Saturday, May 30, 2020

"I'm Ready To Be A Part Of This New Normal"- रितुपर्णा सेनगुप्ता

बंगाली सिनेमा की शान और पहचान हैं रितुपर्णा सेनगुप्ता! हिंदी फिल्मों में भी समय-समय पर उनकी मजबूत दस्तक रही है. उनकी 'मैं मेरी पत्नी और वो' फिल्म आपको याद ही होगी. लगभग तीन दशकों से अभिनय में सक्रिय रितुपर्णा फिल्मफेयर व राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं. फिलहाल वह अपने पति और दो बच्चों के साथ सिंगापुर में हैं. लेकिन उनका गृह प्रदेश बंगाल और शहर कोलकाता अम्फान तूफ़ान के गंभीर हमले से उबरने में जुटा है. समाजसेवा हेतु हमेशा तत्पर रहने वाली रितुपर्णा दुखी हैं. वह तमाम एनजीओ के साथ मिलकर धन इकठ्ठा करने में जुटी हैं ताकि अपनों की सहायता कर सकें। रितुपर्णा धैर्य के साथ कोरोना वायरस के कहर का असर कम होने की प्रतीक्षा कर रही हैं. जैसे ही ज़िन्दगी वापस रफ़्तार पकड़ेगी और कोलकाता में लाइट-कैमरा-एक्शन की आवाज़ जल्द से जल्द गूंजे, इसके लिए वह हर संभव प्रयास करेंगी. #रघुवार्ता में इस बार बातचीत रितुपर्णा सेनगुप्ता से...



कोरोना महामारी के बाद बंगाल पर अम्फान तूफ़ान के रूप में एक और मुसीबत आन पड़ी. आप अपने शहर से दूर इस समय सिंगापुर में हैं. उनके बीच न होने का दुःख हो रहा है? #रघुवार्ता
यह सवाल पूछने के लिए बहुत धन्यवाद रघु. मैं बहुत परेशान हूँ, दुखी हूँ बहुत. कोलकाता मेरी माँ समान है. माँ को बहुत चोट पहुंची है. हम अलग-अलग एनजीओ के साथ मिलकर कई कैम्पेन्स चला रहे हैं और धन इकठ्ठा करने का प्रयास कर हैं ताकि हमारा शहर वापस अपने पैरों पर खड़ा हो सके और दौड़ सके. 

फैमिली के बीच होने के बावजूद आप लगातार कोरोना और अम्फान के राहत कार्य में लगी हैं. कैसे मैनेज कर रही हैं बच्चे और यह जिम्मेदारी? वो शिकायत नहीं करते कि जब दुनिया ठहरी है, तब भी आप काम में व्यस्त हैं? #रघुवार्ता
फैमिली अपनी जगह है और कर्तव्य अपनी जगह. हम अपने देश को अपना परिवार मानते हैं. सिंगापुर में अपने परिवार के साथ मैं खुश ज़रूर हूँ लेकिन मैं अपना कर्तव्य भूल नहीं सकती. मैं व्यस्त ज़रूर हूँ, लेकिन इतना भी नहीं कि अपनी ज़िम्मेदारियाँ भूल जाऊं। 

इस लॉकडाउन की सबसे दुखद तस्वीर कौन-सी होगी, जिसे आप पूरे जीवन में नहीं भूल पाएंगी? #रघुवार्ता
बहुत सारे लोग कोसों पैदल ही अपने गाँव के लिए चल पड़े, थके-हारे रास्ते में भूखे पेट सो गए. एक बारह साल की बच्ची की तस्वीर देखकर मैं रो पड़ी. उसकी माँ उसे पांच सूखे चने खिला रही थी.


लॉकडाउन की वजह से आपकी कितनी फिल्मों की शूटिंग प्रभावित हुई है? क्या इस समय आप फिल्मों से जुड़ा कोई काम कर पा रही हैं? क्या कुछ नया सीखने की योजना है? #रघुवार्ता
इस लॉकडाउन की वजह से मेरी एक बहुत इम्पॉर्टेंट फिल्म पार्सल रुक गयी. रिलीज़ के तीसरे ही दिन मेरी यह फिल्म बंद हो गयी. बहुत दिक्कत हुई. अभी मेरी कई सारी फिल्में फ्लोर पर हैं और कुछ रिलीज़ पर... कुछ अवेयरनेस फिल्में कर रही हूँ... Motivational shorts for the Singapore migrant workers as well.

तीन साल के बाद आप बांसुरी फिल्म से हिंदी फिल्मों में लौट रही हैं. अनुराग कश्यप आपके को-स्टार हैं. उनके साथ काम करने का कैसा अनुभव रहा? #रघुवार्ता
He is a great co-star, fabulous actor and a prolific writer... Our director Hari Viswanathan handled the subject Bansuri with deep sensitivity. हमें बहुत उम्मीद है इस फिल्म से. मुझे लगता है इस फिल्म को लोग ज़रूर पसंद करेंगे, जैसे उन्होंने मैं मेरी पत्नी और वो को किया था.

हिंदी फिल्मों के साथ आप लुका-छिपी क्यों खेलती हैं? क्या बंगाली फिल्मों में व्यस्तता के कारण आपकी उपस्थिति हिंदी फिल्मों में कम रहती है? #रघुवार्ता
बेहतरीन सवाल रघु...really difficult to answer. मुझे हिंदी फिल्मों से बेपनाह मुहब्बत है. मैं चाहती हूँ कि वे भी मुझे उतना ही प्यार करें। बिज़ी मैं ज़रूर हूँ लेकिन किसी बहुत अच्छे ऑफर के लिए मैं हमेशा तैयार हूँ. I want to explore... waiting for best!


आपकी फिल्म बांसुरी एक डिजिटल प्लैटफॉर्म पर रिलीज़ होने जा रही है. क्या अब ओटीटी प्लैटफॉर्म्स ही दर्शकों का नया थियेटर होगा? क्या सिनेमाहॉल्स का भविष्य खतरे में है? #रघुवार्ता
As of now it's not final about the OTT for Bansuri... But one potential option is OTT... Cinema halls have always reigned... nothing can supersede a theatrical watch... लेकिन आज परिस्थिति बहुत गंभीर है... strong speculations are going on.

