Thursday, April 26, 2012
Wednesday, April 25, 2012
मेरी मां- शबाना आजमी
-रघुवेन्द्र सिंह
वे जिस शख्स के सिर पर हाथ रख देती हैं, उसकी जि़ंदगी बदल जाती है. वे जिसके संग कुछ वक़्त गुजारती हैं, उसकी सोच और श$िख्सयत बदल जाती है. शबाना आज़मी के चुंबकीय व्यक्तित्व का करिश्मा ही कुछ ऐसा है. अर्थपूर्ण िफल्मों के साथ-साथ उन्होंने वास्तविक जीवन में अपने समाजसेवी कार्यों से हज़ारों जि़ंदगियों का रू$ख तब्दील किया है. उन्हें $करीब से जानने-समझने के लिए मैंने उनके जन्मदिन (१८ सितंबर) के अवसर पर अपने एडिटर जितेश पिल्लै के समक्ष उनका साक्षात्कार करने की बात रखी. उन्होंने सुझाव दिया कि अगर शबाना आज़मी की श$िख्सयत को समझना है तो उनकी मम्मी शौकत आज़मी से बात करो. उन्होंने शौकत आज़मी और शबाना आज़मी का संयुक्त साक्षात्कार और फोटोशूट करने की बात कही. मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा. मेरी $खुशकिस्मती देखिए कि शबाना आज़मी ने फौरन अपनी मम्मी के साथ बातचीत करने के लिए हां कह दिया.
बरसात की एक दोपहर मैं शबाना आज़मी के जुहू स्थित सागर सम्राट बिल्डिंग के सातवें महले पर करीने से सजे $खूबसूरत घर में प्रवेश करता हूं. एम एफ हुसैन सहित दुनिया के मशहूर चित्रकारों की पेंटिंग से सजे बैठकखाने से समुद्र का विहंगम दृश्य नजर आता है. हमेशा की तरह शबाना सलवार-कमीज में हैं, जबकि शौकत आज़मी गोल्डन बॉडर्र की $खूबसूरत साड़ी में सजी हैं. अब शौकत आज़मी और शबाना आज़मी जैसी श$िख्सयतें आपके समक्ष हों तो आपका नर्वस होना लाज़मी है. मैं कांपते अल्$फाजों में शौकत आज़मी से शबाना के बचपन के बारे में जानने की जिज्ञासा प्रकट करने के साथ ही, यह गुजारिश करता हूं कि अपनी आत्मकथा याद की रहगुज़र में वर्णित गंभीर, जि़म्मेदार और अभिनेत्री शबाना के बारे में बिल्कुल न बताएं.
शौकत आज़मी की आंखें अपनी बेटी के बारे में बातें करते वक्त चमक उठती हैं. वे उत्साही अंदाज़ में शबाना के बारे में बात करना शुरू करती हैं. ‘‘शबाना बहुत ब्राइट और बेहद हमदर्द बच्ची थी. ये सात साल की थी. उस दिन घर में खाना नहीं पका था. मैंने इससे कहा था कि कभी किसी के सामने हाथ मत फैलाना. अगर घर में कोई तकलीफ हो तो उसे खुद झेल लेना. लेकिन मां की परेशानी उससे देखी नहीं गई. हमारे घर के सामने अली सरदार जा$फरी और उनकी बहनें रहती थीं. ये सरदार जा$फरी की बहन के पास गई और उनसे बोला कि मम्मी एक रुपया मांग रही हैं. और मेरे पास चिल्लाते हुए आई कि मम्मी, देखो-ये आपका एक रुपया अलमारी के नीचे से मिला. उस एक रुपए से घर में सब्जी आई. शाम को रज्जो बाजी ने मुझसे पूछा कि शबाना ने तुम्हें रुपया दिया. मैंने पूछा कि कौन सा रुपया? उन्होंने कहा कि वो एक रुपया मांग कर ले आई थी. मुझे बहुत गुस्सा आया. उनके जाने के बाद मैंने उसे बहुत मारा और डांटा.’’ सोफे पर अपनी मम्मी के बगल में बैठी शबाना आज़मी हंसते हुए कहती हैं-‘‘हां, एक दम फरिश्ता थी. मम्मी इन्हें मेरी शरारतों के बारे में बताओ.’’
