भारतीय सिनेमा के इतिहास में 15 जून 2001 को 'लगान' के रूप में एक अविस्मरणीय अध्याय जुड़ा। प्रदर्शन के दस वर्ष पूरे कर रही 21वीं सदी की इस पहली क्लासिक फिल्म के सृजन के सफर पर विशेष रिपोर्ट..
आमिर खान
बढ़ी प्रयोग की हिम्मत
बतौर एक्टर मैं अपनी हर फिल्म को सौ फीसदी अहमियत देता हूं। इसके बावजूद लगान मेरे लिए खास और अहम फिल्म है। यह मेरे होम प्रोडक्शन की पहली फिल्म है। मैंने पिता और चाचा को करीब से देखा था। फिल्म निर्माण के नुकसान से परिवार की मुश्किलों को मैं समझता था। मैंने तय कर रखा था कि मुझे कभी निर्माता नहीं बनना है। अपने पुराने इंटरव्यू में मैंने साफ कहा था कि मैं कभी निर्माता नहीं बनूंगा, लेकिन लगान की स्क्रिप्ट ने मुझे निर्माता बनने पर विवश कर दिया।
आशुतोष गोवारीकर ने मुझे एक्टर के तौर पर यह कहानी सुनाई थी। मुझे स्क्रिप्ट बहुत पसंद आई। मैंने आशु को सलाह दी कि तू मेरा नाम लिए बगैर निर्माताओं को स्क्रिप्ट सुना। अगर किसी को स्क्रिप्ट पसंद आए तो ही बताना कि इसमें आमिर है। फिल्म इंडस्ट्री के माइंडसेट को मैं अच्छी तरह समझता था। आशुतोष का कॅरियर दो फ्लाप फिल्मों का था। मुझे भी डर था कि निर्माता उस पर बेवजह दबाव डाल सकते हैं। मुझे स्क्रिप्ट इतनी पसंद थी कि मैं उसमें किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं चाहता था। प्रोड्यूसर न मिलने पर मैंने उसकी भूमिका निभा ली।
लगान के लिए हां कहने में पुरानी पीढ़ी के हिम्मती निर्माता-निर्देशकों से प्रेरणा मिली। बिमल राय, महबूब खान, राज कपूर सभी ने अपने समय में जोखिम लिया और अपने दिल की फिल्म पैशन के साथ बनाई। आज हम उन सभी फिल्मों पर गर्व करते हैं। मुझे लगा कि दिल को फॉलो करना सही होगा। इंडस्ट्री में मुझे दस साल हो चुके थे। मेरा मन कह रहा था कि मुझे कुछ तो करना चाहिए। हिट और फ्लाप की परवाह किए बगैर मैंने खुद को झोंक दिया। वह अनुभव बहुत इमोशनल रहा। उन दिनों जो भी सुनता था, वह इसे बंद करने की सलाह देता था। यहां तक कि आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने भी इसे न करने की सलाह दी, लेकिन मेरा और आशुतोष का इस पर विश्वास था।
लगान ने विश्वास दिया कि हम प्रयोग कर सकते हैं। उसकी कामयाबी ने बाद में इंडस्ट्री के लोगों को प्रेरित किया कि वे दिमाग की खिड़कियां खोलकर अलग किस्म की फिल्में बनाएं। लगान ने युवा फिल्मकारों को निर्भीक होने की राह दिखाई। मैं हमेशा अलग किस्म की फिल्में करता रहा था, फिर भी मैं कहूंगा कि मेरे निर्भीक प्रयासों पर लगान ने कामयाबी की मुहर लगा दी।
पहली फिल्म कयामत से कयामत तक की कामयाबी के बाद मैंने नौ फिल्में साइन की थीं। उन फिल्मों को करते हुए मैंने डायरेक्टर और स्क्रिप्ट की अहमियत समझ ली थी। मेरी समझ में आ गया कि स्क्रिप्ट से भी अधिक जरूरी डायरेक्टर है। मैं डायरेक्टर, स्क्रिप्ट और प्रोड्यूसर को जांचने के बाद ही फिल्म के लिए हां कहता हूं। लगान का प्रोड्यूसर बनने के बाद से मेरे होम प्रोडक्शन की फिल्में देख लें.. मैं जोखिम और कामयाबी के साथ आगे बढ़ रहा हूं। लगान ने मेरे इरादों को बुलंदी दी। कई लोगों को लग सकता है कि लगान मेरे कॅरियर का टर्निग पाइंट है। मैं उनसे सहमत होने के साथ कहूंगा कि ये लक्षण मुझमें पहले से थे, हां, उसने मेरे निजी प्रयासों को स्वीकृति दिला दी। उसके बाद से केवल मंगल पांडे को ही मिक्स रेस्पांस मिला।
लगान के सबक के तौर पर कुछ प्वाइंट बताने हों तो मैं कहूंगा कि उसके बाद ही इंडस्ट्री की समझ में आया कि एक ही शेडयूल में फिल्म पूरी करने के क्या फायदे हैं? स्क्रिप्ट भी पहले पूरी कर ली गई थी। बाउंड स्क्रिप्ट उसके बाद ही फैशन में आई। हम अमेरिका से अपूर्व लाखिया को लेकर आए। एक कॉल शीट बनती थी और उस पर मेरे सहित सभी को अमल करना होता था। कई लोग कहते हैं और इंडस्ट्री भी मानती है कि लगान के बाद फिल्म मेकिंग का तरीका बदल गया। मैं तो कहूंगा कि अच्छा ही हुआ। लगान ने फिल्म इंडस्ट्री को दिशा दी। नई सोच के फिल्मकारों को हिम्मत दी। आज उसकी वजह से युवा फिल्मकार प्रयोग कर पा रहे हैं। मैं हैरान होता हूं कि लगान के बाद कोई और फिल्म उस स्तर को क्यों नहीं छू सकी? यकीन करें लगान को दोहरा पाना या उसके सिक्वेल या रीमेक के बारे में सोच पाना भी असंभव है!