आपकी ब्लॉकबस्टर बंगाली फिल्म 'प्राक्तन' और 'राजकहिनी' का रीमेक हिंदी में भट्ट कैम्प ने 'जलेबी' और 'बेगमजान' के नाम से किया था. दोनों फिल्मों को अच्छा रिस्पॉन्स नहीं मिला. आपके हिसाब से क्या वजह हो सकती है? क्या आप अपनी फिल्मों के रीमेक के पक्ष में हैं? #रघुवार्ता
पक्ष-विपक्ष की बात नहीं है. यह समझ की बात है. कौन कितने बेहतरीन तरीके से रीमेक कर सकता है. The question and the promise lies there... both the films had tremendous potential... We gave our extreme hard work to both the films.

आपकी और प्रोसेनजीत चैटर्जी की जोड़ी को टॉलीवुड में काजोल और शाहरुख़ खान की जोड़ी कहा जाता है. इस कॉम्प्लिमेंट पर आपका क्या कहना है? आप दोनों की जोड़ी स्क्रीन पर इतना कम क्यों नज़र आती है? #रघुवार्ता
Thanks for the compliment... SRK & Kajol both are my favourites... To answer your question I would say less is more... स्क्रीन पर हम जितना कम नज़र आएंगे, उतना ही ज़्यादा लोग हमें देखना चाहेंगे। We wait for the best scripts to come !!

प्रोसेनजीत चैटर्जी के साथ प्राक्तन फिल्म के प्रीमियर पर 

कोरोना महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था तोड़ दी है. इसका असर बंगाली फिल्म इंडस्ट्री पर भी होगा. फिल्म निर्माण की गति धीमी होगी. संभव है स्टार्स की फीस में कटौती हो. क्या आप इसके लिए तैयार हैं? #रघुवार्ता
Abhi we have to be prepared for the worst... Best will definitely come after the worst... I'm optimistic... A new normal would come... और हमें उसे स्वीकार करना होगा।इंटेंसिटी क्या होगी, पता नहीं. But few things will change, not only films but every industry!! I think lot of changes would be needed to be embraced... pay cuts, less people for social distancing. May be और बहुत कुछ... and I'm ready to be a part of this new normal!!

निराशा और नाउम्मीद की इस घड़ी में आशा की किरण क्या हो सकती है? #रघुवार्ता
निराशा में एक शब्द आशा भी है और आशा ज़िन्दगी से हमेशा जुड़ी होती है. We should never lose hope... हम उम्मीद से जीते हैं. हमें पॉज़िटिव रहना चाहिए. We will definitely sail through this...God is kind...Let us pray together for a better tomorrow.

Monday, May 25, 2020

आओ ईद का जश्न मनाएं! 

-रघुवेन्द्र सिंह 


आओ ईद का जश्न मनाएं 
चेहरों से रंज का रंग मिटाकर  
इक-दूजे को सेवँई खिलाएं 
आओ ईद का जश्न मनाएं।

इस बार जश्न थोड़ा जुदा है
तेरा खुदा अब मेरा खुदा है 
अमीरी-गरीबी का फर्क मिटाकर  
इक-दूजे को गले लगाएं 
आओ ईद का जश्न मनाएं।

इस बार किसी की नज़र लगी है 
सबकी जां मुश्किल में पड़ी है 
दहलीज में घर के अंदर रहकर  
सब्र का सबको पाठ पढ़ाएं 
आओ ईद का जश्न मनाएं

अब मजहब क्या? जात क्या?
नफरत की औकात क्या? 
गुनाह उनके सब बिसरा कर  
इंसानियत की बात सिखाएं     
आओ ईद का जश्न मनाएं

Saturday, May 23, 2020

"मेरी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है।" -अनुभव सिन्हा

बनारस की मिटटी की सुगंध को बाज़ार भला कब तक दबा कर रख सकता था! बॉक्स-ऑफिस की सांप-सीढ़ी पर कई बार चढ़ने-गिरने के बाद आखिरकार मुल्क, आर्टिकल 15 और थप्पड़ फिल्मों से अनुभव सिन्हा को अपनी सिनेमाई ज़मीन मिल गई. उनका सिनेमा अब समाज का आइना बन चुका है. सवाल पूछना उनकी आदत बन चुकी है. बात चाहे उनके नए सिनेमा की हो या वास्तविक जीवन की. अगर आप उनके सोशल मीडिया पर ध्यान दें तो वह सरकार, समाज और प्रशासन से निर्भीकता से तीखे सवाल रोज़ करते रहते हैं. ट्रोल भी ज़बरदस्त होते हैं. गालियां भी खूब पड़ती हैं, लेकिन इन सबसे उनके विचार और व्यवहार में लेस मात्र का फर्क नहीं पड़ता. उनका बेबाक और संवेदनशील व्यक्तित्व अब मुखर है. #रघुवार्ता में हमने उनसे कोरोना काल में सिनेमा, समाज, थिएटर बनाम ओटीटी, देश की वर्तमान तस्वीर और फिल्म निर्माण की नयी चुनौतियों पर सवाल किये... जवाब आप पढ़ें और अपने विचार साझा करें.


वर्ष 2018 में आपके जीवन में कौन-सी घटना घटी कि आपके अंदर का निर्देशक अचानक बदल गया. दस, तथास्तु, कैश, रा.वन और तुम बिन 2 के निर्देशक ने मुल्क जैसी एक झकझोर देने वाली फिल्म बनायी। और तबसे यह सिलसिला आर्टिकल 15 और थप्पड़ के साथ जारी है. 
नाराज़गी थी शायद। अपने मुल्क से। अपने आप से। वो दिनकर जी की कविता में है ना 'जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध'। मैं अपराधियों की फ़ेहरिस्त से निकलने को इतना बेचैन था कि बोलना ज़रूरी हो गया। दिल से निकली थी बात सो दिल तक पहुँची। फिर लगा अब दिल की ही बात करेंगे।

मुल्क से फिल्म निर्देशन और विषयों के चुनाव में आपकी दिशा और राह बदली. इस बदलाव का ज़रूरी एहसास कब और क्यों हुआ?
अब विषयों का चुनाव नहीं करता मैं। विषय मुझे चुनते हैं। इतना भर जाते हैं मेरे अंदर कि मेरा फट जाना ज़रूरी हो जाता है। अब कोई विज्ञान नहीं है इस में कि मुझे कौन सी फ़िल्म बनानी है। अब तो बस इतना है की वो क्या है जो सोने नहीं दे रहा। और ज़रूरी नहीं है कि हमेशा ऐसा रहे।