और शबाना खुद ही बताने लगती हैं. ‘‘मैं इंतेहाई शरारती थी. मैं अपने भाई बाबा को सबसे ज़्यादा परेशान करती थी. वो तीन साल का था. रात में उसने चीकू का बीज निगल लिया. मैंने सुबह को एक छोटा सा पौधा उसके मुंह में रख दिया और उसे उठाया कि ओ..तुम्हारे मुंह में चीकू का पेड़ निकल आया. वो बेचारा चीखते हुए भागा.’’ काबिले जि़क्र है कि शबाना बचपन में बेहद हस्सास और शरारती होने के साथ बेइंतहाई नाटकबाज़ थीं. उनके नाटकों ने कई मर्तबा शौकत आज़मी के हाथ-पांव ठंडे कर दिए थे. शौकत आज़मी के पास शबाना के नाटकों के अनेक दिलचस्प $िकस्से हैं, जिन्हें सुनते हुए दिन कब गुज़र जाएगा, आपको पता भी नहीं चलेगा.
नन्हीं उम्र में शबाना आज़मी का अपने जन्मदिन को लेकर उत्साह के बारे में जिज्ञासा प्रकट करने पर शौकत आज़मी ने शिकायती लहजे में कहा, ‘‘इसका (शबाना) वश चले तो ये अपना जन्मदिन मनाए ही नहीं. मैं ही दोस्तों को बुलाती थी, बिरयानी बनाती थी. ये मुश्किल से केक काटती थी.’’ मम्मी की इस बात पर शबाना प्रतिक्रियात्मक लहजे में कहती हैं, ‘‘नहीं-नहीं. हुआ ये था कि मुझसे पहले एक और बच्चा हुआ था. उसकी पहली सालगिरह में मम्मी ने बेहद तैयारी की थी. और सालगिरह से एक हफ्ता पहले उसकी डेथ हो गई. मम्मी को सुपरस्टिशन हो गया था कि सालगिरह नहीं मनानी चाहिए. इसलिए बचपन में हमारी सालगिरह मनाई ही नहीं जाती थी. बाद में इन्होंने जन्मदिन मनाना शुरू किया, जब इन्हें इत्मीनान हो गया कि मेरी बेटी जि़ंदा रहेगी.’’
तोह$फों के बारे में शबाना आज़मी की $ख्वाहिशों और जि़द के बारे में पूछने पर शौकत आजमी एक राज की बात बताती हैं. ‘‘तोह$फे तो छोडि़ए. इसे अनगिनत अवॉर्ड मिले, लेकिन ये एक भी अवॉर्ड घर में नहीं ले आई. पांच में से ये केवल चार नेशनल अवॉर्ड घर में लाई है, लेकिन मुझे पता नहीं है कि कहां रखा है उन्हें.’’ अवॉर्ड को घर में न ले आने के बाबत आश्चर्य प्रकट करने पर शबाना आज़मी कहती हैं, ‘‘बदतमीज़ी है मेरी. आई एम नॉट वेरी प्राउड अबाउट इट. (मम्मी की ओर घूमकर) आपने अपनी बात नहीं बताई कि आपने हमारे अवॉर्ड की क्या कद्र की? हुआ क्या था कि गर्म हवा रिलीज हुई थी और उसके बाद अंकुर रिलीज हुई थी. अब्बा को अट्ठारह अवॉर्ड मिले थे और मुझे भी त$करीबन उतने ही अवॉर्ड मिले थे. शुरू से ही हमारे घर में अवॉर्ड को सजाकर रखने का रिवाज़ नहीं था.’’ शौकत और शबाना के इस खुलासे के बाद मैंने बैठकखाने में नज़र दौड़ाई तो वाकई मुझे एक भी अवॉर्ड नहीं नज़र आया. अमूमन टॉप फिल्म स्टार्स का घर पुरस्कारों से सजा होता है.
कम लोग जानते हैं कि शबाना आज़मी को बचपन में मुन्नी और नोनो कहकर बुलाया जाता था. उनके और भी कई नाम थे, जिनके बारे में स्वयं शबाना बताती हैं, ‘‘फिल्म इंस्टीट्यूट में लोग मुझे शैवी, शबी, शैब्स कहते थे. मुन्नी अब मुझे सिर्फ शशि कपूर, रेखा और कोंकणा सेन कहते हैं. शबाना दीदी तो है ही मेरा जगत नाम.’’ गौरतलब है कि सरदार जा$फरी के सुझाव पर शौकत आज़मी ने उनका नाम शबाना रखा.