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ऐसी लागी लगन
* आशुतोष गोवारीकर ने लगान की कहानी मित्र आमिर खान को सुनाई। कोई निर्माता इसमें पैसा लगाने को तैयार नहीं था। इसी फिल्म के साथ आमिर खान की निर्माता न बनने की सौगंध टूट गई।
* लगान के संवाद अवधी में रखने का सुझाव साहित्यकार केपी सक्सेना का था, जिनका चुनाव आशुतोष गोवारीकर ने संवाद लेखन के लिए किया था। आमिर खान इस बोली में पारंगत नहीं थे। आमिर ने योजना बनाई कि लगान की शूटिंग आरंभ होने से तीन माह पूर्व वे उत्तर प्रदेश के किसी अवधी भाषी क्षेत्र में रहेंगे, लेकिन निर्माता की जिम्मेदारियों से उन्हें फुरसत नहीं मिली। बाद में जावेद अख्तर के सुझाव पर आमिर खान ने लखनऊ के अभिनेता लेखक राजा अवस्थी को अवधी सिखाने के लिए भुज बुलाया।
* लगान की नायिका गौरी की भूमिका के लिए नम्रता शिरोडकर, अमीषा पटेल, नंदिता दास सहित कई अभिनेत्रियों का ऑडिशन हुआ, लेकिन अंत में इस भूमिका के लिए नई अभिनेत्री ग्रेसी सिंह का चुनाव किया गया।
* कच्छ में स्थानीय लोगों की सहायता से लगान के चंपानेर गांव का सेट बनाया जा सका। शूटिंग खत्म होने के बाद गांव वालों को जमीन लौटाने के लिए लगान के काल्पनिक गांव चंपानेर को ध्वस्त किया गया।
* आमिर खान चाहते थे कि उन्नीसवीं सदी की लगान का भुवन मूंछें रखे, लेकिन आशुतोष इसके पक्ष में नहीं थे।
* लगान में आमिर खान ने एक नई कार्य संस्कृति अपनाई। उन्होंने छह माह के लंबे शेड्यूल में फिल्म की शूटिंग खत्म करने की योजना बनाई। फर्स्ट एडी और सिंक साउंड का इस्तेमाल किया। चार सौ लोगों की यूनिट साढ़े चार माह भुज में डेरा डाले रही। लगान का शूटिंग शेड्यूल 13 मई को खत्म होना था, लेकिन आखिरी शॉट 17 जून 2000 को शाम के पांच बजे लिया गया।
* आशुतोष गोवारीकर ने लगान का बजट नौ करोड़ रुपए आंका था, जो शूटिंग आरंभ होते-होते सोलह करोड़ रुपए और शूटिंग खत्म होते-होते बीस करोड़ रुपए से भी अधिक हो गया।
* आमिर लगान को साढ़े तीन घंटे से भी छोटा करना चाहते थे, पर आशुतोष ने उन्हें लगान को तीन घंटे बयालीस मिनट लंबी बनाने के लिए सहमत कर लिया।
* लगान के क्रिकेट-दृश्यों के लिए 27 फरवरी 2001 को मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में हुए भारत-आस्ट्रेलिया के मैच में भीड़ की तालियों और खुशियों को रिकॉर्ड किया गया था। इस शोर को रिकॉर्ड करने की अनुमति मिलना आसान काम नहीं था। आमिर ने सचिन तेंदुलकर के साथ अपनी दोस्ती का उपयोग किया।
* लगान की पहली स्क्रीनिंग रिलीज से पांच दिन पहले भुज के एक साधारण सिनेमाघर में हुई। चार सौ की क्षमता वाले सिनेमा घर में स्क्रीनिंग के दौरान दोगुनी संख्या में लंदन, मुंबई और कच्छ के लोग भीषण गर्मी के बावजूद उपस्थित थे।
* ढाई साल के लेखन, एक साल के प्री प्रोडक्शन, छह महीनों की शूटिंग और एक साल के पोस्ट प्रोडक्शन के बाद भारत के दो सौ साठ सिनेमाघरों में लगान प्रदर्शित हुई।
* रिलीज के दस सप्ताह बाद तक लगान के टिकट उपलब्ध नहीं थे। वितरक और प्रोडक्शन ऑफिस से मांग थम नहीं रही थी। आमिर दोस्तों के लिए भी टिकट नहीं जुटा पाए थे।
* इंदौर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्ट्डीज में केस स्टडी के रूप में लगान शामिल हुई। कंपनियों ने आमिर खान और आशुतोष गोवारीकर को टीम गठन पर विचार रखने के लिए आमंत्रित किया।
