती नहीं हैं. आप राउड़ी राठौड़ या दबंग ले लो, तो उसमें उन्होंने कैरेक्टर्स प्ले किए हैं, उनके कैरेक्टर्स स्ट्रॉन्ग हैं. बहुत कम एक्टर ऐसे हैं, जो अपने स्टार पॉवर से सब कुछ कर लेते हैं और सब माफ है. वो सब भी मेरे खयाल से ठीक हैं, क्योंकि उनमें ये खूबी है. मेरी खूबी ये है कि मैं अपने दर्शकों को सरप्राइज करता रहूं और उस रास्ते पर चलूं, जिसमें मुझे मजा आता है, ग्रोथ नजर आती है. वो मेरा गोल है. फिल्म में मैसेज है तो ठीक है, वरना फिल्म एंटरटेनिंग होनी चाहिए. भाषणबाजी नहीं होनी चाहिए.
आप अपने बच्चों महिका और माएरा को चक्रव्यूह के शूटिंग स्थल पंचमढ़ी में लेकर गए थे, ताकि वे असली हिंदुस्तान देख सकें.
वो आखिरी दो-तीन दिन की शूटिंग के दौरान सेट पर आए थे. मैं चाहता था कि वो आएं, क्योकि पंचमढ़ी बहुत खूबसूरत जगह है. मेरे बच्चे भारत के अंदर इतना अधिक नहीं गए हैं. मैं एक छोटे से गांव से आया हूं. हम लोग जंगल में खेलते थे. पूरा बचपन हमने ऐसे निकाला है. आजकल के बच्चों को आप मुंबई से बाहर किसी जगह पर ले जाओ, लोनावाला या खंडाला, तो कोई कीड़ा भी निकल आए, तो वो डर जाते हैं. मैं चाहता था कि ये खौफ उनके दिल से निकले. वे आए और जब बंदर उनके पास आए, तो उन्होंने उनको केला खिलाया. ऐसी बहुत सी चीजें की. उन्हें भी पता चला कि ये हमारा देश है. बहुत जरूरी है कि  वो ये सब देखें.

आपकी ऐसी योजना है कि परिवार के साथ देश के अंदर घूमने निकला जाए?
इंडिया में देखने और दिखाने लायक इतनी चीजें हैं, तो मैं उन्हें लेकर जाऊंगा. जरूरी है कि पहले हम अपने देश को जानें और फिर बाहर के देशों को देखें. किसी के लिए भी ट्रैवलिंग इज द बेस्ट एजुकेशन. आपका माइंड खुल जाता है, असलियत सामने आ जाती है.
जब आप फिल्मों में आए थे, तब आपका जो सर्कल था और अब जो सर्कल है, उसमें कितना बदलाव आया है?
फ्रेंड्स को आप बदलते नहीं हैं, जैसे कि आप कपड़े बदलते हैं. हमारी इंडस्ट्री में ऐसा नहीं है, जैसाकि लोग सोचते हैं. मेरे अच्छे दोस्त हैं. जिनके साथ भी मैंने काम किया है, जिनके साथ अच्छा रिलेशनशिप रहा है. मैं क्यों किसी का नाम लूं? किसको जानना है कि मेरे दोस्त कौन हैं? मेरा उठना-बैठना किसके साथ है? वो मेरा निजी मामला है.

एक वक्त था, जब आप फिल्म इंडस्ट्री के गलियारों में पले-बढ़े लोगों के साथ फिल्में करते थे, लेकिन अब आप फिल्म इंडस्ट्री के बाहर से आए लोगों के साथ फिल्में कर रहे हैं. क्या यह सोची-समझी रणनीति है या संयोग वश ऐसा हो रहा है?
मैं भी तो बाहर से ही आया हूं यार (हंसते हैं). मैं कौन सा इंडस्ट्री का हूं. शायद इंडस्ट्री के बाहर से जो लोग आए हैं, हम एक-दूसरे को बेहतर समझते हैं, क्योंकि हमारी कहानियां मिलती-जुलती हैं. जो आदमी सेकेंड या थर्ड जेनरेशन से आया है, वो उसकी किस्मत है. मैंने कभी ऐसे सोचा नहीं है. मैं सबके साथ काम करता रहा हूं और सबके साथ काम करना चाहता हूं. आपकी बात भी सही है. कोई बाहर का या कोई अंदर का नहीं होता. एक बार आप इंडस्ट्री में आ जाते हो, तो एक परिवार का हिस्सा बन जाते हो. यह एक छोटी-सी इंडस्ट्री है और हम सबको एकट्ठा रहना है. हम सबके रास्ते कहीं न कहीं जुड़े हैं, हम चाहें या न भी चाहें, तो बेहतर है कि आराम से सबके साथ काम करो. जो भी मेरा को-स्टार होता है, फिल्म बनाते वक्त मैं उसका सबसे अच्छा दोस्त बन जाता हूं और फिर हमारे रास्ते अलग हो जाते हैं. लेकिन वो अनुभव हमारे साथ रहता है. प्रकाश मेरे साथ तीन फिल्में कर रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि हमारा रोज का उठना-बैठना होता है. मेरी दूसरी जिंदगी भी है. मैं दूसरे बहुत से काम करता हूं. मेरे दूसरे को-स्टार्स हैं, उनके साथ बैठता हूं. लेकिन जब हम मिलते है, तो हमने जो वक्त साथ गुजारा था, वहीं से बात शुरू होती है. 

अगर इंडस्ट्री एक परिवार है, तो अभी हीरोइन में दिखाया गया है कि प्रोटैगोनिस्ट को कैसे सब लोग मिलकर बाहर कर देते हैं. इन चीजों में कितनी सच्चाई होती है?
ऐसी चीजें कभी-कभी हो जाती हैं. लेकिन ये आप पर भी निर्भर करता है. हीरोइन में दिखाया गया है कि वो लडक़ी बहुत डिफिकल्ट है. ये ऐसी इंडस्ट्री है, जहां आप बिजनेस करने आए हैं, ये आपको समझना चाहिए. अगर आप प्रोफेशनल हो, समय पर आते, काम करते हो, चले जाते हो, तो अच्छा है. क्योंकि आपको तो पेमेंट मिल रही है न आपके काम की, उस हिसाब से आप काम करो. अगर आप पेमेंट भी लेते हो, निजी मामला सेट पर लाते हो, तो इंडस्ट्री छोटी है, बात फैलती है और जब बात फैलती है, तो आपकी प्रतिष्ठा खराब होती है. कलाकार के पास क्या है? उसकी प्रतिष्ठा या उनका काम. आपके कह सकते हो कि आप वल्र्ड के बेस्ट एक्टर हो, लेकिन जब आपकी फिल्म आती है, तो सबको पता चलता है कि आप क्या हो? आप असलियत से दूर मत हटो. यही मेरा एक्सपरियंस मुझे समझाता है. यू स्टे रीयल इन दिस अनरियल वल्र्ड.

हाल में आपने एक करीबी मित्र और मार्गदर्शक अशोक मेहता (प्रसिद्ध सिनेमैटोग्राफर) को खो दिया. उन्हें आप किस तरह से याद करना चाहेंगे?
अशोक जीनियस थे. उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला है. इंडस्ट्री को उन्होंने चेंज किया अपनी सिनेमैटोग्राफी से. जिस तरीके से फिल्में शूट हुआ करती थीं, उन्होंने उसे बदला. अलग तरीके की शूटिंग की. डिफरेंट टाइप की फिल्में कीं, आप बैंडिट क्वीन, 36 चौरंगी लेन, राम लखन, खलनायक देख लो. मोक्ष में इतनी खूबसूरत सिनेमैटोग्राफी है. बहुत बड़ा लॉस है, सिर्फ मेरे लिए नहीं, बल्कि उनके परिवार के लिए, इंडस्ट्री के लिए भी. मेरे खयाल से वो जल्दी चले गए.

एक्टिंग का पेशा अनिश्चितता से भरा है. क्या आपको लगता है कि एक्टर्स के पास प्लान बी होना चाहिए?
कौन असुरक्षित नहीं होता है? इनसिक्योरिटी आपको फोकस में भी रख सकती है या पूरी तरह से निगेटिव भी बना सकती है. इनसिक्योरिटी एक डर है. डर क्या है? आपमें कमी है कोई, आत्मविश्वास नहीं है. आप उस डर को खत्म करो. जैसे बचपन में आप अंधेरे में नहीं चल सकते हो, लेकिन बड़े होने पर आप अंधेरे में चलते हो, आप नहीं सोचते हो कि कोई भूत या चुड़ैल आ रही है. मेरा मानना है कि जो आप सोचते हैं, आपकी जिंदगी वही होती है. आप किसी का बुरा मत सोचो, पॉजिटिव सोचो, किसी के डाउनफॉल पर खुश न हो. जो मैं देखता हूं कि काफी होता है. तो आपकी जिंदगी खुद-ब-खुद आपकी इनसिक्योरिटी दूर होती जाती है और आपमें कॉन्फिेंडस आएगा और जब आपमें कॉन्फिडेंस आएगा, तो लोगों को आपमें कॉन्फिडेंस आएगा. लोग आपको देखेंगे कि ठीक है, इसे फॉलो करते हैं. प्लान ए क्या है, बी क्या है? कौन सा चलने वाला है, किसी को नहीं मालूम है. कोई भी काम करने से पहले मैं अपने आपसे तीन सवाल पूछता हूं. एक- क्या ये काम करने के बाद मुझे खुशी होगी? क्या गर्व होगा? दूसरा- फिल्म हो या बिजनेस हो, क्या मैं इसमें पैसे कमाऊंगा? जो मेरे लोग हैं, वो पैसे कमाएंगे? तीन- उसे करने से मेरी ग्रोथ क्या होगी?

एक सुपरमॉडल से एक अभिनेता और बिजनेसमैन की जर्नी तय करने का अनुभव कैसा रहा?
ऊपर मैंने जो तीन सवाल बताए, उन्हें अपने आप से पूछें. अगर जवाब सही मिलता है, तो आगे बढ़ें. अगर फिल्म आती है तो मैं सोचता हूं कि क्या मैं छह महीने इस यूनिट के साथ निकाल सकूंगा? हॉबीज हैं मेरी. क्लब खोला है मैंने क्योंकि मैं म्यूजिक का शौकीन हूं. इलेक्ट्रानिक म्यूजिक मुझे पसंद है. मैं सोच रहा था कि एक ऐसा क्लब खोला जाए जहां लड़कियों को सेफ की फिलिंग मिले. उस इंटेशन से क्लब खोला, चल गई. अगर हॉबी को आप प्रोफेशन बना सकते  हैं, तो अच्छा है.