शबाना और उनके अब्बा कै$फी साब के रिश्ते के बारे में का$फी लिखा-कहा-सुना गया है, लेकिन मम्मी के साथ उनके रिश्ते पर गहराई से बात नहीं हुई है. मम्मी के साथ अपने रिश्ते की गहराई के बारे में शबाना कहती हैं, ‘‘मेरे ऊपर अपनी मां का उतना ही इंफ्लूएंस है जितना मेरे अब्बा का. ये बहुत ही गैर-मामूली मां हैं, क्योंकि ना ही ये अपनी तारीफ में मुझे ब$ख्शती हैं और ना ही अपनी क्रिटिसिज़्म में. मैं सात साल की थी. मैं बदतमीज़ होती जा रही थी. मां ने एक बार मुझसे झिडक़ कर पूछा कि तुम इतनी बदतमीज़ क्यों हो? मैंने कहा कि आप बाबा को मुझसे ज्यादा चाहती हैं. उन्होंने कहा कि देखो, मैं मां हूं, मगर मैं एक इंसान भी हूं और किसी भी इंसान से अगर कोई बदतमीज़ी से पेश आता है तो वह उससे भागता है और जो मुहब्बत और नरमी से बात करता है उसके $करीब जाता हैं. और बाबा मुझसे नरमी और तमीज़ से बात करते हैं. और तुम बदतमीज़ी से, तो ज़ाहिर है कि मैं तुमसे कतराऊंगी.’’
शौकत-शबाना का रिश्ता उनकी श$िख्सयत की तरह ही गैर-मामूली है. मां-बेटी के इस उदाहरणार्थ रिश्ते की मधुरता और गहराई का एहसास हमें $िफल्म$फयर के $फोटोशूट के दौरान हुआ. जहां शबाना कभी मम्मी के साथ छोटी बच्ची की तरह शरारत करती तो कभी सहेली की तरह छेडख़ानी करती और कभी कैमरे का सामना करते वक्त नर्वस हो रहीं मम्मी की $खूबसूरती की तारीफ करके उनकी हौसलाअफज़ाई करती नज़र आईं.
शबाना के शानदार व्यक्तित्व और प्रोग्रेसिव सोच में कै$फी आज़मी और शौकत आज़मी का गहरा प्रभाव है. शबाना मानती हैं कि उनका कांफिडेंस, किरदारों की तैयारी का अंदाज मां की सीख है. वे मम्मी को अफ्रीका जवान परेशान और पगली जैसे लोकप्रिय नाटकों के मुश्किल किरदारों की तैयारी शिद्दत के साथ करते हुए घर में देखकर बड़ी हुई हैं. शबाना बताती हैं, ‘‘अफ्रीका जवान परेशान में इन्होंने काम करना शुरू किया तो उन्होंने बहुत रिसर्च की. एक औरत इन्हें मिली तो इन्हें लगा कि मुझे ऐसा ही दिखना चाहिए, तो ये बहुत दिन तक घर में वैसे कपड़े पहनकर रहती थीं. मैं आज तक वैसे ही करती हूं. जब मैं मकड़ी कर रही थी तो एक फुट का ऊंचा जूता पहनकर घर में घूमती थी, क्योंकि मुझे जूतों में कं$फर्टबेल होना था. जादू (जावेद अख्तर) कहते थे कि कभी मुझे लगता है कि मेरी एक स्लम डेवलपर से शादी हुई है, कभी किसी चुड़ैल से तो कभी किसी रानी से हुई है. तो मैं उनसे कहती हूं कि अच्छा है तुम्हारी शादी इतनी अलग-अलग औरतों से हुई है (ठहाका मारकर हंसती हैं). एक्टिंग में कैरेक्टर को किस तरह से डेवलप करते हैं, यह ऑब्ज़र्व करना मैंने मां से सीखा है.’’
शबाना ने अच्छा साथी होने का गुण मम्मी से सीखा ज़रूर, लेकिन वे अपनी मम्मी जैसी वाइ$फ नहीं बन सकीं. वे स्वयं कहती हैं, ‘‘मैं मम्मी जैसी वाइ$फ नहीं बन पाई हूं.’’ शबाना बताती हैं कि मैंने अब्बा से पूछा था कि मम्मी की सबसे अच्छी बात आपको क्या लगती है, तो उन्होंने कहा था कि वो साथी बहुत अच्छी हैं. परफेक्ट वाइ$फ. अच्छी मैरिज में क्या होना चाहिए..ये सब मुझे विरसे में मिले हैं.’’ शो मस्ट गो ऑन.. का फलस$फा भी उन्होंने अपनी मम्मी से सीखा है. शबाना कहती हैं, ‘‘मैंने मम्मी से सीखा है कि कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, लेकिन अगर शो की घोषणा हो चुकी है तो शो मस्ट गो ऑन..’’ गौरतलब है कि हाल में शबाना आज़मी ने पैर में चोट के बावजूद ब्रोकेन इमेजज नाटक का मंचन किया. बाद में उन्हें पता चला कि पैर में छह फ्रैक्चर हो गए हैं.
