"ग्लैमर छलावा है, सब काम और उसके नतीजे को पहचानते हैं, पूजते हैं"
हिंदी फिल्में सपने देखना सिखाती हैं तो उन सपनों का मोल भी मांगती हैं. बिहार के छोटे से गांव बेलवा में नौ साल के एक अबोध बच्चे ने फिल्मों की अविश्वसनीय दुनिया में खुद को देखने का साहस दिखाया। दिल्ली में थिएटर की ट्रेनिंग ली और ढेर सारे नाटक किए. वहीँ शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन' मिली. फिर मुबई आने के बाद फिल्मों की दौड़ शुरू हुई. 'सत्या' से ऊंची छलांग मिली. आज वह अभिनय का पर्याय हैं. त्याग, तपस्या और सफलता का प्रत्यक्ष नाम हैं- मनोज बाजपेयी। #रघुवार्ता में इस बार बातें इस प्रतिष्ठित अभिनेता से!
आपकी प्रत्येक फिल्म देखकर प्रतीत होता है कि यह आपका सर्वश्रेष्ठ काम है. लेकिन फिर अगली फिल्म में आप चौंका देते हैं. जैसे कि अब #भोंसले को ले लीजिये. खुद को ही हमेशा पछाड़ देने की कला में कैसे पारंगत हुआ जा सकता है?
मैं ख़ुद को पछाड़ने के बजाय नए किरदारों की चुनौतियों और उनके चरित्र चित्रण पर काम करता हूँ. पछाड़ना-हराना कुश्ती में होता है. अभिनय बहुत ही बारीकियों की समझ की अपेक्षा रखता है और उसी को न्याय देने में खोया रहता हूँ. पर इस प्रशंसा के लिए धन्यवाद !!
कोरोना काल में हमने कई हृदय विदारक तस्वीरें देखीं, लोग हमदर्द बनकर सहायता के लिए सड़कों से लेकर झुग्गी-झोपड़ियों में उतरे, ऐसी सुखद तस्वीरें भी दिखीं. क्या हम उचित तरीके से इस कठिन समय का सामना करने की दिशा में अग्रसर हैं?
ये बहुत ही कठिन समय रहा है देश, समाज और ख़ासकर ग़रीब मज़दूरों के लिए। कई लोगों ने आगे आकर मदद की है, दिशा दी है. कुछ लोग बिना बताए मदद के काम में लगे हुए हैं. मेरा सर उनकी प्रशंसा झुक जाता है जब भी सुनता हूँ या देखता हूँ उनके काम को। अभी यह कई दिनों तक चलेगा। बस ठीक हो जाए.
एक कलाकार का जीवन अनिश्चितताओं से भरा रहता है. ऐसे में, आर्थिक रूप से खुद को सुरक्षित करना बहुत ज़रूरी हो जाता है. आप इस मामले में कितने सतर्क और सुरक्षित हैं?
कलाकार को ग्लैमर के मोह जाल से हटकर बचत और निवेश पर भी ध्यान देना होगा ताकि वो हमेशा सुरक्षित महसूस कर सके और मन मुताबिक़ काम कर सके और दबाव में ना आए। मैं अब थोड़ा सतर्क रहता हूँ!
इस बात में कितना सत्य है कि करियर के आरंभिक दिनों में आपने धन को कम महत्त्व दिया लेकिन अब आप धन के मामले में अडिग रहते हैं. जिसके कारण बहुत से निर्माता-निर्देशक आपसे नाराज़ हो जाते हैं.
जी आरम्भिक काल में अपने आपको स्थापित करना, अपने सपने के मुताबिक़ काम करके लोगों और निर्देशकों के दिल में जगह बनाने के लिए पैसा नहीं देखा क्योंकि जो फ़िल्में मैंने की उन फ़िल्मों में पैसा नहीं होता था. जिनमें पैसा था, वो फ़िल्में और चरित्र मुझे करना नहीं था। अब 26 साल के बाद अच्छा पैसा, अपनी मेहनत के अनुसार पैसा माँगना मेरा अधिकार है. ये सवाल दूसरों से क्यों नहीं पूछे जाते? एक ही फ़िल्म के दूसरे स्टार्स का मेहनताना बढ़ जाता है पर मुझसे सवाल? ये न्याय नहीं है। पैसा मैं फ़िल्म के बजट के हिसाब से ही लेता हूँ या माँगता हूँ।
आप हिंदी सिनेमा में 'हिंदी' की वकालत करने वाले चंद कलाकारों में से एक हैं. आप हिंदी में स्क्रिप्ट की मांग करते हैं. मंच पर हिंदी में बातें करते हैं. एक हिंदी भाषी होने के क्या साइडइफेक्ट्स हैं इस व्यवसाय में?