शाहरुख के साथ आपके किस तरह के रिश्ते हैं? लोगों को ऐसा लगता है कि शाहरुख और आपके बीच मतभेद हो गए हैं.
अच्छे रिश्ते हैं. रिश्ते में आप इतना इनवॉल्व क्यों होना चाहते हैं? मैं आपसे जो भी कहूंगा, उससे मेरी प्रॉब्लम सॉल्व होने वाली है? नहीं. तो फिर मैं क्यों किसी को बोलूं? अगर किसी के साथ प्रॉब्लम्स हो भी, मैं शाहरुख की बात नहीं कर रहा हूं, तो आपको खुद जाकर उस प्रॉब्लम को सॉल्व करना चाहिए. मीडिया में उस बात को लाने का मतलब नहीं बनता. क्यों मीडिया में उसे डिस्कस करना?

आप एक फैमिली मैन दिखते हैं. क्या इसका श्रेय आपकी पत्नी मेहर को दिया जा सकता है?
हां, बिल्कुल. हमारी इंडस्ट्री में खास तौर से जो बीवी होती है, घर में जो लोग होते हैं, वह बहुत जरूरी होते हैं, वह आपके ग्राउंडिंग फैक्टर होते हैं.

सुपरमॉडल के बाद क्या वह सुपरवाइफ साबित हुई हैं?
आप सुपरवूमन भी कह सकते हैं!

आप इंडस्ट्री के एक सबसे गुडलुकिंग और हॉट स्टार हैं, लेकिन आपके बारे में कभी कोई र्यूमर नहीं सुनने को मिला. क्या आप समर्पित पति हैं इसलिए?
जब सब कुछ ठीक है घर पर, तो बाहर जाकर प्यार डूढने की जरूरत क्या है? मुझे समझ में नहीं आता है. मैं जहां हूं, खुश हूं. अफवाह तो अफवाह होती है. कभी कोई बढ़ा-चढ़ाकर लिख देता है, कभी उसमें सच्चाई होती है. मैं गॉसिप में इंडल्ज नहीं करता और उसे इनकरेज नहीं करता हूं.

क्या कभी आपने यह महसूस किया है कि लड़कियां आपके ऊपर खुद को न्यौछावर करती हैं?
वो होता है, लेकिन आप जानते हैं कि यह एक दौर है. ठीक है, मैं भी फिल्में देखता था. जब मैंने पहली बार अमित जी को देखा, तो एक फैन की तरह बिहेव किया. मैं खुद एक फैन रह चुका हूं, तो मैं जानता हूं कि फैन कैसे होते हैं? मेरे लिए जरूरी हैं वो. मैं अपने फैंस की इज्जत करता हूं. मैं रास्ते पर चलूं और कोई मुझे देखे ही नहीं, तो मैं बहुत नाराज हो जाऊंगा.
-रघुवेन्द्र सिंह 
 साभार-filmfare

Thursday, November 15, 2012

"I'll not speak about my problems with SRK"- Arjun Rampal

 
Q. After Raajneeti it was Chakravyuh and now Satyagraha. Your association with Prakash Jha continues...
When you’ve had a good experience with a director you strike a chemistry with him. Every actor, either in Hollywood or here, has a favourite director. Prakash and I have developed that kind of association. All the characters that he offered me - be it in Raajneeti, Chakravyuh or Satyagraha are different from one another. He views me in a different light each time. His research is fascinating and he knows his art. He wanted to work with me even when I was new in the industry. He had offered me the role of Prithvi in Raajneeti five years before the film was made. Years later, he called me and said, “Remember the role I spoke to you about? We are making that film now.” I have also done Sudhir Mishra’s Inkaar, which was suggested to me by Prakash. 
 
Q. In recent years, your choice of cinema has changed. Is this the Prakash Jha effect?
What is the point of making a film if you don’t learn anything? Prakash is an honest film maker. He doesn’t make sensational films. He makes topical films, which enlighten you. While doing Chakravyuh... we understood the Naxal issue in depth. And when you understand the problem, you find the solution as well. Prakash brings that kind of research tohis projects.
Q. Between Raajneeti and Chakravyuh, you have done hardcore entertainers like Heroine and Rascals...

Rascals can’t be called my film. I had a special appearance in it. David (Dhawan) approached me and it was Sanju’s (Sanjay Dutt) production. I didn’t do it for friendship; I did it because I liked the character. David makes comedies well. My work was only for six or seven days. I enjoyed doing RA.One too. That was a powerful role. People don’t take the entire film back home. They take away one specific thing about it. I look for films where I have something fresh to do because I too get bored doing the same thing again and again. I want to surprise the audience. My fan following has extended to children thanks to RA.One. When I did Rock On!!! people began calling me Joe. After Om Shanti Om they began calling me Mukesh Mehra. If people call you by the name of your character then you have done good work. I enjoy working in films that are real, entertaining and commercial at the same time. I like this combination.
 
Q. How different is your circle of friends today from when you joined films?
You don’t change friends like you change clothes. I have formed friendships with people I have worked with. The industry islike a family. Why should I take anyone’s name? Who my friends are and who I hang out with are personal matters.
 
Q. If the industry is like a family then what about the alleged rivalries? Even Heroine touched upon that...
Such things do happen at times. In Heroine, the protagonist is a difficult character herself. You need to understand that you have come here to work. As a true professional, you come on time, finish your work and go home because you are paid for it. But if you take the money and are not honest towards your work or bring personal hassles to the set, then it affects your reputation. What does an actor have besides his reputation and work? You need to stay real in this unreal world.
 
Q. Acting as a profession is full of uncertainties. Should actors have a plan B?
Who’s not insecure? Insecurities help you stay focused. They can make you negative as well because insecurity is a type of fear. It’s stems from lack of confidence You should overcome this fear. Like you’re afraid to walk in the dark as a child, but you do walk in the dark once you grow up. You don’t fear ghosts or witches then. Above all, your life is what you make of it. You shouldn’t wish bad for anyone or be happy at someone else’s downfall. When you remain positive, insecurity gives way to confidence. And when you have confidence in yourself, others too gain confidence in you. What is plan A or plan B? No one knows what will work or what won't. Whenever I start something new, I ask myself three questions. Firstly, will I be happy doing it? Secondly, will I make money from it? Thirdly, how will it help me grow? I have many hobbies. Recently, I launched a club because I am fond of music — electronic music. If you can make a profession out of your hobby then there’s nothing like it.
 
Q. Much has been written about your alleged fallout with Shah Rukh Khan...
Our relations are good. Why do you want to get involved in my relationship? Will what I say solve my problem? No. Then why should we talk about it? Even if there are problems with anyone, and I am not talking about Shah Rukh, then one should go out and solve them. There’s no point in tossing it around in the media. 
 
Q. Have you had girls throwing themselves at you?
Yes. But it’s okay. When I saw Amitji (Bachchan) for the first time, I behaved like a fan myself. So I know how a fan behaves. I respect my fans. They are important for me. If I step out and no one notices me, I’d get upset.
 
By-Raghuvendra Singh
link- http://www.filmfare.com/interviews/ill-not-speak-about-my-problems-with-srk-arjun-rampal-1669.html

Wednesday, November 14, 2012

Review: Chhodo Kal Ki Baatein

Chhodo Kal Ki Baatein

Director: Pramod Joshi
Cast: Sachin Khedekar, Anupam Kher, Mrinal Kulkarni and Atul Parchure

Life’s full of manic energy. We’re living a life of KRAs and there’s nothing more important than achieving your daily targets. And it is in this organic process that we learn to overlook and neglect the happiness of our loved ones and, of course, our own self. But the meaning of life lies in the smaller things and those insignificant moments of happiness you share with your loved ones. Director Pramod Joshi tries to encapsulate this philosophy in his debut Hindi feature film, Chhodo Kal Ki Baatein.

IT professional Aditya Pradhan (Sachin Khedekar) miraculously lives one Sunday of his life over and over again. The filmmaker uses the premise as a metaphor for the monotony of modern life. Aditya learns the secret of living for today when he meets with the slightly eccentric and mysterious Benaam Kumar (Anupam Kher). Benaam’s trick for a happy life is to stop worrying about the future and start living in the moment. Director Pramod Joshi’s attempt to make meaningful cinema on debut is a commendable feat. But his film suffers because of its repetitive narrative. The story does get a shot in the arm with Kher’s histrionics but as soon as you’re ready to root for the film, it turns into a preacher’s lesson. The script could have been tighter and a lot more innovative. And it also suffers from a huge pot boiler hangover, there’s an item number pushed in your face for absolutely no rhyme or reason.

In the realm of repetitive scenes Sachin Khedekar sparks life with a wide variety of emotions. His well-rounded performance gets you through the film. The ultimate veteran that Anupam Kher is, he juggles through child-like innocence and sage-like wisdom as if they were his Facebook and Twitter accounts. The film’s cause elevates thanks to its experienced actors. The supporting cast of Atul Parchure, Mrinal Kulkarni Anjan Srivastav and Vijay Patkar are like pillars of support.
With the unique subject matter at hand and a wonderful team of actors, Pramod Joshi could have done so much more. Alas, all he manages to do is dole out a barely acceptable film. 

By: Raghuvendra Singh
link: http://www.filmfare.com/reviews/chhodo-kal-ki-baatein-350.html

Movie Review: Tezz

Tezz

If you don’t believe me, watch Tezz at your own risk. The film is a mishmash of such Hollywood actioners like Speed, Unstoppable and The Taking Of Pelham 123. In fact, fellow reviewers and I had a gala time guessing which scene was copied from which film.

The plot has more holes than seven-year-old Swiss cheese. Why was Anil Kapoor called back on his retirement day to face a fresh crisis? Why did Ajay Devgn, Zayed Khan and Sameera Reddy–all illegal immigrants–suddenly decide to become terrorists? Couldn’t they have reacted differently to counter the so-called atrocities against them? They were illegal immigrants, right? So how can they expect to be left alone by the police? And best of all, everyone dealing with the crises is an Indian. We didn’t know that Indians ran British rail and police systems.


The screenplay by Robin Bhatt  and dialogue by Aditya Dhar also leave much to be desired. This is their second disastrous team up with Priyadarshan after Aakrosh and the director should seriously think of replacing his writing team. After Ajay and Zayed buy a bomb from a spurious arms dealer, they enter a den where they are treated to a buxomy dance number by Mallika Sherawat and suddenly Sameera Reddy is also introduced in the same sequence. Then there is a lengthy flashback sequence involving Ajay and Kangna. When they finally meet after four years their meeting looks stilted and artificial. The distinct lack of chemistry between the two jars.