मुल्क 

क्या बाज़ार के दबाव में आपने अपनी अंतरात्मा को दबा दिया था? हालाँकि आप पर कोई दबाव बना सके, ऐसा मुमकिन नहीं लगता.
ना ना। वो मैं ही था। तब मैं चुनता था फ़िल्में। मेरा, सही या ग़लत, विज्ञान था एक। छोटे शहर का, निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का मुंबई की चकाचौंध रौशनी में धीरे धीरे अपनी आँखें खोलने की कोशिश कर रहा था। समय लगना ही था। यही पता नहीं था कि फ़िल्में बनाते क्यों हैं।

आप एक संवेदनशील जागरूक नागरिक हैं. देश की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियां आपकी दिनचर्या और जीवन को किस कदर प्रभावित करती हैं?
जितने तरीक़े से प्रभावित किया जा सकता है उतने तरीक़े से करती हैं। मुंबई से गोरखपुर जाती ट्रेन जब उड़ीसा पहुँच जाती है तो कष्ट होता है। उन श्रमिकों के लिए जो अंदर हैं। ग़ुस्सा आता है। बहुत ज़्यादा ग़ुस्सा आता है। फिर बोलता हूँ। फिर गाली सुनता हूँ। डर भी जाता हूँ। पर फिर बोलता हूँ।


राजनितिक सन्दर्भ में बात करें तो क्या आप हमेशा विपक्ष में रहेंगे? या फिलहाल पक्ष की बजाय विपक्ष में रहना आपके हिसाब से देश की लिए हितकारी है?
जो सही लगेगा वो कहूँगा। जब तक कह सकूँगा। मेरी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। मोदी जी के विरुद्ध भी बोलता हूँ और समूचे विपक्ष के विरुद्ध भी। सो मेरे पक्ष का सरकार से कोई लेना देना नहीं। सही ग़लत से है। वो जो मुझे सही लगे। वो ग़लत भी हो सकता है। पर अपने आप से तो ईमानदार रहूँ?

एक देश और समाज के तौर पर क्या हमने अपने मजदूर वर्ग को निराश किया है? आपको नहीं लगता कि मजदूरों के नाम पर राजनीति करने वाली राजनितिक पार्टियों और समाज को इस समय सड़क पर होना चाहिए?
निराश किया है? मतलब हमने उनके सीनों में छुरे भोंके हैं। पीठ में भी नहीं। जब वो सारे पैदल हज़ारों किलोमीटर अपने घर जा रहे थे अपने भूखे बच्चों के साथ भूखे प्यासे, इस देश के सब से ताक़तवार, क़द्दावर नेताओं ने एक शब्द नहीं बोला उनके लिए। एक शब्द। उन्हें ही नहीं, हम सबको सड़क पर होना चाहिए था। उन्होंने बनाए हैं ये शहर। वो चलाते हैं ये शहर। हम न उन्हें ढंग से रोटी देते हैं, ना उनके बच्चों को शिक्षा। क्योंकि पढ़ा लिखा दिया तो शहर कौन चलाएगा। गटर में कौन उतरेगा।

थप्पड़ 

सोशल मीडिया पर आप अक्सर ट्रोलर्स के निशाने पर रहते हैं. खुलेआम नफरत और गाली-गलौज अब इतनी आम बात क्यों है? क्या यह हमारी भारतीय संस्कृति के विरुद्ध नहीं है?
उन बेचारों को भारतीय संस्कृति के बारे में पता नहीं। बेकार थे बच्चे। अब काम मिल गया। जैसा भी है। काम है। उस दिन देखा था एक मज़दूर सड़क पर बिखरा हुआ खाना खा रहा था बीच सड़क??? भूखा था। इतना भूखा कि कुछ भी खा ले। ये बच्चे भी इतने बेकार हैं कि कुछ भी काम करवा लो।

कोरोना वायरस ने देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है. आप निर्देशक होने के साथ एक निर्माता भी हैं. फिल्म उद्योग जगत इस समस्या से कैसे निबटेगा? 
थोड़ा सुधारता हूँ प्रश्न। कोरोना वाइरस ने देश की अर्थव्यवस्था की बची खुची कमर तोड़ दी है। मुझे लगता है कि अभी ऊँट ने बैठना शुरू भी नहीं किया है। किस करवट बैठेगा ये पता चलने में समय है। सरकारें और उद्योग चाहते हैं कि जल्दी शुरू हो सब, पर समस्या अभी पूरी तरह सामने आयी भी नहीं है.

आर्टिकल 15 

क्या ओटीटी प्लैटफॉर्म्स को अब दर्शकों का नया थियेटर मान लिया जाये? क्या सिनेमाहॉल्स का अस्तित्व अब खतरे में है?
बिलकुल नहीं। सिनेमा न कहीं गया, न कहीं जाएगा। हर दस साल में एक नयी टेक्नॉलजी आती है और लगता है कि बस अब सिनेमा खतम। उसके बाद बॉक्स-ऑफ़िस की औक़ात बढ़ती ही है, कम नहीं होती। ठहरिए। कोरोना ख़त्म होने दीजिए, फिर बात करेंगे। OTT भी यहीं रहेगा और सिनेमा भी। TV तो ख़ैर है ही।

फिल्म बिरादरी हमेशा सत्ता के साथ ही क्यों चलती है? एक जागरूक और प्रभावशाली नागरिक होने के नाते क्या इनका फ़र्ज़ नहीं है कि सही की प्रशंसा करने के साथ गलत पर प्रश्न भी करें?
पूर्णतया सत्य नहीं है। पर हाँ कमोबेश सत्य ही है। अपनी-अपनी ज़रूरतें होती हैं। अपने-अपने कारण होंगे। फ़र्ज़ वर्ज़ का तो मियाँ ऐसा है की पुराने जमाने की बातें हैं। अब तो तर्ज़ है। और हर तर्ज़ पर नाचा भी जा सकता है। नाचते हैं लोग। आइने नहीं होंगे घर में।

Wednesday, May 20, 2020

माँ बे'बस' चल पड़ी है

-रघुवेन्द्र सिंह 

र्भ में सपनों को लेकर 
शहर को धिक्कार कर 
आज मीलों के सफर पर 
माँ बे'बस' चल पड़ी है.