सुना था कि मां की सबसे अच्छी सहेली बेटी और बेटी की सबसे अजीज दोस्त मां होती है, लेकिन शौकत-शबाना के रूप में इस सच से मेरा परिचय हुआ. शौकत आज़मी कहती हैं, ‘‘कै$फी के इंतकाल (२००२)के बाद मुझे बहुत तकली$फ हुई थी. ५३ साल का हमारा साथ था. मैं अकेली रहती थी, हमेशा रोती रहती थी. ये बच्ची मुझे अपने पास लेकर आ गई और उस वक्त से मैं इसके साथ हूं. मेरी बेटी अपनी दोनों हथेली पर रखती है मुझे. मेरी तबियत ज़रा भी $खराब हो जाए तो वो परेशान हो जाती है. मैं ज़्यादा तारी$फ नहीं करना चाहती, नहीं नज़र लग जाएगी.’’ शबाना आज़मी कहती हैं, मम्मी मेरा कां$िफडेंस हैं. मुझे अगर जि़ंदगी, रिश्तों, शादी के बारे में कोई प्राब्लम है तो मैं सिर्फ अपनी मां से डिस्कस करती हूं और उनकी विजडम में य$कीन करती हूं.’’
काबिले जि़क्र है कि शबाना आज़मी के अभिनय में आने के पीछे उनकी मम्मी की $खास भूमिका है. यदि उन्होंने कै$फी आज़मी को राज़ी नहीं किया होता तो शायद शबाना अभिनेत्री न बन पातीं. शौकत आज़मी ने बताया, ‘‘कै$फी फिल्मों में शबाना का काम करना पसंद नहीं करते थे. उसने कै $फी से कहा कि वह टीचर बनकर एक्टिंग सिखाऊंगी. वह इंस्टीट्यूट में जाना चाहती हूं. मैं एक्ट्रेस थी. मैंने कै$फी से कहा कि एक्टिंग बुरी चीज़ नहीं है. उसे करने दो. फिर कै$फी ने हामी भरी. दरअसल, कै$फी $िफल्मों में गाने लिखते थे. वे सेट पर डायरेक्टर से मिलने जाते थे. वो देखते थे कि $िफल्मों में कैसी-कैसी हरकतें होती थीं. वो नहीं चाहते थे कि उनकी बच्ची वो सब करे. लेकिन जब शबाना ने फिल्मों में काम करना शुरू किया तो वे $खुश हुए, क्योंकि शबाना ने कोई ऐसी हरकत नहीं की, जो बुरी समझी जाए.’’ शबाना की अंकुर और मॉर्निंग रागा उनकी मम्मी की पसंदीदा फिल्में हैं. शौकत अपनी बेटी को कमर्शियल फिल्मों की बजाए आर्ट फिल्मों में देखना ज्यादा पसंद करती हैं. ‘‘मुझे शबाना की आर्ट फिल्में पसंद हैं क्योंकि उसमें रियलिटी होती है. जिंदगी का पूरा अर्थ उस फिल्म से मिलता है. कमर्शियल तो झूठ है.’’
फिल्म, राजनीति और समाजसेवा के क्षेत्र में शबाना आजमी की उपलब्धियां अनगिनत हैं. इसके बावजूद क्या उन्हें जिंदगी में कोई कार्य न कर पाने या किसी चीज़ के छूट जाने का मलाल है? जवाब में शबाना कहती हैं, ‘‘मुझे दो चीजों का अ$फसोस है. एक कि मैंने पियानो नहीं सीखा और दूसरा कि मैं खाना बनाना नहीं सीख सकी.’’ वे आगे कहती हैं, ‘‘मैं सही व$क्त पर सही जगह रही. जब मैं फिल्मों में आई तो पैरलल सिनेमा की शुरूआत हुई जिसकी वजह से मुझे बेहतरीन रोल मिले. उसके बाद इंटरनैशनल सिनेमा में बहुत बड़े रोल मुझे मिले. अब मैं ऐसे माहौल में हूं जहां उम्र कोई बंदिश नहीं रखती. शुरू में मेरे घर में इतना पॉलिटिक्स डिस्कस होता था कि मैं कान में रूइयां डाल लेती थी. लेकिन अब्बा को यकीन था कि मिट्टी गीली है कि अंकुर तो फूटेगा ही. उन्हें यकीन था कि मैं इस ओर जाऊंगी. अब अब्बा का काम मैं आगे लेकर जा रही हूं.’’