The high-speed chase sequences featuring Sameera and Zayed are the saving grace of the film. Mention must be made of poor Mohanlal who, being Priyadarshan’s best friend, appears in a small cameo, where he rescues fellow passengers. It would have helped if Priyadarshan had cut the flab and made the film more slick. The dialogue is unwittingly hilarious and takes the punch out of the taut drama. The Hindi subtitles too aren’t translated properly and this sort of goof up is unpardonable from such a prestigious banner.


Your heart goes out to Anil, Ajay and Boman who have desperately tried to salvage the film with their inspired histrionics. Alas, their efforts aren’t enough and watching Tezz makes you want to run away from your seat, much like the much-feared locomotive featured in the film.

By: Raghuvendra Singh
link:http://www.filmfare.com/reviews/tezz-371.html

Movie review: Delhi Safari

Movie review: Delhi Safari
Director: Nikhil Advani
Voice Cast: Swini Khara, Govinda, Akshaye Khanna, Suniel Shetty, Urmila Matondkar and Boman Irani

In India, making animation films automatically means you’re making a film for kids. But times are a changing and so is the way filmmakers today think about this genre. Nikhil Advani’s Delhi Safari is the perfect example of the way animation films are broadening their horizons. This 3D animation film can best be described as an entertainer with a social message. It has enough humour to please the kids and it has just the right content to allow its adult audience a long hard think.

Rapidly axed trees and dwindling animal numbers are two of India’s biggest ecological challenges today. Credit to Nikhil Advani that he conveys this confined to news reports and government files message in a fun way. It ensures the right kind of message reaches the audience and they understand it too. The unique part of this film is that it tells that sensitive story through animal characters. 

The story kick starts into motion when humans encroach upon the jungles in an attempt to construct new buildings. In the process they rob the fauna of their natural habitat and they also end up killing Sultan the leopard. All this as the humans set up a promotional board that asks settlers to come live in harmony with nature. That the story conveys this irony is good, but the execution is far from credible. Nevertheless, the animals headed by the resolve of Sultan’s young son Yuvraj, decide to take their problem of encroachment to the Parliament in Delhi. In order to be able to communicate with the humans, they seek the help a pet parrot and make him a spokesperson.

Yuvraj’s party includes his mother, a bear, a monkey etc. These animals have been voiced by popular Bollywood stars like Urmila Matondkar, Boman Irani, Govinda and Suniel Shetty. You might think it adds value to the film but its effect is the exact opposite. Advani would have done better to hire regular voice over artistes, because the familiarity with the voices of B-town stars robs the animal characters of their original charm and makes them seem like the actors voicing them. For example, the monkey is voiced by Govinda. The primate is supposed to be loud-mouthed and over confident an exact template of the countless roles we’ve seen Govinda play in David Dhawan films. 

Not just that, Advani’s stuffed the film with innumerable songs like a regular three-hour Bollywood feature. It makes the narrative less effective, distracting the viewer from the more important and engrossing story of the film. The film also meanders into unnecessary plot developments with wolves and honey bees. You can see these developments are included to create entertaining situations targeted at a young audience. While these sequences are funny, they don’t add to the story.

The 3D is nothing to write home about either. But the CGI detailing on the animals is fantastic. That the story holds weight also works in favour of the film. If only Advani had not strayed from the social subject and made a tighter and breezier film. Watch this with your kids and you’re guaranteed smiles all the way.


Written By: Raghuvendra Singh
link: http://www.filmfare.com/reviews/movie-review-delhi-safari-1515.html


Movie Review: Luv Shuv Tey Chicken Khurana

  • Movie Review: Luv Shuv Tey Chicken Khurana
Director: Sameer Sharma

Cast: Kunal Kapoor, Huma Qureshi, Rajesh Sharma, Vinod Nagpal, Dolly Ahluwalia and Vipin Sharma

Anurag Kashyap Productions seems to be doing a fantastic job with its line-up of small but fresh films. Gangs Of Wasseypur 1 and 2 presented a detailed view of Bihar and Bahubali politics and these films were praised for their detail, colourful language and insights. Luv Shuv Tey Chicken Khurana presents Punjab in a similar and unique light. Watching this film is like being transported to a remote village in the Punjab landscape. Having said that, there are no flowing mustard fields, colourful costumes or dancing Sikhs on display. The highlight of this film is realism and debut director Sameer Sharma presents this rustic Punjab with great conviction.

The story travels from London to rural Punjab with its protagonist Omi (Kunal Kapoor). An ambitious boy, Omi steals money from his family and flees to London chasing his dreams. But as fate would have it, Omi’s forced to return to Punjab and his family because he ends up owing money to the wrong people. To his surprise Omi’s family welcomes him with open arms. It’s a happy family, but the only catch is Omi’s childhood sweetheart Harman (Huma Qureshi) is being married off to his younger brother Jeet. The main story arc though deals with Omi’s run in with Kehar Singh (Vipin Sharma) who offers him money for Omi’s late Grandfather’s (Vinod Nagpal) famous Chicken Khurana recipe. The concept is novel, but the execution could have been better.

The film spends too much time cooking the sweet broth of love and relationships. In doing so, for about an hour the film goes nowhere. There is a multitude of supporting characters in the film all with their own quirks. There’s an industrious crow that saves the Khurana family time and again and is believed to be an incarnation of Omi’s late grandmother. There’s a hash addicted Priest lady who’s Omi’s aunt. As the fringe characters keep adding to the narrative, the main story of whether Omi sells his grandfather’s recipe to the money minded bad guy doesn’t move forward until the climax.

But Amit Trivedi’s delightful music adds a spectacular flavour to the film. His music is fresh and very unlike the regular dhol-obsessed music B-town presents in Punjabi situations. Also commendable are the themes where the film talks of Punjabis’ obsession with settling down overseas and that even middle-class families are capable of progressive thinking. Kunal Kapoor gives a compact and honest performance. Huma Qureshi captures the Punjabi essence of her character with great effect.

While the film is generally feel-good, Sameer Sharma could’ve done a much better job. Luv Shuv Tey Chicken Khurana is a small film that serves up a decent dose of entertainment. It’s like comfort food. Rich in nutrition, easy-to-eat but light on the masala.

By: Raghuvendra Singh
link: http://www.filmfare.com/reviews/movie-review-luv-shuv-tey-chicken-khurana-1607.html

Review: Son Of Sardaar is not so funny


Review: Son Of Sardaar is not so funny
Director: Ashwni Dhir

Cast: Ajay Devgn, Sanjay Dutt, Sonakshi Sinha

If you fancy jokes on Sardaars, the kind that are regular in joke books and smses, Son Of Sardaar is the film for you. Director Ashwni Dhir’s film is best described as a compilation of the most popular jokes on Sikhs. In the film, some of them make you laugh while others bore you out of your skull.

There are no two ways of what SOS tries to do. From its introductory shot the film makes it clear with the lines Jiska MC BC mein hai pyar, jo hai dildaar, son of sardaar. So the story revolves around son of sardaar Jassi (Ajay Devgn) who returns to his native Punjab after an absence of 25 years to sell off his father’s property. He’s greeted by his arch nemesis Ballu (Sanjay Dutt) who’s been waiting to avenge his elder brother’s death. It so happens that 25 years ago, Jassi’s father and Ballu’s brother have killed each other. To sample the film’s juvenile humour, Ballu swears not to marry until he’s avenged his brother’s death. And he has all his cousins swear in that they won’t have ice creams and cold drinks till his vendetta is settled. If that’s not enough, Jassi lands up in Ballu’s house as a guest. But Jassi can’t be harmed because Ballu’s family believes in a tradition where they don’t kill enemies in the house. And to add a twist of romantic comedy, Jassi falls for Ballu’s niece Sukkhi (Sonakshi Sinha). It’s their love story that acts as a deterrent to the hostilities.

SOS reaches the apex of its entertainment value right at the start. With Ajay Devgn emulating his classic stunt from the Phool Aur Kaante days, applause from the audience is guaranteed. Add to that a stellar opening action sequence and a cameo by Salman Khan, and you feel SOS is going to be one helluva ride. But, everything thereon is downhill. Subsequently as the film unfolds, you come to realise you’re just being treated to dramatized versions of popular jokes. Sample this. Jassi says he won’t go back to India, because people back home will call him Hindustan Leaver (a pun on the FMCG giant Hindustan Lever). Or a bunch of village folk trying to identify a grown up man from his childhood photo. And one smart aleck remarking, they’ll enlarge the photo to match his growth. Given that at times these situations make for good comedy, but how much can one take of such arbitrary and bizarre humour? Surely not a film full of it.

What’s actually funny in the film is situational comedy between Sukkhi and Jassi. Their naïve romance, their misfit adventures in a train with a coconut etc are genuinely funny. But that’s just a miniscule part of SOS’ lengthy runtime.

You can’t even defend the theme of warring clans and families because such formulae belonged in the ’80s and are long considered passé. What mildly entertain are the action scenes. The altercations between Ajay Devgn and Sanjay Dutt make for good parody on run-of-the-mill action stunts.

But you can’t complain about the actors. Ajay Devgn gives his simple role his heart and soul. He makes Jassi a charming and loveable Sikh. And the reason half the film’s gags work is down to Ajay’s comic timing. Sonakshi Sinha delivers another crowd pleasing performance. The highlight of her role is the generous amount of Kutte Kaminey expletives up for her perusal. Sanjay Dutt and Juhi Chawla are veterans at comic timing as well as screen presence and they do not disappoint.

But even as the actors perform with conviction, other departments of filmmaking let SOS down. In particular to blame are the writers. For a film that advocates the line, “sardaar pe joke karna par use joker mat samajhna” (Joke on a Sardaar but don’t treat him like a Joker) the film goes on to present its protagonist (a Sardaar) and most characters in the same light. Comedy is more than just gags and slapstick. Sadly SOS gets it wrong.