माँ बे'बस' चल पड़ी है
मुश्किलें तन कर अड़ी हैं  
प्रसव पीड़ा की घड़ी है 
पर किसे उसकी पड़ी है. 

पर किसे उसकी पड़ी है
मुस्कुराती दुष्कर घड़ी है 
काल की नज़रें गड़ी हैं 
जोड़े कर ममता खड़ी है.

जोड़े कर ममता खड़ी है 
मौत से माँ लड़ पड़ी है
जीत जिसकी भी हो इसमें,
मानवता लज्जित खड़ी है. 

सिनेमा ने मुझे बिगाड़ दिया 

-रघुवेन्द्र सिंह 

हिंदी सिनेमा के स्तम्भ अमिताभ बच्चन 

'बाइस्कोप देखकर बच्चे खराब हो जाते हैं।' मेरे कलकतिहवा बाबा (कलकत्ता रिटर्न) हमेशा यह बात कहा करते थे। उनकी यह बात छोटे बाबा, आजी, चाचा, पापा और आधुनिक सोच रखने वाली मेरी अम्मा के मस्तिष्क में भी बैठ चुकी थी। यह वजह है कि हमारे घर के किसी भी सदस्य, चाहे वह बच्चे हों या बड़े, को बाइस्कोप देखने की छूट नहीं थी। लड़कियों को तो बिल्कुल ही नहीं। मैं आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) के बगहीडाड़ गांव में पला-बढ़ा हूं। सन् 1991-92 की बात है। मुझे अच्छी तरह याद है, पूरे गांव में एकमात्र मेरे घर पर टीवी था। वह ब्लैक एन व्हाइट था। वह टीवी केवल उसी वक्त स्टार्ट किया जाता था, जब समाचार आ रहा होता था या फिर कोई धार्मिक या देशभक्ति सीरियल। टीवी घर से बाहर बैठक में लगाया गया था। ताकि घर की औरतें कोई कार्यक्रम न देख सकें। टीवी देखने से आंखें खराब हो जाती हैं और सबकी आदतें भी। समय की बर्बादी तो होती ही है। यह कलकतिहवा बाबा कहते थे। हां, कोई बढिय़ा बाइस्कोप आता था तो कलकतिहवा बाबा खुद ही घर की औरतों और बच्चों को बुलवा लेते थे। बढिय़ा बाइस्कोप से उनका तात्पर्य यह था जिसे सपरिवार देखा जा सके। उनमें धार्मिक एवं पारिवारिक बाइस्कोप के नाम आते थे। हीरो-हीरोइन के रोमांस एवं मार-धाड़ वाला बाइस्कोप देखने की इजाजत बिल्कुल नहीं थी।

नटखट विद्या बालन की मस्ती 

मेरे मंझले चाचा की बेटी वंदना गोरखपुर में अपने मामा के यहां रहकर पढ़ाई करती थीं। वे मुझसे चार साल बड़ी हैं। उस वक्त मैं उनका सबसे प्यारा भाई और दोस्त हुआ करता था। दीदी के हिसाब से उनके मामा-मामी आधुनिक थे, क्योंकि वे लोग फिल्में देखना बुरी बात नहीं मानते थे। मैंने दीदी से अप्रत्यक्ष रूप से सीखा कि बाइस्कोप को फिल्में भी कहते हैं। अब मैं बाइस्कोप को फिल्म कहने लगा। दीदी माधुरी दीक्षित की बहुत बड़ी फैन थीं। वे माधुरी की प्रत्येक फिल्म रिलीज होते ही सिनेमाहाल में जाकर देख लेती थीं। फिल्म देखने के तुरंत बाद वे गोरखपुर से मुझे चिट्ठी लिखकर भेजतीं। उस चिट्ठी में वे अपना समाचार कम लिखतीं और माधुरी की फिल्मों के बारे में विस्तार से बताती थीं। माधुरी की 'साजन', 'बेटा', 'खलनायक' और 'दिल तो पागल है' फिल्में मैंने उनकी चिट्ठियों के जरिए देखी हैं। जिस चिट्ठी में वे लिखती कि मैं फलां तारीख को घर आ रही हूं तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। मैं बेसब्री से उनका इंतजार करता था। जैसे ही वे घर आतीं, मैं उनके पीछे-पीछे लग जाता था। अमूमन वे गर्मियों की छुट्टी में घर आती थीं। हम सब गर्मी में घर की छत पर सोते थे। रात को जल्दी से खाना खाकर हम छत पर बिस्तर लगा लेते और दीदी जैसे ही छत पर आतीं, घर के सभी लडक़े-लड़कियां उन्हें घेरकर बैठ जाते। उसके बाद वे फिल्मों की कहानी विस्तार से बतातीं। फिल्म की कहानी बताते समय वे माधुरी के लटके झटकों, मुस्कुराहट और उसकी अदाओं को एक्ट करके बताती थीं। बड़ा मजा आता था।

माधुरी दीक्षित जैसा कोई नहीं 

अब मैं भी माधुरी दीक्षित का फैन बन चुका था। जिस अखबार या मैगजीन में माधुरी की तस्वीर दिख जाती, उसे काटकर रख लेता था। नए वर्ष पर भेजने वाले ग्रीटिंग कार्ड भी माधुरी की फिल्मों वाले खरीदता था। मेरे स्कूल की कॉपी और किताबों की जिल्द पर माधुरी की तस्वीर वाले कवर चढ़ चुके थे। मैं पढ़ाई शुरू करने से पहले किताबों को प्रणाम करता तो मेरी अम्मा पूछ देती थीं कि तुम विद्या मां के पैर छूते हो या माधुरी दीक्षित के? उन दिनों माधुरी का एक गाना दीदी तेरा देवर दीवाना खूब बज रहा था। हर तरफ उस गाने के बारे में लोग बात कर रहे थे। दीदी ने भी मुझे चिट्ठी लिखकर बता दिया था कि माधुरी की बेस्ट फिल्म है, हो सके तो इसे जरूर देखना। मैंने अम्मा से वह फिल्म देखने की गुजारिश की, लेकिन जवाब ना मिला।