मम्मी शौकत आज़मी, पति जावेद अ$ख्तर, बच्चों फरहान और ज़ोया अ$ख्तर तथा उनके परिवार के संग शबाना खुशहाल जि़ंदगी गुज़ार रही हैं. फिल्म निर्माण, निर्देशन, अभिनय, गायन क्षेत्र में फरहान अ$ख्तर और ज़ोया की सफलता से वे बेइंतहा खुश हैं. ‘‘दोनों बच्चों की कामयाबी से हम खुश हैं. दोनों की अच्छी बात मुझे यह लगती है कि वे कामयाबी से पागलों की तरह खुश नहीं होते और नाकामयाबी से निराश नहीं होते.’’ शबाना की बात पर शौकत आज़मी सहमति जताती हैं. कै$फी आज़मी द्वारा आज़मगढ़ में स्थापित एनजीओ मिजवां वेलफेयर सोसायटी के कार्यों को फरहान और ज़ोया द्वारा आगे बढ़ाने के बाबत पूछने पर शबाना कहती हैं, ‘‘दोनों का गांव से कोई ताल्लुक नहीं है. लेकिन दोनों मिजवां के लिए काम करते रहते हैं. दोनों बच्चे सोशली कांशियस हैं, मगर उनके कंसर्न दूसरे हैं. उनके कंसर्न बच्चों और इनवायरमेंट को लेकर हैं. मैं खुश हूं.’’
शबाना के अभिनय के स्तर को छू पाना किसी भी अभिनेत्री के लिए टेढ़ी खीर है. क्या शबाना मौजूदा दौर की अभिनेत्रियों में किसी को अपने आस-पास पाती हैं? ‘‘मुझे तब्बू, कोंकणा, विद्या बालन, शहाना गोस्वामी और करीना कपूर बहुत अच्छी लगती हैं. हमारे पास बहुत टैलेंटेड लडक़े-लड़कियां हैं.’’ सुनने में आया है कि प्रतीक बब्बर शबाना आजमी को अपनी मां स्वरूप मानते हैं. इस रिश्ते के बारे में शबाना कहती हैं, ‘‘ऐसा बिल्कुल नहीं है. शुरू में जब प्रतीक जरा सा लॉस था, तो स्मिता की बहन मान्या ने प्रतीक को मेरे पास भेजा कि जस्ट हेल्प हिम. जाने तू या जाने ना रिलीज नहीं हुई थी. अभी तो बहुत दिनों से वह मुझे मिला नहीं है. उसकी शक्ल बहुत अच्छी है, बहुत टैलेंट है उसमें. वह आगे बढ़ेगा. मैंने थोड़ा सा उसकी हेल्प की.’’
शबाना आजमी की जि़ंदगी निसंदेह प्रेरणादायक है. उम्मीद करते हैं कि वे अपनी जि़ंदगी को आत्मकथा के रूप में एक दिन वे जहां के समक्ष ज़रूर पेश करेंगी. शबाना कहती हैं, ‘‘बहुत लोग कहते हैं मुझसे, लेकिन मैं मशरू$फ बहुत ज़्यादा हूं.’’ शबाना आज़मी की मम्मी शौकत आज़मी मुकम्मल यकीन के साथ कहती हैं कि एक ज़माना आएगा जब शबाना आत्मकथा लिखेगी. जिससे लोगों को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा.
Monday, April 23, 2012
Thursday, April 19, 2012
प्रतीक के जीवन के सबसे खास महिला से मिलिए
प्रतीक की दुनिया अपनी नानी विद्या पाटिल से शुरू होती है और उन्हीं पर खत्म हो जाती है. वे नानी को मां कहते हैं. मां-बेटे इस अनूठे रिश्ते की गहराई में उतरने का प्रयास कर रहे हैं रघुवेन्द्र सिंह.