* मदर इंडिया और सलाम बांबे (1988) के बाद लगान तीसरी भारतीय फिल्म है, जिसे ऑस्कर अवार्ड के लिए नामांकित किया गया। 12 फरवरी 2002 में लगान को सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म वर्ग में नामांकित किया गया।
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बदलाव की बयार
लगान सिर्फ फिल्म नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा जगत के बदलाव की प्रतीक है। आज यह न सिर्फ सिनेमा के अध्येताओं, बल्कि बिजनेस स्कूल के अभ्यर्थियों के लिए भी शोध का विषय है।
टूट गए सारे नियम
भारतीय सिनेमा का प्रयोगशील आंदोलन जिस इमारत पर खड़ा है उसकी नींव लगान ने रखी थी। लगान ऑफबीट फिल्मों और कामर्शियल फिल्मों की पहली कड़ी बनी। लगान की मेकिंग से करीब से जुड़े और द स्पिरिट ऑफ लगान के लेखक सत्यजित भटकल कहते हैं, ''आज युवा निर्देशकों को फिल्म के विषय के चुनाव में जो आजादी मिल रही है, उसकी लड़ाई आमिर और आशुतोष ने लगान के जरिए लड़ी थी। उन दिनों यही माना जाता था कि अपारंपरिक और अलग फिल्म बनानी है तो वह आर्ट फिल्म होगी। यह स्पष्ट था कि आप अलग विषय पर मेनस्ट्रीम फिल्म नहीं बना सकते। लगान ने यह लड़ाई लड़ी और जीती। उसके बाद दर्शकों ने भी मुहर लगा दी कि कोई फार्मूला नहीं चलता। लगान ने पुराने सारे नियम तोड़ दिए। वह टर्निग प्वाइंट साबित हुई।''
दिखी दोस्ती की बानगी
लगान आमिर खान और आशुतोष गोवारीकर की दोस्ती, परस्पर सम्मान, सहयोग और विश्वास की बुनियाद पर बनी थी। आमिर ने अपने पुराने मित्र आशुतोष की रचनात्मकता पर विश्वास नहीं किया होता, तो शायद लगान कभी नहीं बन पाती। यदि आशुतोष का आमिर से तादात्म्य नहीं हो पाता, तो भी लगान जैसी कालजयी फिल्म का निर्माण मुश्किल था। लगान आमिर और आशुतोष की दोस्ती के मधुर रिश्ते की बानगी है। लगान के सफर ने आमिर और आशुतोष के व्यक्तित्व का भी कायाकल्प किया। लगान की मेकिंग में आमिर और आशुतोष के सफर के साक्षी रहे सत्यजित भटकल कहते हैं, ''लगान ने आमिर और आशुतोष को भी बदला। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे दोनों लगान के पहले से ऐसे थे। मनुष्य के तौर पर भी वे बदले। मैंने तो उन्हें महीने-दर-महीने बदलते देखा। आशुतोष और आमिर की दोस्ती और परस्पर विश्वास भी फिल्म की मजबूती की वजह बनी। दोस्ती और समझदारी के अलावा आमिर अच्छी तरह जानते थे कि डायरेक्टर को कैसे बड़ा किया जाता है। आशुतोष के समर्थन के लिए आमिर ने हर संभव कोशिश की। आमिर ने बहुत साफ तरीके से पूरी टीम को यह बात समझाई कि आशुतोष ही इस टीम के कप्तान हैं। दोनों के बीच इमोशनल कैमिस्ट्री थी। आमिर फिल्म के केवल निर्माता भर नहीं थे, आशुतोष के समर्थक भी थे।''
फिल्म मेकिंग में क्रांति
लगान ने फिल्म मेकिंग की कार्यप्रणाली में क्रांति का बिगुल फूंका। लगान के साथ भारतीय सिनेमा जगत में भी व्यवस्थित और सुनियोजित ढंग से फिल्म मेकिंग प्रारंभ हुई। हॉलीवुड की वर्किंग स्टाइल अपनाते हुए 'मूवी मैजिक' तकनीक का इस्तेमाल किया गया। विश्वसनीयता पर भी विशेष ध्यान दिया गया। पहले हिंदी फिल्मों में विदेशी कलाकारों की जरूरत होने पर देश में रहने वाले गोरी चमड़ी के लोगों को मौका दिया जाता था, वहीं आमिर और आशुतोष ने इंग्लैंड जाकर विदेशी कलाकारों का चयन किया। फिल्म मेकिंग में टीम भावना की आवश्यकता को भी आशुतोष और आमिर ने समझा। आशुतोष कहते हैं, ''लगान का श्रेय पूरी टीम को है। यह एक व्यक्ति की फिल्म नहीं है। लगान टीम वर्क का उदाहरण है। लगान के साथ सबसे अच्छी बात हुई है कि नई पीढ़ी भी इसे पसंद कर रही है!''