मेरी अम्मा जन्मदिन का केक खिलाती हुईं  

गर्मी की छुट्टियां शुरू हो चुकी थीं। मुझे और छोटे भाई को लेकर अम्मा मामा के गांव कपरियाडीह गयी थीं। कपरियाडीह मऊ के घोसी जिले में पड़ता है। मामा के गांव पहुंचकर मैंने देखा कि वहां भी दीदी तेरा देवर दीवाना का शोर मचा हुआ है। मेरी दोनों मौसी, मामी और उनकी बेटी अम्मा से हम आपके हैं कौन फिल्म दिखाने की जिद करने लगीं। अम्मा ने पूछा कि हम आपके हैं कौन किसकी फिल्म है? उन्होंने बताया कि यह वही फिल्म है जिसका गाना दीदी तेरा देवर दीवाना आजकल खूब बज रहा है। उन लोगों ने अम्मा को बताया कि पड़ोस के कुछ लोग फिल्म देखकर आए हैं। वे बता रहे हैं कि पारिवारिक फिल्म है। इसे जरूर देखना चाहिए। मामा के यहां भी किसी को सिनेमाहाल में फिल्म देखने की इजाजत नहीं थी। अम्मा नाना-नानी की दुलारी बेटी हैं। सबको पता था कि यदि वे सबको फिल्म दिखाने ले जाएंगी तो कोई मना नहीं करेगा। अम्मा ने सबकी बात सुन ली और हम आपके हैं कौन देखने जाने के लिए हां कह दिया। अब समस्या यह थी कि सब लोग जाएंगे कैसे? अम्मा ने एक जीप बुक की। इस बात की जानकारी जब पड़ोस की औरतों को मिली तो वे भी फिल्म देखने जाने के लिए तैयार हो गयीं।

जानकी कुटीर की होली पार्टी में अपनी प्रेरणा शबाना आज़मी के संग  

एक दिन पहले ही घर के सभी लोग फिल्म देखने की तैयारी में लग गए। सबने नए कपड़े निकालकर रख लिए। जिस कपड़े की क्लिच बिगड़ गयी थी, उसे प्रेस किया गया। ऐसा लग रहा था जैसे घर में शादी होने वाली है। दूसरे दिन सुबह उठकर फटाफट सब नहा धोकर तैयार हो गए। जीप आने में थोड़ी देर हुई तो लोग व्याकुल हो गए। नाना को भेजकर जीप को बुलाया गया। उसके बाद मामा, दोनों मामी, दोनों मौसी, अम्मा, पड़ोस की दो औरतें, उनके बच्चे, मैं और छोटा भाई जीप में ठूंसकर घोसी फिल्म देखने रवाना हुए। वहां पहुंचकर हमने देखा कि विजय सिनेमाहाल के बाहर भारी भीड़ लगी है। उस भीड़ में बच्चे, बड़े, बूढ़े, नौजवान, औरतें सब शामिल थे। भीड़ देखकर हम लोग घबरा गए कि पता नहीं टिकट मिलेगी या नहीं। मामा भागकर टिकट खिडक़ी पर गए। वे टिकट लेकर लौटे तो सबकी जान में जान आयी।

सन्नी देओल के शिकंजे में 

सिनेमा हाल में प्रवेश करते समय मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरी जन्म जन्मांतर की मुराद पूरी हो रही हो। मन ही मन मैं सोच रहा था कि अब मैं दीदी को गर्व से बताऊंगा कि मैंने सिनेमाहाल में फिल्म देख ली। मन ही मन मैं मौसी और मामी को धन्यवाद कह रहा था। मैं पहली बार सिनेमाहाल में फिल्म देखने जा रहा था। हम आपके हैं कौन शुरू हुई। हम सब मजे से फिल्म देखने लगे। अचानक मुझे सिसकने की आवाज सुनायी दी। मैंने ध्यान से देखा तो पाया कि सब रो रहे थे। उस समय भाभी की मौत का दृश्य चल रहा था। मुझे रोना नहीं आया। हां, मुझे माधुरी और सलमान के बीच के दृश्य खूब भा रहे थे। फिल्म के अंतिम दृश्य में मुझे उस वक्त जरूर रोना आया था जब माधुरी की शादी मोहनीश बहल से होने जा रही थी। दरअसल, तब तक मैं खुद को प्रेम समझने लगा था। मुझे लग रहा था कि वह सब मेरे साथ हो रहा है। दिलचस्प बात यह है कि उस फिल्म की चर्चा अगले कुछ दिनों तक घर में लगातार होती रही। अम्मा दूसरे ही दिन दवाई का बहाना करके नानी के साथ दोबारा हम आपके हैं कौन देखकर आ गयीं। उसके बाद हर गर्मी की छुïट्टी में अम्मा हमें फिल्म दिखाने घोसी लेकर जाती थीं।

प्रियंका चोपड़ा ने जब अपने पति निक जोनस से मिलवाया 

'हम आपके हैं कौन' फिल्म ने मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। अब मेरे अंदर हर फिल्म को देखने की चाह होने लगी, लेकिन अम्मा की इजाजत नहीं मिलती थी। शायद अम्मा के मन में अभी तक यह डर था कि फिल्में देखकर मैं बिगड़ जाऊंगा। अब चचेरे भाई बहनों के साथ मिलकर मैं चोरी-चोरी टीवी पर फिल्में देखने लगा। हम उस वक्त टीवी वाली कोठरी में चोरी से घुस जाते थे, जब दुआर पर कोई नहीं होता था। कभी-कभी पकड़े जाते तो डांट खानी पड़ती थी। उन दिनों वीसीआर का चलन था। किसी के यहां तिलक, शादी, गवना या अन्य कोई समारोह होता तो सभी बच्चों की मांग वीसीआर होती थी। ऐसे समारोहों में वीसीआर आने की खबर मिलते ही हम सब के बीच यह चर्चा शुरू हो जाती थी कि कौन-कौन सी फिल्में आ रही हैं। हम उस तारीख का बेसब्री से इंतजार करते थे। अफसोस की बात है कि मैं चर्चाओं में जरूर शामिल रहता था, लेकिन वीसीआर देखने कभी नहीं जा पाता था। मेरी अम्मा जाने ही नहीं देती थीं। दूसरे दिन मैं दोस्तों से उन फिल्मों की कहानी सुनकर अपनी प्यास बुझा लेता था। हां, हमारे घर के समारोह में वीसीआर लगता तो मैं जरूर फिल्म देखता था। अम्मा फिल्म देखने की इजाजत देने के साथ ही कह देती थीं कि एक फिल्म देखकर सोने आ जाना। दिसंबर की कडक़ती ठंड में हम सब रजाई लेकर पुआल पर बैठकर फिल्में देखा करते थे। 'राजा की आएगी बारात', 'तिरंगा', 'नागिन', 'नगीना', 'करण अर्जुन', 'शोला और शबनम', 'बोल राधा बोल, दूल्हे राजा, बीवी नंबर वन, कुली नंबर वन, राजा, बादल, राजा हिंदुस्तानी', 'मोहब्बतें', 'धडक़न', 'कुछ कुछ होता है' जैसी कई फिल्में मैंने सर्द रातों में खुले आसमान के नीचे बैठकर देखी हैं।