हिंदी माध्यम में पढ़ा हूँ, उसमें अपने आपको व्यक्त करना मुझे अच्छा लगता है, गर्व है उस पर और हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में काम करता हूँ तो वो मेरी शक्ति बन जाती है। मेरे ख़याल से सबको हिंदी थोड़ी बहुत सीखनी ही चाहिए। इससे काम करने में उन्हें आसानी होगी लेकिन मैं उनको दोष नहीं देता क्योंकि उनका पालन पोषण ही अंग्रेज़ी माहौल में किया गया है तो उनको मुश्किल होती है. पर कोशिश करनी चाहिए। वैसे मैं भाषा की जंग नहीं चाहता। भाषा का कोई साइड इफ़ेक्ट्स नहीं होता अगर उस पर आपको गर्व हो तो। आशुतोष ( राणा), नवाज़ (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) पंकज (त्रिपाठी) इसके अच्छे उदाहरण बनकर सामने आए हैं।
आपकी तरह उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार जैसे हिंदी भाषी प्रदेशों से लड़के-लड़कियां फिल्मों में चमकने का सपना लेकर आते हैं. किस तरह की मानसिक तैयारियों के साथ उन्हें मुंबई का रुख करना चाहिए?
बस अपने ऊपर, अपनी तकनीक, भाषा और उन सब विधाओं को सीखें पहले। रंगमंच अवश्य कीजिए 3 साल तक। उसके बाद ही मुंबई का रख कीजिए। कठिन शिखर है, कठिन राह है. पारंगत हो कर आइए.
आपके जीवन की एक सबसे महत्वपूर्ण फिल्म है- सत्या। इसकी रिलीज़ के बाइस वर्ष पूरे हो गए. वर्तमान के मनोज बाजपेयी को अगर सत्या की सफलता के पश्चात के मनोज को कोई नसीहत देनी हो तो क्या देंगे?
मैं अपने आपको नसीहत तब देता हूँ जब मैं बिना सोचे-समझे गलती करता हूँ. सत्या के बाद मुझे कई स्तर पर लड़ाई लड़नी पड़ी। वो कोई नहीं जानता, सब क़यास लगाते हैं। मैंने कई स्तर पर अपने ऊपर लगातार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हमले झेले। Blind items उस समय भी होते थे. सारी राजनीति और बुरे इरादों को झेलते, सहते उन पर विजय पाते हुए यहाँ तक आया हूँ. लड़ाकू था इसलिए आ पाया, कोई दूसरा टूट जाता। नसीहत नहीं बल्कि अपने तेवर पर और साथ देने वालों पर दर्शकों के विश्वास पर गर्व है। धन्यवाद सबको।
अहम् एक इंसान का सबसे बड़ा शत्रु कहलाता है. आप भी कभी न कभी इसके शिकार हुए होंगे. क्या ऐसा कोई पल याद आता है? आपने इस शक्तिशाली भावना पर नियंत्रण कैसे पाया?
इस लड़ाई में कब आत्मसम्मान अहम् में परिवर्तित हो जाता है, पता नहीं चलता। बहुत पतली रेखा होती है आत्मसम्मान और अहम् के बीच. पर समय रहते सम्भालता भी जाता था. देखिए और कोई तो था नहीं, सब कुछ अकेले ही करना था. वो समय मेरे जैसे अभिनेता के लिए कठिन था, जो शक्ति के सामने उनकी शर्तों पर काम करने के लिए तैयार नहीं था.
सफलता पाने की अमूमन सब तैयारी करते हैं लेकिन उसे सँभालने में अक्सर लोग चूक जाते हैं. आपके हिसाब से ग्लैमर की दुनिया की कामयाबी को कैसे संभालना चाहिए?
देखिए आप सम्भालने की कोशिश कभी विवेक, कभी चतुराई, कभी धैर्य और भाग्य सबका इस्तेमाल करते हैं. बहुत छोटी और शायद इसीलिए कठिन इंडस्ट्री है. इसमें अपनी पिछली फ़िल्म की सफलता और असफलता पर समय ना गँवाकर अगले को पाने और उस पर काम करना जल्दी शुरू करना चाहिए। ग्लैमर छलावा है, सब काम और उसके नतीजे को पहचानते हैं, पूजते हैं। अनुशासन और काम बस बाक़ी सब भ्रम है।
अपने लम्बे सफर में आपने कई उतार-चढ़ाव देखे. ख़ुशी के पलों में अक्सर आप लोगों से घिरे होते हैं, मगर निराशा के क्षण बेहद मुश्किल होते हैं. उन क्षणों में आपने खुद को कैसे संभाला?