प्रतीक सोलह दिन के थे, जब उनकी मां स्मिता पाटिल ने उन्हें अपनी मां विद्या पाटिल के सुपुर्द किया और दुनिया को अलविदा कह गईं. विद्या तीन बेटियों की परवरिश और उनकी शादी के पश्चात औपचारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुकी थीं. वे नाती के साथ बुढ़ापे का सुख लेने का इंतजार कर रही थीं, लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और तय कर रखा था. अचानक एक बार फिर विद्या पर मां की जिम्मेदारी आ गई. विद्या पाटिल कहती हैं, ‘‘मां की कमी को मैं पूरा तो नहीं कर सकती थी, लेकिन स्मिता ने मुझे जो जिम्मेदारी दी थी, मैं उसे सौ क्या, दो सौ प्रतिशत अच्छी तरह से निभाना चाहती थी.’’
प्रतीक की परवरिश में विद्या पाटिल को बेटी को खोने का गम भुलाने का बहाना मिल गया. वे अपना सारा समय प्रतीक के साथ गुजारती थीं. उन्होंने प्रतीक को बड़े लाड-प्यार से पाला है. वे बताती हैं,‘‘मराठी में अनाहुद बोलते हैं यानी मालूम नहीं होता, एक अंजाना सा डर हमेशा रहता था. मुझे डर लगा रहता था कि कोई प्रतीक को उठाकर न ले जाए, उसे कुछ हो न जाए. मुंबई में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं न. मैंने कभी उसे अपने से दूर नहीं छोड़ा.’’ मां के बगल में बैठे प्रतीक शांतिपूर्वक बड़े गौर से सारी बातें सुन रहे हैं.
प्रतीक के बचपन का जिक्र आता है और माहौल खुशनुमा बन जाता है. दरअसल, प्रतीक बचपन में बहुत नटखट थे. उन्होंने अपनी बाइक से घर की सीढिय़ां और कुछ कोने तोड़े हैं और बल्ले से कांच का बंटाधार किया है. प्रतीक की दूसरी मासूम शरारतों के बारे में विद्या हंसते हुए कहती हैं, ‘‘घर में कहीं छुपकर बैठ जाता था और फिर किसी से कहता था कि जाकर मां से बोलो कि मुझे ढूंढें. किसी कबर्ड में छुप जाता था, बाथरुम में छुप जाता था. ये मेरे साथ किचन में रहता था. मैंने इसके लिए चौकी-बेलन खरीद दिया था. ये बैठकर रोटी बनाता था.’’ प्रतीक की शरारतों को याद करते-करते अचानक उन्हें बेटी की याद आ जाती है. ‘‘यह सब देखकर मुझे कभी-कभी रोना आता था. उसकी शरारतें देखने के लिए उसकी मां नहीं थी.’’
प्रतीक जिद्दी भी बहुत थे. उन्हें क्रिकेट खेलने का शौक आठ साल की उम्र में लग गया था. नाना जब कभी विदेश जाते तो वे उनसे बल्ला लाने की जिद करते थे. विद्या बताती हैं कि क्रिकेट के लिए यह पागल रहता था. घर में आठ-दस बैट पड़े हैं. प्रतीक बीच में बोल पड़ते हैं, ‘‘मैं घर में भी क्रिकेट खेलता था. कभी-कभी तो सीजन बॉल से खेलता था.’’ प्रतीक की मां ने चार साल की उम्र में उनका एडमिशन कराटे की क्लास में करवाया. फिर हारमोनियम सीखने के लिए भेजा, लेकिन प्रतीक का मन कहीं नहीं लगा. विद्या कहती हैं, ‘‘इसका मन बहुत जल्दी किसी चीज से हट जाता है. मुझे नाम याद नहीं है, लेकिन मैंने इसे बारह चीजों की क्लास में भेजा. मगर यह कहीं टिका नहीं.’’
प्रतीक को उनकी मां प्यार से चिमनी (चिडिय़ा), छोटी चिमनी, चू और पिटलू बुलाती हैं. इसके पीछे की वजह पूछने पर विद्या हंसती हैं, ‘‘यह छोटी चिडिय़ा की तरह हमेशा चू-चू करता रहता था.’’ अपने इन सीक्रेट नाम का खुलासा होते देख प्रतीक शरमा जाते हैं. उनकी बड़ी मौसी अनीता गुजारिश करती हैं कि इन नामों के बारे में न लिखें. प्रतीक का मन पढ़ाई में कभी नहीं लगा, लेकिन वे खेलकूद में खूब रुचि लेते थे. प्रतीक बचाव के लहजे में कहते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है कि मुझे पढ़ाई बिल्कुल पसंद नहीं थी, लेकिन मैं बोर जल्दी हो जाता था. स्पोट्र्स में मेरा ज्यादा इंट्रेस्ट था. मैं स्कूल के सभी कैंप्स में जाता था.’’