By- Raghuvendra Singh
Link: http://www.filmfare.com/reviews/review-son-of-sardaar-is-not-so-funny-1680.html

Thursday, November 8, 2012

बोल्ड एंड ब्यूटीफूल पाखी हेगड़े

भोजपुरी सिनेमा की हॉट अभिनेत्री पाखी हेगड़े से रघुवेन्द्र सिंह ने की मुलाकात
भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में एक लडक़ी ऐसी है, जिससे पहली मुलाकात में ही आपको इस बात का एहसास होगा कि यह इस क्षेत्रीय सिनेमा में फिट नहीं बैठती है. वर्सोवा (अंधेरी वेस्ट) में इस खूबसूरत लडक़ी के ऑफिस में हम फिल्मफेयर के फोटोशूट का डिस्कशन करने के लिए मिलते हैं. यह उनकी कंपनी सेनूर एंटरटेनमेंट का दफ्तर है, जिसमें उन्होंने एक सेलीब्रिटी क्रिकेट टीम खरीदी है. इस टीम का हिस्सा भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री के स्टार कलाकार हैं, जो सेलीब्रिटी क्रिकेट लीग (सीसीएल) में खेलते हैं. वह हमें खुशी से बताती हैं कि अब थर्ड रॉक एंटरटेनमेंट प्रा लि की वे हिस्सेदार हैं, जो फिल्म प्रमोशंस एवं इवेंट मैनेजमेंट में सक्रिय कंपनी है. हम बात कर रहे हैं पाखी हेगड़े की, जो भोजपुरी फिल्मों में बिकिनी और स्मूचिंग सीन देने वाली पहली अभिनेत्री हैं, जो दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ के साथ अपनी हॉट जोड़ी को लेकर हमेशा चर्चा में रहती हैं. 

बिना किसी हिचकिचाहट के पाखी हेगड़े बताती हैं, ‘‘मैं हमेशा हिंदी फिल्मों की हीरोइन बनना चाहती थी. मैंने पहले हिंदी फिल्मों में काम पाने की कोशिश की, लेकिन अगर आपका कोई गॉडफादर नहीं है या आप किसी फिल्मी खानदान से नहीं हैं, तो उस इंडस्ट्री में आपको अपने लिए स्थान बनाना बहुत मुश्किल है. निर्माता-निर्देशक आपको अलग नजरिए से देखते हैं. मुझे कई लोगों ने सुझाव दिया, ‘गुडिय़ा आपके लिए टीवी ठीक है.’ ’’ दरअसल, पाखी ने दूरदर्शन के एक सीरियल मैं बनूंगी मिस इंडिया से अभियन में कदम रखा था. उसमें उनका सुहानी सहाय का मुख्य किरदार बहुत पसंद किया गया. उनके मासूम चेहरे को देखकर लोग उन्हें गुडिय़ा कहा करते थे. ‘‘आज भी जब मैं गांव में भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग के लिए जाती हूं, तो लोग मुझे सुहानी के नाम से बुलाते हैं. मुझे आश्चर्य होता है कि लोग मेरे सीरियल को इतना अधिक पसंद करते थे.’’
मुंबई के एक मध्यमवर्गीय परिवार में पली-बढ़ी हैं पाखी. उनके पिता होटल के व्यवसाय में थे. वे चाहते थे कि पाखी होटल के बिजनेस में आएं, मगर पाखी ने ठान लिया था कि उन्हें बड़े पर्दे पर अपनी किस्मत चमकानी है. ‘‘बारहवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने फिल्मों में आने का फैसला लिया. मगर मेरे परिवार ने फिल्मों में काम करने पर रोक लगा दी, तो मैंने कहा कि मैं टीवी में जाऊंगी. इस तरह मैंने अपनी राह बनाई.’’ मैं बनूंगी मिस इंडिया में पाखी के काम की चर्चा हुई, तो फिल्मकार टीनू वर्मा की नजर उन पर पड़ी. उन्होंने अपनी भोजपुरी फिल्म धरती कहे पुकार के उन्हें ऑफर की, मगर पाखी भोजपुरी फिल्म में काम करने के लिए तैयार नहीं थीं. ‘‘भोजपुरी फिल्मों के बारे में मैंने अच्छा नहीं सुन रखा था. मेरा नजरिया इस सिनेमा को लेकर कुछ अलग था.’’ लेकिन 2005 में पाखी ने ज्ञान सहाय की भोजपुरी फिल्म बैरी पिया में काम करने के लिए हां कह दिया. अपने इस फैसले के बारे में पाखी कहती हैं, ‘‘बैरी पिया का किरदार बहुत स्ट्रांग था. सरस्वतीचंद्र फिल्म में नूतन के किरदार से यह मिलता-जुलता था, इसलिए मैंने हां कहा.’’
पाखी के शुरूआती प्रयास निष्फल रहे. ‘‘शुरू में लोगों ने मुझे यह कहकर रिजेक्ट कर दिया कि बहुत सिंपल लुक है.’’ पाखी याद करती हैं. मगर जब उन्होंने निरहुआ रिक्शावाला फिल्म में दिनेश लाल यादव निरहुआ के साथ किसिंग सीन करते हुए स्क्रीन पर एंट्री मारी, तो सीटियों से हॉल गडग़ड़ा उठा. पाखी को सफलता का पहला स्वाद निरहुआ रिक्शावाला से चखने को मिला फिल्म. ‘‘निरहुआ रिक्शावाला के लेखक आदेश के अर्जुन थे, जिन्होंने अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा की फिल्म एतराज (2004) लिखी थी. इसमें लोगों ने मेरे काम को बहुत पसंद किया. मुझे मेरी परफॉर्मेंस की वजह से इस इंडस्ट्री में जगह मिली.’’ इस फिल्म की कामयाबी के बाद पाखी भोजपुरी फिल्म के निर्माता-निर्देशकों के लिए लकी बन गईं और इंडस्ट्री के स्टार्स मनोज तिवारी, रवि किशन, ‘निरहुआ’ की पहली पसंद बन गईं.
पाखी केवल स्टार्स के साथ फिल्में करने के लिए जानी जाती हैं. मगर इस बात का खंडन करते हुए वह कहती हैं, ‘‘मेरे लिए रोल और प्रोडक्शन हाउस मायने रखता है. मैं स्टार्स देखकर फिल्में साइन नहीं करती.’’ पाखी ने लोगों की इस बात को झुठलाने के लिए कुछ महिला प्रधान फिल्में जैसे संतान, औलाद, दाग और दीवाना कीं, मगर ये बॉक्स-ऑफिस पर चली नहीं. ‘‘मैंने समझदारी से फिल्में चुनीं. मैं नागिन तू नगीना, निरहुआ चलल ससुराल, कइसे कहीं तोहरा से प्यार हो गईल, बिदेसिया में लोगों को मेरा काम बहुत पसंद आया.’’ पाखी जोर देकर कहती हैं और वे याद दिलाती हैं कि उनकी नई फिल्म गंगा देवी एक महिला प्रधान फिल्म है, जिसमें महिला आरक्षण के मुद्दे को उठाया गया है. ‘‘मुझे इस बात की भी खुशी है कि इसमें मुझे अमिताभ बच्चन और जया बच्चन जैसे दिगगज कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला.’’
पाखी ने कुछ साल पहले डी रामानायडू की फिल्म शिवा में बिकिनी पहनकर बवाल मचा दिया था. अभी यह हंगामा शांत भी नहीं हुआ था कि दिनेश लाल यादव के साथ कइसे कहीं तोहरा से प्यार हो गईल में स्मूचिंग सीन करके वे चर्चा का विषय बन गईं. ‘‘सेंसुऐलिटी और वल्गैरिटी के बीच बारीक फर्क होता है. मैंने हमेशा इस बात का ध्यान रखा है. मैंने नायडू सर की फिल्म में बिकिनी पहनने के लिए हां कहा, जो साउथ के सम्मानित फिल्ममेकर हैं. मैं जानती थी कि वे मुझे सही तरीके से पेश करेंगे.’’ विराम लेकर पाखी कहती हैं, ‘‘मैंने हमेशा अपने दिल की सुनी है. मैं हमेशा खुद को निर्देशक के हाथ में सौंप देती हूं और ऐसे सीन करने में हर्ज क्या है? आप वैसे भी दर्शकों को ड्रीम बेचते हैं.’’ 
अपनी सफलता और लोकप्रियता का काफी श्रेय पाखी दिनेश लाल यादव को देती हैं, जिनके साथ उनकी जोड़ी हमेशा सफल रही है. दिनेश के म्यूजिक एलबम्स ने भी पाखी की लोकप्रियता बढ़ाने में बहुत मदद की. स्वयं पाखी बताती हैं, ‘‘दिनेश जी के होली, भक्ति और धोबी गीत के एलबम्स ने मुझे गांव-गांव में लोकप्रिय किया. मैं दिनेश जी के लगभग सभी एलबम्स का हिस्सा रही हूं. मैं उनको अपनी लोकप्रियता का बहुत श्रेय दूंगी.’’ दिनेश और पाखी की ऑन स्क्रीन केमिस्टी इतनी लाजवाब है कि लोग उन्हें रीयल लाइफ में भी एक साथ देखने लगे हैं. कुछ साल पहले पाखी ने दिनेश की निर्माण कंपनी के साथ मिलकर एक भोजपुरी फिल्म प्रेम के रोग भईल बनाई थी.  उसके बाद तो उनके रिश्ते को लोग एक अलग नजर से देखने लगे. दिनेश के साथ अपने रिश्ते को लेकर पाखी कहती हैं, ‘‘दिनेश जी के साथ मैंने पहली बार निरहुआ रिक्शावाला में काम किया था. तब वे एक्टिंग में कमजोर थे. उन्होंने मेरी योगयता देखी. हम दोनों ने इस तरह कनेक्ट किया. मैंने भोजपुरी बोलना उनसे सीखा है. मैंने देखा कि वे हमेशा सीखने के लिए तत्पर रहते हैं. हमारे बीच पारिवारिक संबंध हैं. समस्या यह है कि लोग रीयल लाइफ में भी हमें हीरो-हीरोइन की तरह देखते हैं.’’ 
पाखी हेगड़े अब धीरे-धीरे अपनी पहचान का दायरा बढ़ा रही हैं. भोजपुरी फिल्मों के साथ-साथ वे दूसरे भाषाओं की फिल्मों में भी अपनी पहचान बनाने के लिए प्रयासरत हैं. उन्होंने साउथ में अल्लारी नरेश की फिल्म बोम्माना ब्रदर्स चंदाना सिस्टर्स और एक दूसरी तेलुगू फिल्म ब्रह्मलोकम टू यमलोकम में एक-एक गीत किए थे. पाखी बताती हैं, ‘‘मैंने हाल में एक टुल्लू फिल्म बंगार दा कुरण की. यह उस भाषा में बनी है, जिस कम्यूनिटी की मैं हूं. बंट्स कम्युनिटी में इसका अच्छा नाम है. मैं एक मराठी फिल्म करने जा रही हूं, जिसका निर्देशन राजू पारसेकर कर रहे हैं. यह एक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास सरागत पर आधारित है. यह महिला प्रधान फिल्म है.’’ उत्साह के साथ पाखी अपनी पहली अंग्रेजी फिल्म वूमन फ्रॉम द ईस्ट के बारे में बताती हैं, ‘‘टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में इसे लोगों ने बहुत पसंद किया. अब यह सैफ (साउथ एशियन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल) में जा रही है. मैं भी वहां इसकी स्क्रीनिंग में जा रही हूं. यह इंटरनेशनल वूमन टै्रफिकिंग पर बनी है.’’ 
पाखी के बारे में भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में यह चर्चा आम है कि उनकी शादी हो चुकी है. उनकी एक बेटी भी है. यह सुनकर पाखी हंस पड़ती हैं, ‘‘ऐसी बहुत सारी बातें हमारे बारे में होती रहती हैं. हम सेलीब्रेटी हैं. मैं एक दिन अपनी आत्मकथा लिखूंगी. उसमें यह सब बातें लिखूंगी. अभी मैं अपनी पोजीशन को एंजॉय कर रही हूं.’’  
साभार: फिल्मफेयर