पोज़र 

मैंने अपने शहर आजमगढ़ में आजतक मात्र एक फिल्म देखी है। उसमें भी धोखा हो गया। उस वक्त मैं कक्षा बारह में पढ़ रहा था। मैं दोस्तों के साथ अपने स्कूल के एक मास्टर जी के घर शादी में गया था। मास्टर जी ने लौटते समय हमें विदाई के तौर पर बीस-बीस रूपए दिए थे। दरअसल, वे हमसे बेहद खुश थे। हमने पूरी रात जागकर उनकी बेटी की शादी में काम किया था। वहां से लौटते समय हमने शहर के मुरली हाल में फिल्म देखने का फैसला किया। गोविंदा की फिल्म 'जंग' लगी थी। हम टिकट लेकर हाल में घुस गए। मन में डर भी था कि गांव या घर का कोई हमें देख न ले। हम बहुत बड़ा रिस्क ले रहे थे। जब फिल्म शुरू हुई तो पता चला कि वह पुरानी है। उसे हम दो बार टीवी पर देख चुके हैं। उसका वास्तविक नाम 'फर्ज की जंग' था। सिनेमाहाल वालों ने नाम बदल कर उसे लगाया था। हमें बड़ा गुस्सा आया। खैर, पंखा चल रहा था और हम सब रात भर के जगे थे, सो हम वहीं सो गए। फिल्म खत्म हुई तो किसी ने हमें जगाया और हम सिनेमाहाल वाले को गाली देते हुए घर चल पड़े। सारे दोस्त मुझे कोस रहे थे। मेरी वजह से उनका पंद्रह रूपया बर्बाद हो चुका था। आज भी हमारे शहर में नाम और पोस्टर बदलकर सिनेमाहाल वाले पुरानी फिल्में चलाते रहते हैं।

मुंबई के शुरूआती दिनों में 

मैं ग्रेजुएशन के लिए इलाहाबाद आया। वहां सिनेमा से मेरी घनिष्ठता बढ़ी। शुरूआती दिनों में मैं इलाहाबाद के सिनेमाहाल में फिल्म देखने जाने से पहले घर पर अम्मा को फोन करके पूछता था। वे इजाजत देतीं, तभी मैं फिल्म देखने जाता। बाद में यह सिलसिला खत्म हो गया। शायद अब मैं बड़ा हो चुका था। इलाहाबाद में हमें महीने भर के खर्चे के लिए घर से गिनकर पैसे मिलते थे। प्रत्येक फिल्म हाल में देखना हम अफोर्ड नहीं कर सकते थे। सो, हम सभी दोस्त मिलकर पैसा इकट्ठा करते और हर दूसरे सप्ताह किराए पर सीडी लाते एवं बीते सप्ताह की नई फिल्मों की सीडी लाकर पूरी रात बैठकर देखते थे। यह सिलसिला तीन वर्ष तक अनवरत चलता रहा।

फिल्मफेयर समारोह की शाम 

गांव में रहते हुए मैंने एक भी अंग्रेजी फिल्म नहीं देखी थी। वहां अंग्रेजी फिल्मों का मतलब ब्लू फिल्में होती थीं। इलाहाबाद में मामा के बेटे ने जब मुझे सिनेमाहाल में अंग्रेजी फिल्म देखने के लिए कहा तो मैं चौंक गया। मैंने कहा कि मैं अंग्रेजी फिल्म नहीं देखूंगा, और तुमको भी नहीं देखनी चाहिए। वह फिल्में बुरी होती हैं। उसने पूछा, किसने कहा कि अंग्रेजी फिल्में बुरी होती हैं। तुम एक बार चलकर देखो, फिर मान जाओगे कि उन फिल्मों के सामने हिंदी फिल्में कुछ नहीं हैं। मैंने जब अपनी सोच बतायी तो वह हंसने लगा। मैंने पहली अंग्रेजी फिल्म 'द मम्मी रिटर्न' इलाहाबाद के चन्द्रलोक सिनेमाहाल में देखी।

दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान जब एक फ्रेम में आये तो हम मौजूद थे 

मैंने सपरिवार आखिरी फिल्म संजय दत्त की 'महानता' (वर्ष 1996) देखी थी। घोसी के विजय सिनेमाहाल में। आज मुंबई के मल्टीप्लेक्स में हर सप्ताह फिल्म देखता हूं, लेकिन यहां वह मजा नहीं मिलता, जो घोसी और इलाहाबाद में मिलता था। मैंने बचपन में कभी नहीं सोचा था कि एक दिन फिल्म इंडस्ट्री को करीब से देखने और जानने का मौका मिलेगा। मैं अब गांव जाता हूं तो एक बात मुझे हैरान करती है। गांव में कई औरतें ऐसी हैं जिन्होंने आजतक हाल में फिल्म देखी ही नहीं है। यह बात सोचने वाली है। मजे की बात यह है कि आजकल अम्मा सुबह नौ बजे या कभी देर रात फोन करके नाश्ते और डिनर के बारे में पूछती हैं और मैं कहता हूं कि अभी नहीं खाया है तो वे कहती हैं, सिनेमा के चक्कर में तुम बिगड़ गए। तुम्हारे कलकतिहवा बाबा सही कहते थे।