प्रतीक के एक और राज का खुलासा उनकी मां ने इस बातचीत में किया. उन्होंने बताया कि प्रतीक बचपन से ही लड़कियों से बहुत शर्माता है. उनके शब्दों में, ‘‘लडक़ी देखी नहीं कि यह छुप जाता था. मालूम नहीं क्यों? कितने लडक़े लड़कियां देखकर उनसे चिपक जाते हैं, लेकिन ये जब लड़कियां इसके साथ खेलने के लिए आती थीं, तो बाथरुम में छुप जाता था.’’ इसका कारण पूछने पर बगल में बैठे प्रतीक शरमा जाते हैं. ‘‘मैं आज भी लड़कियों से शर्माता हूं. उनकी अटेंशन से मैं अजीब सा हो जाता हूं. जैसे हाल में मैं एक प्रमोशन के लिए गया था. एक लडक़ी ने आकर सीधे चेहरे पर पूछ लिया कि क्या आप सिंगल हो? क्या आपको गर्लफ्रेंड चाहिए? मुझ बहुत शर्म आती है इन चीजों से.’’
विद्या पाटिल ने कभी इस बात का प्रचार नहीं किया कि प्रतीक स्मिता पाटिल के बेटे हैं. वे कहती हैं, ‘‘हम कभी किसी से नहीं बोलते थे कि ये स्मिता पाटिल का बेटा है. नई जेनरेशन को मालूम भी नहीं है कि स्मिता पाटिल कौन है? वैसे भी हमें ढिंढोरा पीटना पसंद नहीं है. हम बहुत सरल लोग हैं.’’ प्रतीक का कहना है कि स्कूल में कभी-कभी लोग आकर मम्मी-पापा के बारे में पूछते थे. लेकिन कभी किसी ने मुझे स्पेशल अटेंशन नहीं दी कि ये फलां सेलीब्रिटी का बेटा है.
प्रतीक ने किसी तरह बारहवीं की पढ़ाई पूरी की. उसके बाद आगे की पढ़ाई करने से उन्होंने मना कर दिया. विद्या कहती हैं, ‘‘बारहवीं करके इसने मेरे ऊपर मेहरबानी की. मैंने चैन की सांस ली जब इसने बारहवीं की पढ़ाई पूरी की.’’ प्रतीक एक दिन अभिनेता बनेंगे, इसका अंदाजा उनकी मां को भी नहीं था. उनकी क्रिकेट में गहरी रुचि थी. अनुमान लगाया जा रहा था कि वे क्रिकेट में करियर बनाएंगे, लेकिन कुछ वक्त के बाद क्रिकेट से भी प्रतीक का मन हट गया. बकौल प्रतीक, ‘‘बारहवीं तक मैंने क्रिकेट की कोचिंग सीरियसली ली थी, लेकिन बाद में मैं दोस्तों के साथ ज्यादा बाहर जाने लगा. मस्ती ज्यादा होने लगी और क्रिकेट छूट गया.’’
विद्या पाटिल की ख्वाहिश थी कि प्रतीक अभिनय में जाएं. उन्होंने उनका एडमिशन सुभाष घई के एक्टिंग स्कूल व्हिसलिंगवुड में करवाया, लेकिन वहां दो महीने में प्रतीक ने एक बार अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी. फलस्वरुप उन्हें एक्टिंग स्कूल से निकाल दिया गया. विद्या पाटिल बताती हैं, ‘‘इसकी मां इतनी बड़ी एक्ट्रेस थीं तो मैं सोचती थी कि ये उस लाइन में जाए. लेकिन ये कहीं टिकता ही नहीं था. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं इसका क्या करुं. प्रहलाद हमारे पुराने मित्र हैं. स्मिता के अच्छे दोस्त थे. मैंने प्रतीक को उनके पास भेजा. प्रहलाद ने पहले ही दिन ऑफिस में सभी लडक़े-लड़कियों के सामने बोला कि जाओ और संडास साफ करो. इसने साफ किया, लेकिन शाम को रोते हुए मेरे पास आया. मैंने इसे समझाया कि किसी भी काम को छोटा नहीं समझना चाहिए.’’