...तो सोनम को ज्यादा देर तक झेलना नहीं पड़ेगा- अभय देओल

पैरलल सिनेमा के स्टार अभय देओल अब कमर्शियल सिनेमा में अपने कदम जमा रहे हैं. रघुवेन्द्र सिंह ने देओल परिवार के इस नए खिलाड़ी से बात की

जोया अख्तर के साथ जिंदगी ना मिलेगी दोबारा में काम करने के बाद अब अभय देओल ने प्रकाश झा के अर्थपूर्ण कमर्शियल सिनेमा का चयन किया है. चक्रव्यूह में उन्हें अभिनय का प्रदर्शन करने का मौका मिलना तो तय ही है, यह बॉक्स-ऑफिस के लिहाज से भी सुरक्षित फिल्म मानी जा रही है.
सोनम कपूर के साथ आएशा फिल्म के प्रदर्शन के बाद हुए मनमुटाव को उन्होंने भूला दिया है और आनंद एल राय की रांझणा में उनके साथ काम करने के लिए हां कहकर उन्होंने चौंका दिया है. हाल में चचेरी बहन एषा देओल की शादी में उन्होंने एक भाई का फर्ज निभाकर सबका ध्यान खींचा. गर्लफ्रेंड प्रीति देसाई के संग अपने प्रेम के रिश्तों को उन्होंने सार्वजनिक रुप से अब स्वीकार कर लिया है. अभय देओल के साथ बात करने के लिए कई दिलचस्प विषय हैं. जानिए उनका पक्ष...

शांघाई को आलोचनात्मक सराहना मिली, मगर बॉक्स-ऑफिस पर उसका व्यवसाय उत्साहजनक नहीं रहा. आपके हिसाब से क्या वजह हो सकती है?
फिल्म ने पैसे तो बनाए, लेकिन ज्यादा प्रॉफिट नहीं कमाया. शांघाई का बजट इस प्रकार की फिल्म के लिए बहुत बड़ा बजट था. शांघाई में यह स्पष्ट नहीं है कि हीरो कौन है या विलेन कौन है. वो इंफॉर्मेशन थोड़ा सतही तरीके से दी गई. प्लॉट को सरल करना चाहिए था. अगर आप स्पष्ट बताएं कि यह सही है, यह गलत है और उसे सिंपल तरीके से शूट करें, उसमें कुछ गाने डाल दें, तो यह कॉम्बिनेशन ज्यादा काम करता है. शांघाई एक हद तक सफल है. ऐसे ही एक-एक स्टेप कर-करके हमारी पब्लिक, इंडस्ट्री की सोच का विस्तार होगा. अगर सब कहें कि चलो कॉमेडी बनाओ या सेक्स बनाओ, तो कहां जाएगी हमारी इंडस्ट्री? आजकल कुछ फिल्मों में वैसे भी बहुत ओवर द टॉप हो जा रहा है. ऐसे भी कुछ स्टूडियोज हैं, जो सिर्फ वही बेचकर बड़े हो रहे हैं. उसका मतलब ये नहीं है कि वो मार्केटिंग में गुरू हैैं. उसका मतलब ये है कि वो सस्ती चीज ही बेच सकते हैं.

आपकी इच्छा ऐसी फिल्म करने की नहीं होती, जिसमें हीरो, हीरोइन और विलेन स्पष्ट तरीके से पेश किए जाएं?
कभी-कभी मुझे लगा कि थोड़ा सा एडजस्ट करना चाहिए. ढीठ बनकर मैंने एक रास्ता पकड़ लिया और उसी पर चला जा रहा हूं. लेकिन क्योंकि मैं ढीठ बना रहा, मैंने समझौता किया नहीं, उसी वजह से मुझे लोगों ने सम्मान दिया और नोटिस भी किया. अगर मैं शुरूआत में ही दोनों तरह की फिल्में करने लगा होता, तो ना मैं यहां का रहता, ना वहां का रहता. मैं इस वक्त कहीं का तो हूं. मैंने जिंदगी ना मिलेगी दोबारा की. अब चक्रव्यूह कर रहा हूं. लोग मुझे समझ भी पा रहे हैं, क्योंकि लोगों और इंडस्ट्री को यह समझना जरूरी है कि व्हाट इज यू ऑल अबाउट. सलमान, शाहरुख, आमिर की तरह आपको भी अपनी एक पहचान और ब्रांड बनाना पड़ेगा.

शांघाई में आपको तमिलियन किरदार टीए कृष्णन के लिए काफी तैयारी करनी पड़ी थी. क्या चक्रव्यूह के किरदार की भी इस प्रकार की मांग थी?
किसी फिल्म के लिए आपको ज्यादा तैयारी करनी पड़ती है, क्योंकि बैकग्राउंड एकदम अलग होता है. किसी के लिए तैयारी कम करनी पड़ती है, क्योंकि बैकग्राउंड से आप परिचित होते हैं. टीए कृष्णन का किरदार मेरी लाइफ से सबसे ज्यादा दूर था. उसकी उम्र, पृष्ठभूमि, एïट्टीट्यूड, भाषा... सब मुझसे अलग था. चक्रव्यूह में ऐसा नहीं था, कबीर कम से कम तमिल तो नहीं था. 

प्रकाश झा के सिनेमा के बारे में आपकी क्या राय है? चक्रव्यूह में काम करने के बाद उनके व्यक्तित्व व सोच को आप कितना समझ पाए हैं?
मैंने मृत्युदंड और गंगाजल देखी हैं. मुझे दोनों पसंद आईं. मैं जानता था कि ये ऐसे निर्देशक हैं, जो मुद्दे पर आधारित फिल्में बनाते हैं. लेकिन उनकी पैकेजिंग और ट्रीटमेंट ऐसा करते हैं कि वह मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्म लगती है. इसके लिए मैं प्रकाश झा का सम्मान करता हूं. ऐसा बहुत कम लोग कर पाते हैं. वे ऐसे निर्देशक हैं, जो आपका मनोरंजन करते हैं और आपको प्रोवोक भी करते हैं.

इसकी शूटिंग आपने जंगल में की. किस प्रकार की मुश्किलें थीं वहां?
एक्शन बहुत है फिल्म में. उस हिसाब से यह बहुत डिमांडिंग थी. दौडऩे के शॉट्स हर दिन मुझे करने पड़ते थे. हर दिन या तो मैं भाग रहा था, साइकिल चला रहा था या पिस्तौल चला रहा था या किसी के साथ मेरी कुश्ती हो रही थी. एक बार मेरे पैर में मोच आ गई थी. दो-तीन दिन मैं बैठा रहा, लेकिन मुझे बहुत मजा आ रहा था.

आनंद एल रॉय की फिल्म रांझणा में सोनम कपूर के साथ काम करने के लिए हां कहकर आपने चौंका दिया है.
उसमें मैं केमियो कर रहा हूं न, तो सोनम को ज्यादा देर तक झेलना नहीं पड़ेगा (ठहाका मारकर हंसते हैं). जो हुआ, सो हुआ. मन में किसी बात को रखकर इंसान को आगे नहीं बढऩा चाहिए. लेकिन मैंने पहले जो कहा था, अब भी उस पर कायम हूं. मैं उससे पीछे नहीं हट रहा हूं. मगर हम सब आगे बढ़ चुके हैं.

यानी आप सब कुछ भूला चुके हैं?
ऐसी चीजें आती और जाती रहती हैं. मैंने अपनी फिल्म की आलोचना खुद की, इसलिए वह ज्यादा बड़ी बात हो गई. लेकिन मुझे अपनी फिल्म की बुराई करने का हक है. हम दूसरों की फिल्म को क्रिटिसाइज करते रहते हैं न! तो अपनी फिल्म को क्रिटिसाइज क्यों नहीं कर सकते? आपको क्या लगता है कि मुझे अपनी सारी फिल्में पसंद आती हैं? कई फिल्में मुझे उतनी पसंद नहीं हैं. मैं बीती बातें भूल चुका हूं. मुझे नहीं लगता कि कपूर फैमिली भी अब तक इस बात को लेकर बैठी है. जिंदगी बहुत छोटी है. पिपुल फॉरगिव एंड फॉरगेट. मुझे सोनम के साथ काम करने में कभी समस्या नहीं हुई थी, सेट पर कोई प्रॉब्लम नहीं हुई थी. अगर ऐसा हुआ होता, तो शायद मैं वहां वापस नहीं लौटता.

आपने केमियो के लिए हां क्यों कहा? 
स्पेशल अपियरेंस आपको तभी मिलता है, जब आपने जिंदगी में कुछ किया है. यह मेरे लिए प्रीविलेज है. आनंद एल राय से मिलने और कहानी सुनने के बाद मुझे पता चला कि वो क्यों मुझे उस किरदार के लिए चाह रहे थे. मैंने हमेशा माना है कि अगर रोल अच्छा है और छोटा है, तो उसे करने में हर्ज नहीं है. हनीमून ट्रैवल्स प्रा लि में भी मैंने छोटा सा रोल किया था. उस समय मैं सिर्फ सोलो फिल्में कर रहा था, लेकिन मैंने किया, क्योंकि स्क्रिप्ट मुझे पसंद आई थी. मुझे वह फ्रीडम चाहिए कि मैं एक फिल्म सोलो करुं, तो दूसरी में तीन हीरो के साथ रहूं. मैं चाहता हूं कि लोग मुझे किसी भी रोल में स्वीकार करें.