पसंदीदा फिल्में
1- आवारा
2- शोले
3- दीवाना
4- हम आपके हैं कौन
5- दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे
6- कुछ कुछ होता है
7- कभी खुशी कभी गम
8- हम दिल दे चुके सनम
9- कहो ना प्यार है
10- ओए लकी लकी ओए


रघुवेंद्र के दोनों हाथ जेब में रहते हैं और आँखें बात करते समय चमकती रहती हैं.उनके व्यक्तित्व की कोमलता आकर्षित करती है.वे फिल्मों को अपनी प्रेयसी मानते हैं और उसकी मोहब्बत में मुंबई आ चुके हैं.वे पत्रकारिता से जुड़े हैं और फ़िल्म इंडस्ट्री की मेल-मुलाकातों में उनका मन खूब रमता है.अपने बारे में वे लिखते हैं...राहुल सांकृत्यायन एवं कैफी आजमी जैसी महान साहित्यिक हस्तियों की जन्मभूमि आजमगढ़ में पैदाइश। आधुनिक शिक्षा के लिए अम्मा-पापा ने इलाहाबाद भेजा और हम वहां सिनेमा से प्रेम कर बैठे। वे चाहते थे कि हम आईएएस अधिकारी बनें, लेकिन अपनी प्रेयसी से मिलने की जुगत में हम फिल्म पत्रकारिता में आ गए। आजकल हम बहुत खुश हैं। अपनी प्रेयसी के करीब रहकर भला कौन खुश नहीं होगा? उनका पता है raghuvendra.s@gmail.com

नोट : यह संस्मरण वरिष्ठ फिल्म पत्रकार और समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज के लोकप्रिय ब्लॉग 'चवन्नी चैप' की हिंदी टॉकीज़ सीरीज़ के लिए मैंने कुछ वर्ष पूर्व लिखा था. 

Monday, May 18, 2020

    चौखट ही अब चरम है 

-रघुवेन्द्र सिंह 


चौखट ही अब चरम है 
तत्पश्चात सब भरम है.
जग जो आज ठहर गया 
यह तेरा-मेरा करम है. 

आ बैठ करें हिसाब ज़रा 
खोलें अपनी किताब ज़रा 
पन्ना क्यों सारा काला है 
अब कुछ ना मिटने वाला है 
तांडव जो मौत कर रही  
ये न मिटने वाला भरम है.  
चौखट ही अब चरम है 
तत्पश्चात सब भरम है.

कहता था तू बलवान है 
तुझको सबका ज्ञान है 
एक वायरस की दस्तक ने  
तेरा तोड़ दिया अभिमान है
यह मानव की कृति या कि प्रकृति 
कोई ना जाने क्या मरम है 
चौखट ही अब चरम है 
तत्पश्चात सब भरम है.

चौखट ही अब चरम है 
तत्पश्चात सब भरम है.
जग जो आज ठहर गया 
यह तेरा-मेरा करम है. 


Sunday, May 17, 2020

हम अब अपने गांव चले... 
-रघुवेन्द्र सिंह 


शहर मुबारक तुझको तेरा 
हम अब अपने गांव चले 
सर पर रख, जीवन की गठरी  
पैदल ही सरकार चले.


नन्हा मेरा, नग्न पाँव 
दो रोटी की धूप छाँव 
लम्बा रास्ता, ठौर न ठाँव
शिथिर हो गए मन के भाव 
सर पर रख, मौत की गठरी 
पैदल ही सरकार चले.


देश हमारा, कैसे माने?
जब भूख हमारी तू ना जाने 
सरकार हमारी, कैसे जाने?
जब पीर हमारी तू ना जाने 
सर पर रख, अभिमान की गठरी 
पैदल ही सरकार चले.


जीवित रहे, फिर मिलेंगे 
चुनाव में तो याद करोगे!
वोट माँगना, फिर हिसाब करेंगे 
पक्ष-विपक्ष की बात करेंगे! 
सर पर रख, यादों की गठरी 
पैदल ही सरकार चले. 


शहर मुबारक तुझको तेरा 
हम अब अपने गांव चले 
सर पर रख, जीवन की गठरी  
पैदल ही सरकार चले.

Saturday, May 16, 2020

याद रखिए कि सफलता की सीढ़ी चढ़ते हुए जो कदम आपने ऊपर की ओर बढ़ाए हैं, एक दिन उसी सीढ़ी से नीचे उतरना पड़ेगा। खुद के लिए वो समय मुश्किल ना बनाएँ।

तापसी पन्नू नयी पीढ़ी की एक सशक्त और सम्मानित अभिनेत्री हैं. अपनी बेबाक टिप्पणियों और अतुलनीय अभिनय के लिए लोकप्रिय हैं वो. सांड की आँख फिल्म के लिए इस वर्ष उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. सिनेमाघरों के बाद उनकी फिल्म थप्पड़ इस वक्त डिजिटल प्लैटफॉर्म पर खूब देखी और सराही जा रही है. गैर-फ़िल्मी पृष्ठभूमि की तापसी उन तमाम लड़कियों के लिए एक प्रेरणा हैं, जो अपने बलबूते जीवन में कुछ कर गुज़रना चाहती हैं. ट्विट्टर की #रघुवार्ता में आज उनसे वर्तमान समय के सभी मुद्दों पर रोचक बातचीत हुई. उसे यहाँ संकलित करके प्रस्तुत कर रहे हैं. आप भी पढ़िए और उनकी सराहना कीजिये।


1. तापसी, घरेलू हिंसा के केसेज़ लॉकडाउन में तेज़ी से बढ़े हैं. महिलाओं की सहायता के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग ने एक विशेष व्हाट्सप्प नंबर- 7217735372 भी जारी किया है. एक महिला कैसे इस तरह की एक व्यक्तिगत आपदा से निपट सकती है?
हर महिला का अपना तरीक़ा होगा इससे लड़ने का। ज़रूरी ये है कि कुछ किया जाए। बस चुप करके बैठना हल नहीं है। जागरूक होना चाहिए, अपने प्रति, अपने पड़ोसी और मित्र के प्रति।