मेनस्ट्रीम हुआ पैरेलल सिनेमा
आशुतोष गोवारीकर जब लगान की शूटिंग कर रहे थे तभी उन्हें अहसास हो गया था कि वे कुछ विशिष्ट और विशेष बना रहे हैं। उन्हें लगान के ऐतिहासिक महत्व की अनुभूति हो गई थी। आशुतोष कहते हैं, ''1 जनवरी, 2000 को हम लोग लगान की शूटिंग के लिए भुज पहुंचे थे। 6 जनवरी को शूटिंग आरंभ की। दर्शक भी सदी के बदलाव की उमंग में थे। वे किसी भी परिवर्तन के लिए तैयार थे। लगान के बाद पैरेलल सिनेमा मेनस्ट्रीम हो गया। लगान के पहले आप नहीं सोच सकते थे कि नो वन किल्ड जेसिका जैसी फिल्म थिएटर में लग सकती है!''
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गाँव से फिर जुड़ा सिनेमा-महेश भंट्ट
हिंदी सिनेमा उन दिनों पश्चिमी स्पेस में जगह बना रहा था। आदित्य चोपड़ा और करण जौहर के प्रभाव में यह सब हो रहा था। हिंदुस्तानी सिनेमा में हिंदुस्तान नहीं दिख रहा था। सारे किरदार भाषा तो हिंदुस्तानी बोल रहे थे, लेकिन पहनावा, लैंडस्केप, आर्किटेक्चर और हीरो के आसपास की सारी चीजें पश्चिमी या शहरी हो गई थीं। महबूब खान और बिमल राय ने जिस हिंदुस्तान को पर्दे पर रचा था, वह सिरे से गायब था। लगान ने दोबारा ग्रामीण भारत से हिंदी सिनेमा का रिश्ता जोड़ा। उपनिवेशिक युग के भारत को पर्दे पर क्रिएट किया गया। मिंट्टी से जुड़े धरती पुत्रों के नजरिए से एक कहानी कही गई। बहुत ही प्रशंसनीय प्रयास था। बॉक्स आफिस पर मिली कामयाबी से उसने यह धारणा तोड़ी कि केवल शहरी फिल्में चलती हैं। फिल्म का कथानक बहुत ही आकर्षक था। उन्होंने यह संकेत दे दिया था कि कैसे भारत में एक विदेशी खेल अपनी जड़ें जमाएगा। अब तो क्रिकेट भारत का खेल हो गया है। ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के लोग क्रिकेट को जिंदा रखने के लिए भारत आते हैं।
इन खूबियों के बावजूद मैं यह जरूरी नहीं मानता कि इसे ऑस्कर तक ले जाना सही बात थी। मेरी नजर में वहां लॉबिंग करना गैरजरूरी काम था। आमिर और उनकी टीम का ढेर सारा समय बर्बाद हुआ। अपने देश के दर्शकों ने तो उसे सराहा ही था, फिर वहां से सर्टिफिकेट लेने की क्या जरूरत थी। लगान के बाद अपनी फिल्मों को ऑस्कर भेजने और विदेश में प्रदर्शित करने के लिए उनकी पसंद-नापसंद के हिसाब से काट-छांट की जाने लगी। वहां से एक गलत शुरुआत हो गई। मुझे लगता है कि ऑस्कर एक मार्केटिंग इवेंट से ज्यादा कुछ भी नहीं है। ईरान और चीन जैसे देशों के फिल्म मेकर तो उनकी मुहर के लिए परेशान नहीं होते!
-अजय ब्रह्मात्मज/सौम्या अपराजिता/ रघुवेन्द्र सिंह