एषा देओल की शादी में आप भाई का फर्ज निभाते दिखे थे.
हमारा भाई-बहन का रिश्ता है. मैं खुश था कि उसकी शादी हो रही है. मैं इमोशनल हूं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मैं रोने लग जाऊं कि मेरी बहन की शादी हो रही है. मैं खुश हूं कि उसको एक ऐसा लडक़ा मिल गया, जो उसके लिए अच्छा है. दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं.

पैरलल सिनेमा में काम करके आपको लगता नहीं है कि आप अपनी प्राइस के साथ समझौता कर रहे हैं?
कुछ फिल्मों में आप प्राइस चार्ज नहीं कर सकते, क्योंकि आप उनमें पैशन के लिए काम करते हैं. आपको प्राथमिकताएं तय करनी पड़ती हैं. आप स्टार बनकर पैसे कमाना चाहते हो या एक्टर बनकर सम्मान कमाना चाहते हो? क्योंकि कई बार दोनों साथ नहीं जाते. मैं दोनों चाहता था. मैं जानता था कि देव डी अच्छा बिजनेस करेगी, लेकिन उस समय मेरा नाम इतना बड़ा नहीं था. उस समय जो लोग मुझे लेकर फिल्म बना रहे थे, उनका एïट्टीट्यूड था कि तुमको शुक्रगुजार होना चाहिए कि हम तुमको लेकर सोलो फिल्म बना रहे हैं. तेरी मार्केट क्या है? जब वह फिल्म बड़ी हिट हुई, तो स्टूडियो भी चौंक गया कि इतनी बड़ी हिट कैसे हो गई. अगर उन्हें पता चल गया होता कि यह बड़ी हिट होने वाली है, तो शायद उन्होंने मुझे आखिरी समय पर फिल्म से बाहर कर दिया होता. तब विकास बहल अनुराग कश्यप के साथ फिल्म बनाना चाहते थे, मेरे साथ नहीं. अनुराग ने उनसे कहा कि अभय ने मुझे यह आइडिया दिया है, तो मुझे वही चाहिए.

अपनी इस ईमानदारी का आपको कभी खामियाजा नहीं भुगतना पड़ा?
अगर मैं किसी की मदद से यहां पहुंचा होता, तो ऐसा हो सकता था. मेरे पास दिबाकर, अनुराग, नवदीप सिंह जैसे लोग आए थे. ये लोगचाहेंगे कि जो सच है, मैं वह बोलूं. उन्हें अच्छा लगता है. अगर मैं किसी पॉलिटिकल आदमी के साथ काम कर रहा होता, जिसकी स्टैंडिंग इंडस्ट्री में बहुत बड़ी है और वह खास प्रकार की फिल्में बनाते हैं और मैं भी वैसी फिल्म करके आगे बढ़ रहा होता, तो मैं अपने शब्दों को लेकर सजग रहता. मैं ईमानदार लोगों के साथ काम करता हूं, इसलिए मैं ईमानदारी से बात करता हूं. मुझे डर किस बात का है?

आप तीन खूबसूरत औरतों का नाम ले सकते हैं, जिन्होंने आपको आकर्षित किया है?
(हंसते हैं) इस वक्त तो मैं सिर्फ अपनी गर्लफ्रेंड (प्रीति देसाई) के बारे में ही सोचूंगा. उससे खूबसूरत तो कोई नहीं है. दुनिया की सबसे खूबसूरत लडक़ी मेरी गर्लफ्रेंड है.

प्रीति की क्या खासियतें हैं, जो दूसरी लड़कियों में नहीं हैं?
वह बहुत विनम्र और डाउन टू अर्थ है. बहुत रीयल है. वह 17 साल की उम्र से काम कर रही है. वह स्ट्रेट फॉरवर्ड है. उसके दिमाग में कोई गेम नहीं चलता है. वह सब मुझे पसंद भी नहीं है. मुझे सादगी आकर्षित करती है. वह बहुत खूबसूरत है. ऐसी लडक़ी ढूंढना बहुत मुश्किल है, जो खूबसूरत हो और सिंपल भी हो. अगर लडक़ी खूबसूरत होती है, तो उसके दिमाग में वह बात कहीं न कहीं चली जाती है.

आपके पिताजी (अजय सिंह देओल) की तबियत खराब थी. अब वो कैसे हैं?
अभी भी वो ठीक हैं. वह बुजुर्ग हैं और कुछ नहीं.

देव डी जैसे रोचक विचार अब आप क्यों नहीं लेकर आ रहे हैं?
इस वक्त मैं अपनी दूसरी फिल्म पर काम रहा हूं. एक लेखक हैैं, जो इस फिल्म से निर्देशन में डेब्यू करेंगी. उसे अपने बैनर में बनाऊंगा या नहीं, इस बारे में कुछ सोचा नहीं है. इस वक्त मैं ऐसी पोजीशन में हूं कि मुझे कोई भी पैसा दे देगा. इसमें मैं एक्टिंग नहीं कर रहा हूं. मेरी ख्वाहिश यह है कि मैं पर्दे के पीछे ही काम करुं, जो मैं सालों से करता आ रहा हूं. यह अलग बात है कि मैंने कभी क्रेडिट नहीं लिया.

आपने अपना बैनर (फॉरबिडेन फिल्म्स) शुरु किया था ना?
हां, जैसे ही मैंने अपने बैनर की घोषणा की, वैसे ही प्रॉब्लम आ गई (हंसते हैं). अगर आप मुझसे पूछेंगे कि मेरी जो अगली फिल्म आ रही है, उसमें मेरे प्रोडक्शन का हाथ है कि नहीं, तो मैं बोलूंगा कि हां है. अगर आप पूछेंगे कि आप प्रोड्यूसर हो, तो मैं कहूंगा कि नहीं. मैं एक्टिव हूं, लेकिन उसका क्रेडिट नहीं ले रहा हूूं.

क्या इसका यह अर्थ निकाला जा सकता है कि आप भविष्य में निर्देशक भी बन सकते हैं?
मैंने सोचा नहीं है कि मैं डायरेक्टर बनूंगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं डायरेक्ट नहीं करुंगा.
साभार- फिल्मफेयर 

Tuesday, November 6, 2012

आदित्य से सिर्फ दोस्ती का रिश्ता है

सुपरस्टार रानी मुखर्जी से रघुवेन्द्र सिंह ने फिल्मफेयर के लिए बातचीत की। उसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

स्वागत करने के लिए तैयार हो जाइए. रानी मुखर्जी फिर कमबैक करने जा रही हैं. जुहू में स्थित अपने भव्य बंगले कृष्णाराम से शायद सिनेमा के बड़े पर्दे पर! अब हमें बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार कर लेना चाहिए कि रानी जैसी मंझी और जिंदादिल अभिनेत्री कहीं नहीं जाने वाली हैं, क्योंकि निर्देशकों की एक ऐसी नई पीढ़ी खड़ी हो रही है, जो उन्हें देखते हुए बड़ी हुई है, उनके काम की दीवानी है और अब उन्हें लेकर ही अपनी कहानी गढ़ रही है. अइया के निर्देशक सचिन कुंडलकर और तलाश की निर्देशक रीमा कागती उसी नौजवान पीढ़ी का चेहरा हैं.
रानी अपने चाहने वालों के हाथों में खुद को सुपुर्द करने से हिचकिचाती नहीं हैं, क्योंकि वह जानती हैं कि वह उनका खयाल खुद से ज्यादा रखेंगे. प्रशंसक भले यह समझें कि उन पर रानी की नजर नहीं है, लेकिन रानी फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपने प्रशंसकों की उपस्थिति से परिचित हैं. हालांकि उनका इन साइट्स पर कोई हैंडल नहीं है.
पिछले कुछ सालों से रानी मुखर्जी और आदित्य चोपड़ा का रिश्ता एक रहस्य बना हुआ है. रानी को यशराज फिल्म्स का बॉस तक कहा जाता है. हालिया यह सुनने में आया कि दोनों ने चुपचाप कुछ महीने पहले शादी कर ली. मगर क्या यह सच है? रानी यह सुनकर अपनी खिलखिलाती हंसी रोक नहीं पातीं. इस माहौल में उनके बंगले की छत पर लगी रातरानी फूल की खुश्बू एक अलग एहसास भर देती है. रानी मुखर्जी से हमारी बातचीत...

आप जैसी खुशमिजाज और मिलनसार शख्सियत ने पिछले कुछ सालों से लो-प्रोफाइल क्यों रखा है?  
मैंने लो-प्रोफाइल नहीं रखा है. यह लोगों का नजरिया है. एक्चुअली, आज सब सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हैैं, रोज उनके बारे में कुछ न कुछ खबर आती है. मैं शायद अभी भी ओल्ड फैशन टाइप हूं. चार-पांच साल पहले हम सिर्फ फिल्मों की रिलीज के दौरान इंटरव्यू करते थे, जब कुछ बहुत महत्वपूर्ण कहना होता था, तब इंटरव्यूज करते थे. शायद मैं वही पैटर्न आज भी फॉलो करती हूं. मैं फिल्म के बनने से रिलीज होने के पीरियड में उसकी मेकिंग में ज्यादा रुचि रखती हूं और उसमें व्यस्त रहती हूं. मैं ट्विटर, फेसबुक, ब्लॉग जैसी चीजों में ज्यादा लिप्त नहीं होती हूं. इस वजह से शायद लोगों को लगता है कि मैं लो-प्रोफाइल रखती हूं.

आपको टिवटर या फेसबुक जैसी नेटवर्किंग साइट्स पर आने की जरूरत महसूस नहीं होती? अब तो देश के प्रधानमंत्री भी टिवटर पर हैैं.
प्राइम मिनिस्टर का तो ट्विटर पर होना बहुत जरूरी है. वो कुछ बोलेंगे, तो महत्वपूर्ण बोलेंगे. मैं क्या बोलूूंगी महत्वपूर्ण? जिन लोगों को बात करना बहुत पसंद है या जिन्हें बहुत सारी चीजों का नॉलेज है, वह सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर रहना पसंद करते हैं. मैं अपने ग्रुप में खुश रहती हूं. मैं अपने घर में ज्यादा वक्त बिताती हूं.

आपके सब दोस्त जैसे करण जौहर बोलते नहीं है कि ट्विटर पर आओ?