पहली बात ये कि जो आपकी प्रतिभा है वो कभी भी आपको निराश नहीं करेगी। अगर आप ख़ुशी और निराशा के समय सिर्फ़ उस पर काम करें, अवार्डस मिलना, फ़िल्मों का चलना ये एक दिन में भुला दिया जाता है, पर आपके काम, आपकी प्रतिभा को भुला पाना लोगों के लिए कठिन होगा। बस हर पल उस पर ध्यान देना होगा।
हिन्दी फ़िल्मों के विस्तार की दिशा क्या होगी और इसमें हिंदी प्रदेशों की प्रतिभाओं की क्या भूमिका हो सकती है?
हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री चिल्ला-चिल्ला के कह रही है कि मुझे और प्रोफेशनल और पारदर्शी बनाओ (हँसते हैं). हर प्रतिभा और फ़िल्म के लिए समान अवसर हो। मूवी हॉल्स की संख्या जनसंख्या के हिसाब से कम हैं, थियेटर में छोटी फ़िल्म को भी समान अवसर मिले, सिनेमा समाज सबको सुरक्षा और इंडस्ट्री सबको सुरक्षा और प्रतिष्ठा दे, तभी इसका एक स्वस्थ विस्तार सम्भव है। हिंदी प्रदेश से आने वाले प्रतिभाओं का योगदान अविस्मरणीय है. उन्होंने हमेशा अपनी कहानी, कविता, संगीत, तकनीक, अभिनय से सिनेमा बदला है. बिना उनके योगदान के हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का इतिहास नहीं है।
सत्या और ज़ुबैदा के संदर्भ में अपनी परवरिश और परिवेश से बाहर के किरदार निभाने में मुख्य कारक क्या होता है?
सत्या या ज़ुबैदा दोनों बिलकुल एक-दूसरे से अलग, उनको निभाने में बहुत मेहनत और दिमाग़ का इस्तेमाल करना पड़ा। रामूजी (रामगोपाल वर्मा) हों श्याम बाबू (श्याम बेनेगल) दोनों को लगातार सुनना, दोनों के माहौल परवरिश पीछे के इतिहास पर काम करना, एक पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। अच्छा लगता है जब इस तरह के सवाल आते हैं जो सवाल कम प्रशंसा के शब्द ज़्यादा होते हैं, धन्यवाद!
फिल्म इंडस्ट्री को लेकर कौन-कौन से मिथक या भ्रम आपके दिल-दिमाग में थे, जो इंडस्ट्री की गहराई में जाने के पश्चात टूटे?
मुझे लगा था ये एक बड़ा परिवार है, पर पता चला यहाँ भी छोटे-छोटे कुछ बड़े दल हैं. रिश्तेदारों की तरह जो आपस में एक-दूसरे को अच्छा करते हुए नहीं देखना चाहते। मुझे हंसी आती है, क्योंकि ये सब हम अपने समाज में देखते आए हैं. जो बलवान और धनी होगा, खूँटा उसका होगा। और ग्लैमर नाम की कोई चीज़ नहीं है, मेहनत, प्रतिभा और भाग्य यही काम आता है.
कुछ लोग ओटीटी प्लैटफॉर्म पर सेंसरशिप की वकालत कर रहे हैं. आप इस मत के पक्ष में हैं या विपक्ष में?
जो लोग सेंसरशिप की डिमांड कर रहें हैं OTT पर नहीं चाहते कि समाज अपने चुनाव स्वयं करे कि उसे क्या देखना है, क्या नहीं, वो हर चीज़ पर अपना कंट्रोल चाहतें है. पर इस प्लैटफॉर्म पर सेन्सर कर पाना मुश्किल है।
नयी पीढ़ी के कलाकारों में आपका प्रिय कौन है?
बहुत सारे अच्छा काम कर रहे हैं- गुलशन देवैया, राजकुमार राव, आयुष्मान खुराना, कार्तिक आर्यन, जयदीप अहलावत, सयानी गुप्ता, तापसी पन्नू, भूमि पेडनेकर, विकी कौशल, स्वरा भास्कर, संयमी खेर बहुत हैं. कुछ नाम तो मैं भूल रहा हूँ, क्षमा करें! मुझे पवैल गुलाटी और गीतिका थप्पड़ में मुझे बहुत अच्छे लगे!
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