2. दो बड़ी फिल्में गुलाबो सिताबो और शकुंतला देवी सीधे डिजिटल प्लैटफॉर्म पर रिलीज़ हो रही हैं. खबर है जल्द कुछ और बड़ी फिल्में भी इसी तरीके से दर्शकों के बीच आएँगी. थियेटर मालिक निर्माताओं के इस फैसले से खासे नाराज़ हैं. उनकी यह नाराज़गी कितनी उचित है?
मुझे कोई हैरानी नहीं है कि वो नाराज़ हैं। उनका नाराज़ होना बनता है पर ज़रूरी देखना है कि समय का पहिया किस तरफ़ घूम रहा है। समय और हालात के बीच रास्ता निकालने वाला ही कामयाब कहलाता है।

3. क्या थियेटरों का भविष्य खतरे में है? क्या इस से स्टार सिस्टम में भी बदलाव आने की आशा है? 
मुझे पूरी उम्मीद और यक़ीन है कि भारत में थिएटर कभी ख़तरे में नहीं हो सकते। हमारी काफ़ी फ़िल्में बड़े परदे के लिए ही बनती हैं ओर सामूहिक देखते ही बनती हैं। पर हाँ अगर डिजिटल ने टिकटिंग सिस्टम चालू कर दिया तो स्टार सिस्टम में पक्का बदलाव आएगा।

4. व्यवसाय के हर क्षेत्र में इस समय सबकी सैलरी में कटौती हो रही है. क्या आप स्टार्स भी अपनी फीस में इस तरह की किसी कटौती का सामना कर रहे हैं या निकट भविष्य में कटौती होने के आसार हैं?
अभी तो क्यूँकि कोई शूट नहीं हो रही तो कोई सैलरी नहीं मिल रही। और तैयार हूँ कि आगे हमारी सैलरी में भी कटौती होगी।

5. इस लॉकडाउन की सबसे दुखद तस्वीर कौन सी होगी, जिसे आप पूरे जीवन में नहीं भूल पाएंगी?
बहुत सारी देखीं और बहुत मन ख़राब हुआ। अब एक गर्भवती महिला का कुछ सौ किमी चलना एक आदमी के अपनी माँ को कंधे पे उठा के चलने से कैसे कम या ज़्यादा होगा।

6. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आउटसाइडर और इनसाइडर के बीच फर्क की बात अक्सर होती रहती है. क्या इस तरह का कोई भेद अब भी है या यह सिर्फ एक मुद्दा भर है?
भेद है, था और हमेशा रहेगा। पर भेद हमेशा बुरा नहीं होता। एक तरफ़ इस भेद के चलते काफ़ी फ़िल्में हमें नहीं मिलती, पर शायद इसी भेद की वजह से जनता का ज़्यादा लगाव और ज़िन्दगी के असली अनुभवों को पर्दे पर उतारने का मौक़ा मिलता है।

7. प्रतिस्पर्धा से भरी इस इंडस्ट्री में अपना वजूद बनाये रखने और अनवरत सफलता की ओर बढ़ते रहने का आपका मूलमंत्र क्या है? 
कि याद रखिए कि सफलता की सीढ़ी चढ़ते हुए जो कदम आपने ऊपर की ओर बढ़ाए हैं, एक दिन उसी सीढ़ी से नीचे उतरना पड़ेगा। खुद के लिए वो समय मुश्किल ना बनाएँ।

8. आप घूमने की बेहद शौक़ीन हैं. आपके पास कई देशों की अनगिनत यादें होंगी, ज़ाहिर है अलग-अलग देशों में आपके मित्र भी होंगे. सबकी फिक्र तो होती होगी? आपके सभी दोस्त सुरक्षित तो हैं?
अभी तक सब कुशल मंगल।
🙏🏼
9. आपने कुछ दिन पहले यह कहकर बहुत से नौजवानों का दिल तोड़ दिया कि आपकी ज़िन्दगी में कोई 'खास' शख्स है. कह दीजिये कि वह एक मज़ाक था.
कमाल है। जब कोई नहीं होता तब सबको चिंता लगी रहती है कि क्यों नहीं है, अकेली कब तक रहेगी। और जब हो तो परेशानी कि क्यों है, बाक़ी नौजवानों का क्या होगा। क्या करूँ मैं ।।।????


10. पिछले महीने पीएम नरेंद्र मोदी ने एक टास्क दिया था और आपने उसका स्वागत करते हुए एक ट्वीट लिखा था- New task is here ! Yay yay yayy !!!. आपके इस ट्वीट का अर्थ यह निकाला गया कि आपने उनके द्वारा दिए गए टास्क का मज़ाक उड़ाया है. इस पर आपका क्या कहना है? आपको लगता है कि लोगों ने इसका गलत अर्थ निकाला?
कहा जाता है कि आपकी जैसी प्रवृत्ति होगी आपका नज़रिया और सोच वैसी ही होगी। मैंने तो ख़ुश होकर लिखा था, क्योंकि वो मेरी प्रवृत्ति है, बाक़ी सबने अपनी प्रवृत्ति के हिसाब से जो मन किया लिखा।

11. इस समय अगर आपको थप्पड़ मरना हो तो किसे मारेंगी? 
करोना को।
🤬

12. आपके मनमर्ज़ियाँ के को-स्टार विक्की कौशल का आज जन्मदिन है. उनके व्यक्तित्व की कौन सी बात आपको सबसे ज़्यादा आकर्षित करती है? इस लॉकडाउन में उन्हें कोई उपहार देना हो तो आप क्या देना पसंद करेंगी?
उपहार तो कभी सोचा नहीं पर हर साल उसके जन्मदिन पर ये ही उम्मीद करती हूँ कि काम में तरक़्क़ी की तरफ़ बढ़ते हुए उसके जीवन में बहुत बदलाव आएँ पर व्यक्तिगत तौर पर वो कभी ना बदलें क्यूँकि वही उसकी सबसे विशेष बात है।

13. फिलहाल क्या संकेत मिल रहे हैं? शूटिंग कब तक और कैसे होगी? न्यू नार्मल में क्या-क्या न्यू होगा फ़िल्म इंडस्ट्री में ?
मेरा मानना है कि नारमल वही रहेगा जो था, बस थोड़ा समय देना पड़ेगा। और शूटिंग का कोई पता नहीं कब होगी।