हां, बोलते हैं, लेकिन जरूरी नहीं है कि दोस्त कुछ बोलें, तो उसे फॉलो करना चाहिए. कितने लोग कहते हैैं कि आप फिल्म की रिलीज के दौरान ट्विटर पर चले आइए, आपकी फिल्म का प्रचार बहुत अच्छे से होगा, लेकिन मेरा मानना है कि उस तरह आप एक सोशल नेटवर्किंग साइट के माध्यम को मिस यूज कर रहे हैं.

लेकिन आमिर खान तो अपनी फिल्म के प्रचार के लिए ऐसा ही करते हैैं.
जैसा कि मैंने कहा कि सबका अपना अपना नजरिया है. कई एक्टर ऐसे भी हैैं, जिनके लिए लोग काम करते हैैं, जब वो बिजी होते हैं. उस समय उनका टिवटर एकाउंट कोई और हैंडल करता है. मेरे इर्द-गिर्द जितने कम लोग रहें, मुझे उतना अच्छा लगता है.

आपकी फिल्म का आज भी दर्शकों को इंतजार रहता है. इसका कारण क्या है?
हर एक्टर अपने फैंस की वजह से जिंदा रहता है और मुझे इस बात की खुशी है कि मेरे फैंस मुझे बहुत चाहते हैं. उनका जो इंतजार है, वह उनके प्यार की वजह से है. उनके प्रति मेरी जिम्मेदारी बहुत ज्यादा है, मैैं इसीलिए बहुत ध्यान से फिल्म साइन करती हूं. फैंस जिस तरह से मुझे प्यार करते हैैं, जिस तरह से मेरे लिए लड़ते हैं, उससे मुझे बहुत खुशी मिलती है. यह भी देखना आवश्यक है कि एक दर्शक के तौर पर मैैं वह फिल्म देखना चाहूंगी या नहीं. मेरे खयाल से हर साल दर्शकों का ट्रेंड बदलता रहता है, तो आपको उसे मद्देनजर रखते हुए भी फिल्म साइन करनी होती है. हर फेज चेंज होता है और उसका नॉलेज होना चाहिए. आपको डायरेक्टर या राइटर ऐसे चूज करने होते हैैं, जो उस वक्त, उस ट्रेंड के हिसाब से काम कर रहे हैैं.

आज कोई फिल्म रिलीज होती है, तो उस पर सौ करोड़ के मूवी क्लब में शामिल होने का प्रेशर रहता है. आपको लगता है कि अइया उस मुकाम को हासिल करेगी? 
आप शिर्डी जाइए और मेरे लिए प्रार्थना कीजिए, तो शायद आपका यह सवाल सच भी हो जाए (मुस्कुराती हैं). मैं इस बात में विश्वास करती हूं कि आप मन लगाकर काम करो, प्यार से फिल्म बनाओ और आगे की इतनी सोचो मत, क्योंकि जो होने या नहीं होने वाला है, उसे सोच-सोचकर हम वक्त नहीं बिताएं, तो बेहतर है. हम यह सोचकर फिल्म करते हैैं कि वह अच्छी बने, उसमें मास अपील हो, दर्शकों और क्रिटिक्स को पसंद आए. अब किस हद तक कोई फिल्म दर्शकों को पसंद आती है, दर्शक किस हद तक उसे प्यार करते हुए आगे ले जाते हैं, वह हमारे हाथ में नहीं है. यह भी डिपेंड करता है कि आपके स्टार्स कैसे हैैं.

आजकल अनेक अभिनेत्रियों का लक्ष्य केवल सौ करोड़ के मूवी क्लब में शामिल होना है. रोल की महत्ता उनके लिए मायने नहीं रखती. क्या आप ऐसी किसी फिल्म को हाथ लगाएंगी?
कोई आपके पास स्क्रिप्ट के साथ आकर यह नहीं कह सकता है कि यह फिल्म चलने वाली है.

साजिद खान तो दावे के साथ कहते हैैं!
अब तक शायद उन पर ईश्वर की कृपा है. लेकिन जहां तक मैंने देखा है कि कोई ऐसा इंसान नहीं है, जो आकर यह कहे कि आप यह फिल्म कीजिए, इसे करने से आपको अवॉर्ड मिलेगा या यह सौ करोड़ का बिजनेस करेगी. अगर ऐसा कोई इंसान जीवित होता, तो सब शायद उसी के पास जाते, मंदिर-मस्जिद जाना छोड़ देते. कम से कम फिल्म वाले तो उसके घर जाते और उससे पूछते कि भइया, मेरी स्क्रिप्ट जरा पढक़र बताइए कि मेरी फिल्म कितने करोड़ का धंधा करेगी? तो ही हम इस स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाएं. ऐसा तो कोई आदमी है नहीं. मैं समझती हूं कि ये सब बातें बहुत ही शैलो लेवल (घटिया बात) की हैैं. मेरा काम करने का तरीका थोड़ा सा कंटेंट ड्रिवेन होता है. बिना कंटेंट के मुझे नहीं लगता कि कुछ चल सकता है.

अइया में क्या कंटेंट होगा?
अइया में रोमांस और कहानी का कंटेंट मिलेगा, अच्छे गाने और नृत्य का कंटेंट मिलेगा, एंटरटेनमेंट मिलेगा. हम सपरिवार जिस तरीके की फिल्म जाकर देखना चाहते हैं, अइया वैसी फिल्म है.

अइया में आप एक इंसान की ओर उसकी सुगंध से आकर्षित होती हैैं. क्या आप रीयल लाइफ में भी ऐसा करेंगी?
जरूर. अगर आप मेरे पुराने इंटरव्यूज निकालें, तो उसमें आपको यह बात मिलेगी. पहले हमेशा एक सवाल पूछा जाता था कि आदमी की ओर आपको क्या चीज आकर्षित करती है, तो मैं बोलती थी कि सुगंध. एक आदमी की सुगंध बहुत अच्छी होनी चाहिए.

आपके कौन से को-स्टार में सबसे अच्छी स्मेल आती है?

शाहरुख खान. वो हमेशा बहुत अच्छे परफ्यूम लगा कर आते थे. मैं हमेशा उनके परफ्यूम के कलेक्शन चेक करती थी. उनसे पूछती थी कि आज आपने क्या लगाया है.

मीनाक्षी के किरदार के लिए किस चीज ने आपको आकर्षित किया?
मुझे सबसे दिलचस्प बात यह लगी कि मीनाक्षी सूर्या की ओर उसकी सुगंध की वजह से आकर्षित होती है. हिंदी फिल्म में ऐसा फ्लेवर अब तक नहीं देखा गया है. यह नॉवेल आइडिया लगा. अनुराग कश्यप ने डायरेक्टर सचिन कुंडलकर की बहुत तारीफ की. उन्होंने मुझे सचिन की एक फिल्म दिखाई थी, जिसमें मुझे सचिन का काम बहुत पसंद आया था. मैंने अनुराग से कहा था कि सचिन एक अच्छी कहानी लेकर मेरे पास आते हैं, तो मैैं जरूर उनकी फिल्म करूंगी. सचिन ने वैसा ही किया. वह बहुत अच्छी कहानी लेकर आए. और मैंने मराठी लडक़ी का रोल भी पहले नहीं किया था.

मीनाक्षी के किरदार को आपने कैसे आत्मसात किया? क्या प्रोसेज रहा?
सबसे पहले तो मुझे मीनाक्षी देशपांडे दिखना था. मीनाक्षी लगने के लिए मेरे लिए जरूरी था कि मैं मीनाक्षी की तरह बात करूं, क्योकि मीनाक्षी मेरी तरह बात नहीं करेगी. उसका बात करने का तरीका, हाव-भाव, चलने का ढंग अलग होगा. मीनाक्षी के कैरेक्टर में एक चीज दिलचस्प है कि वह रात में तो सपने देखती ही है, वह दिन में भी सपने देखती है. वह बैठे-बैठे ही अपने ख्वाब में निकल जाती है. वह मुझे दिलचस्प लगा. इसके लिए मैंने सचिन और उनके असोसिएट डायरेक्टर चिन्मय के साथ बहुत सारी रिडिंग्स की. मराठी लोग जिस तरह से हिंदी या अंग्रेजी शब्द का उच्चारण करते हैैं, वह बहुत ही अलग होता है. मैंने उस चीज पर काम किया. मैैं चाहती थी कि जब लोग ये फिल्म देखें, तो मीनाक्षी देशपांडे को पाएं. उसमें किसी की गर्लफ्रेंड, किसी की लवर, बहू, बेटी, बहन, भतीजी का फील आए. लोगों को लगे कि हमने ऐसी लडक़ी को अपने घर या पड़ोस में देखा हुआ है.

अइया के किरदार के लिए कॉस्ट्यूम तक की आपने खुद शॉपिंग की. क्या इन चीजों के लिए पांच-छह साल पहले भी आप वक्त दे पाती थीं?
मैं सात साल पहले भी ऐसा करती थी. जबसे मैंने साथिया पर काम करना शुरू किया, तबसे मेरा यही प्रोसेस रहा है. बंटी और बबली के कपड़े मैंने अक्की (नरूला) के साथ जाकर दुकानों से लिए थे.

इतनी मेहनत के बाद जब खबर आती है कि आपके मेकअप पर दस लाख रुपए खर्च हुए, तो आप कैसे रिएक्ट करती हैैं?
झूठ पर किस तरह का रिएक्शन हो सकता है. इस पर बात करके मैैं उस जर्नलिस्ट को ही महत्व दूंगी, जो इसके लायक नहीं हैैं.

पृथ्वीराज के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?
बहुत अच्छा रहा. वो बहुत ही मंझे एक्टर हैं. वो बहुत ही को-ऑपरेटिव और इंटेलीजेंट एक्टर हैं. जब आप एक अच्छे एक्टर के साथ काम करें, तो आपका काम भी अच्छा हो जाता है. पृथ्वी ने बेटर शॉट देने में मेरी बहुत मदद की. इस फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट मराठी थिएटर एवं फिल्म से है, सब बुहत ही एक्सेप्शनल एक्टर हैं. उनके साथ काम करके मुझे बहुत आनंद आया. अगर लोग मेरा काम इस फिल्म में पसंद करेंगे, तो उसका क्रेडिट मैं इन सब कलाकारों को दूंगी. पृथ्वी कहते रहते थे कि वो मेरे बहुत पहले से फैन हैं, क्योंकि उन्होंने मेरी कुछ कुछ होता है तब देखी थी, जब वो एक्टिंग नहीं कर रहे थे.

क्या यह सच है कि आप पृथ्वीराज को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सेटल होने में हेल्प कर रही हैं?
अच्छा? ये तो मुझे नहीं पता था. लेकिन ऐसी कोई बात नहीं है. जैसे आज अगर आप मुझसे पृथ्वी के बारे में पूछेंगे, तो मैं उनके लिए अच्छा ही कहूंगी. आप कुछ लोगों के साथ काम करते हैं, जो आपको पसंद आते हैं, आप स्पार्क देखते हो लोगों में और आप बिना कुछ सोचे या बिना किसी कारण के उनकी तारीफ भी कर देते हो. अब सबका अपना-अपना नसीब है. कोई किसी को न तो बना सकता है और न कोई किसी की हेल्प करता है. कौन किस टाइम पर कहां पहुंच जाता है, सब नसीब में लिखा होता है. उसका क्रेडिट किसी को देना भी नहीं चाहिए.

सचिन कुंडलकर (अइया) और रीमा कागती (तलाश) के साथ आपने पहली बार काम किया. नए निर्देशकों के साथ काम करने का सबसे अच्छा पहलू क्या है?
दोनों मुझे बहुत प्यार करते हैं. जब एक आर्टिस्ट ऐसे डायरेक्टर के साथ काम करे, जो उसे बहुत पसंद करता है, तो एक अलग रैपो बनता है और काम करने का मजा अलग होता है. जैसे रीमा दस साल से मेरे पास आ रही हैं. वह चाहती हैं कि उनकी हर फिल्म मैं करूं. नए निर्देशकों ने आपकी सभी फिल्में देखी हैं, तो उनका अपनी फिल्म के लिए आपको देखने का नजरिया बिल्कुल अलग होता है. वो अपनी स्क्र्प्टि में आपको अलग तरीके से दिखाने का प्रयत्न करते हैं. ऐसे में आपका आधा काम आसान हो जाता है. मुझे नए डायरेक्टर्स के साथ काम करना वैसे भी बहुत पसंद है. रीमा और सचिन दोनों बहुत ही अच्छे निर्देशक हैं, अपने काम को पैशन के साथ करते हैं, मंझे निर्देशक हैं दोनों.

नए निर्देशकों में आप किसके साथ काम करना चाहेंगी?
मैं जोया के साथ काम करना चाहूंगी. जोया भी बहुत सालों से चाह रही हैं कि मैं उनके साथ काम करूं और मुझे उनका काम बहुत पसंद है. उनके साथ काम करके मेरा काम भी बहुत इंप्रूव होगा. इम्तियाज अली का काम मुझे बहुत पसंद है. विशाल भारद्वाज, अनुराग बासु, अनुराग कश्यप, मनीष शर्मा और अभिषेक चौबे का काम मुझे बहुत अच्छा लगा है. मुझे आदि (आदित्य चोपड़ा) के साथ एक एक्टर के तौर पर कभी काम करने का मौका नहीं मिला. अगर वो मुझे डायरेक्ट करें, तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा.

आपने आठ महीने पहले आदित्य चोपड़ा से शादी कर ली. इसकी जानकारी जब आपको मिली, तब आपकी क्या प्रतिक्रिया थी?
किसने कहा? टैबलॉयड? जो लोग झूठ में विश्वास करते हैं, उनका क्या करें? झूठों की ही दुनिया है. यही प्रार्थना करती हूं कि जो लोग सच का साथ देेते हैं, वो इस दुनिया में रहें. ताकि लोगों तक सच जाए. मेरे खयाल से मेरी शादी को एक तरीके का मजाक बना कर रख दिया है, जो अच्छी बात नहीं है. लेकिन आप इंडस्ट्री में हैं और लोगों को आपके बारे में लिखने का हक है, तो लोग कुछ भी लिख देते हैं. उन्हें मना भी नहीं कर सकते.

सलमान खान के बाद आपकी शादी की चिंता सबको ज्यादा है. आप शादी करके इस चर्चा को खत्म क्यों नहीं कर देतीं?
मुझे ऐसी कोई जल्दी नहीं है और वैसे भी शादी जल्दबाजी में नहीं करनी चाहिए. जब मैंने कभी अलविदा ना कहना फिल्म की थी, तब मुझे यह सीख मिली थी कि शादी करो, तो सही रीजन्स के लिए करो. जब आप शादी करें, तो जरूरी है कि आप वह शादी निभाने के लिए करें. शादी को मजाक की तरह से नहीं देखें, तो बेहतर है.

शादी करने से आपको क्या चीज आपको रोक रही हैं? क्या अभी तक आपको सही इंसान नहीं मिला है?
ऐसी बात नहीं है. मैंने सुना है कि हम जोडिय़ों में नीचे आते हैं, बिछड़ जाते हैं और फिर शादी के दौरान मिलते हैं. तो जो इंसान मेरी जोड़ी में नीचे आया है, वह शादी के लिए मेरा जोड़ीदार बन ही जाएगा. तब तक मैं अपनी सिंगल लाइफ को काफी एंजॉय करुंगी. 

क्या आपको इस बात की जानकारी है कि आपकी पीठ पीछे इंडस्ट्री में लोग आपको यशराज का बॉस कहते हैं?
लोग मेरी पीठ पीछे क्या बात करते हैं, उससे न मुझे कोई लेना-देना है और न कोई लेना-देना होना चाहिए. मैं इस बात में विश्वास करती हूं कि आप अपनी लाइफ जीयो, अपना काम करो. भगवान आपको आपके काम की वजह से सफलता देगा या शायद आपको सफलता नहीं भी दे, तो उसमें कोई एक सीख छुपी होगी. लोगों का काम है कहना, लोग तो कुछ भी कहेंगे.

आदित्य चोपड़ा का नाम आपके साथ हमेशा जुड़ता है. उनके साथ आपके किस प्रकार के रिश्ते हैं?
प्रोड्यूसर तो वो मेरे रह चुके हैं. वो मेरे दोस्त हैं. उनसे दोस्ती का ही रिश्ता है.
   
खबर आई थी कि उन्होंने आपके जन्मदिन पर आपको डेढ़ करोड़ रुपए की कार गिफ्ट की.
वापस एक और झूठ. अब झूठ का क्या कर सकते हैं? लोगों का यही मानना है कि एक आदमी औरत को गिफ्ट देता है, औरत तो आदमी को गिफ्ट दे ही नहीं सकती है. ये जो नजरिया है लोगों का सोचने का, वह बहुत ही घटिया है. कभी-कभी दुख होता है कि लोग कैसी-कैसी बातें करते हैं.

आपने दस साल के बाद तलाश में करीना कपूर के साथ काम किया. उनके संग की सबसे खूबसूरत याद क्या है?
मुझसे दोस्ती करोगे की शूटिंग के दौरान मैंने और करीना ने बहुत अच्छे पल गुजारे थे. मैं और करीना अब तक उसे चेरिश करते हैं, क्योंकि वो पल शायद अभी न आएं, क्योंकि वो अलग पिक्चरें करती है और मैं अलग पिक्चरें करती हूं. करीना मुझे बहुत चाहती है और मैं भी उसको बहुत चाहती हूं. हम लंदन में शूटिंग कर रहे होते थे, तो हाइट पार्क वॉक के लिए जाते थे. खाना खाने साथ जाते थे. स्विटजरलैंड में जब हम साथ काम करते थे, तो वहां पर स्ट्रॉबेरीज और आइसक्रीम खाना मुझे याद है. ऐसी बहुत सारी यादें हैं. जैसे तब हम जब लोकेशन पर जाने के लिए एक बस में ट्रैवल करते थे. मुझे याद है कि जब हम लेक डिस्ट्रीक्ट शूटिंग करने गए थे, तो पूरी यूनिट एक बस में गई थी. बस में अंताक्षरी खेलना, वो बातें मुझे याद आती हैं. अब तो सब बदल गया है. अब आप आउटडोर में जाते हो, तो हर एक्टर के लिए एक अलग गाड़ी रहती है. सब अलग-अलग ट्रेवल करते हैं, लेकिन उस समय एक अलग चार्म था. आज भी जब मैं और बेबो मिलते हैं, तो बहुत प्यार से मिलते हैं. हममें एक चीज कॉमन है कि हम दोनों मुंहफट हैं, दोनों बोल देते हैं चीजें, दिल में कुछ नहीं रखते कुछ. मगर तलाश में हमारा साथ में कोई काम नहीं है. हमने अभी एक प्रोमोशनल वीडियो साथ में शूट किया.

लंबे समय के बाद आपने तलाश में आमिर खान के साथ काम किया. अब तक उनमें क्या चीज नहीं बदली है?
उनमें अपने काम को लेकर जो पैशन है, वह अब तक नहीं बदला है. वह वक्त के साथ बढ़ता ही गया है. उनका डेडिकेशन भी दोगुना हो गया है. सिर्फ वो अब ज्यादा सीरियस हो गए हैं. उनकी मस्ती कम हो गई है.

नई अभिनेत्रियों में किसने अपने काम से आपका दिल जीता है? क्या आप भी मानती हैं कि परिणीति चोपड़ा में आप जैसा स्पार्क है?
मुझे दीपिका का काम कॉकटेल में बहुत पसंद आया, परिणीति का इशकजादे में बहुत अच्छा लगा, अनुष्का शर्मा का काम बैंड बाजा बारात में बहुत अच्छा लगा. सोनाक्षी मुझे दबंग में बहुत अच्छी लगीं. कैटरीना मुझे न्यूयॉर्क में बहुत अच्छी लगीं. मुझे परिणीति और अनुष्का दोनों में यह चीज दिखती है कि वह दिल खोलकर, बहुत साफ दिल से और बहुत ही नैचुरल वे में एक्टिंग करती हैं.

अगर कल आप इंडस्ट्री छोडऩे का फैसला लेती हैं, तो आपके लिए दूसरा विकल्प क्या होगा?
मुझे नहीं लगता है कि कोई एक्टर यह तय कर सकता है कि मुझे अब काम नहीं करना है. दर्शक ही यह तय करते हैं कि मुझे इस एक्टर को देखना है और इस एक्टर को नहीं देखना है. कोई एक्टर इतना बड़ा नहीं है कि वह यह तय कर सके और मैं भी इतनी बड़ी नहीं हूं कि डिसाइड कर सकूं कि मुझे एक्टिंग नहीं करनी है. जिस दिन ऑडियंस मुझे नहीं देखना चाहेगी, उस दिन मैं अपने आप निकल जाऊंगी. जब तक मुझे ऑडियंस देखना चाहेगी, मैं काम करती रहूंगी.