प्रतीक के करियर को लेकर विद्या पाटिल की फिक्र तब कम हुई, जब प्रहलाद के ऑफिस से अब्बास टायरवाला की पत्नी पाखी ने प्रतीक को जाने तू या जाने ना फिल्म के लिए चुना. विद्या बताती हैं, ‘‘प्रतीक घर आया और बोला कि मां, मैं शूटिंग के लिए अलीबाग जा रहा हूं. आमिर खान के प्रोडक्शन की फिल्म है. सच्ची बोलूं तो मुझे मालूम नहीं था कि आमिर खान कौन है. मैं सिनेमा देखती नहीं ना. हमारा फिल्म लाइन से कोई संबंध नहीं है.’’ स्मिता पाटिल की मां अगर यह कहें कि उनका फिल्म लाइन से कोई ताल्लुक नहीं तो चौंकना लाजमी है. उन्होंने बताया कि हमारी पॉलिटिकल-सोशल लाइफ रही है. इंडस्ट्री से स्मिता का संबंध था. मैं न तो कभी स्मिता के फिल्म के सेट पर गई और न ही प्रतीक के.
जाने तू या जाने ना फिल्म प्रतीक ने मौज-मस्ती करने के लिहाज से साइन की थी, लेकिन उसके उत्साहजनक रिस्पांस ने उन्हें अभिनय के बारे में गंभीरता से सोचने के लिए विवश कर दिया. प्रतीक बताते हैं, ‘‘मैंने सोचा कि छोटा सा रोल है, थोड़ा सा डायलॉग है, बोलकर आ जाऊंगा. लीड रोल क्या होता है, हीरोइन क्या होती है, बड़ा बैनर क्या होता है, पॉलिटिक्स क्या होती है, मुझे कुछ नहीं मालूम था. मुझे पता था कि वहां स्विमिंग पूल है. वहां जाऊंगा और खूब स्विमिंग करुंगा. मैं शूट करके वापस मुंबई आया और वापस अपनी जिंदगी जीने लगा.’’
विद्या पाटिल लाडले बेटे की लाइफ के उस सबसे खूबसूरत पल, जिसे टर्निंग प्वाइंट कहा जा सकता है, को आज भी नहीं भूली हैं. वे जाने तू या जाने ना फिल्म के प्रीमियर पर गई थीं. विद्या उत्साह पूर्वक उस पल को याद करती हैं, ‘‘मैं प्रतीक को स्क्रीन पर देखकर खुशी के मारे जोर-जोर से हंसने लगी. सच कहूं तो फिल्म देखते समय मुझे हर क्षण पर स्मिता की याद आ रही थी. मैंने मन में ही बोला कि बस, अब प्रतीक को लाइन मिल गई. मेरी सारी चिंता खत्म हो गई कि यह क्या करेगा.’’ विद्या आगे कहती हैं, ‘‘इसकी मां के साथ भी ऐसा ही हुआ था. पहले श्याम बेनेगल को लगा कि वह एक्टिंग कर सकती है. उसके बाद हमें पता चला. प्रतीक के मामले में पहले पाखी को लगा कि यह एक्टिंग कर सकता है. फिर हमें इसका एहसास हुआ. मेरी खुशकिस्मती की पाखी आईं. मुझे अक्ल आई कि इसे प्रहलाद के पास भेजा. हमारी फैमिली का लक था या इसकी मां ने इसे बुद्धि दी, जो भी था, लेकिन इसका एक्टिंग में आना लिखा था.’’
प्रतीक के सहज अभिनय की सराहना हर कोई करता है. विद्या मानती हैं कि प्रतीक के अभिनय में स्मिता पाटिल जैसी सहजता है. वे कहती हैं, ‘‘उसकी मां की सारी चीजें इसमें हैं. यह नैचुरल काम करता है. प्रतीक नसीब वाला है. इसे अच्छे डायरेक्टर मिले हैं. अब इसको मेहनत करनी होगी और बहुत आगे जाना होगा. मैं इससे कहती हूं कि मेहनत करो, टाइम से सेट पर जाओ. भाषा पर मेहनत करो. इसकी मां को आठ-दस भाषाएं आती थीं.’’ प्रतीक अपनी मां की यह बातें गौर से सुनने के बाद कहते हैं, ‘‘मुझमें कमियां हैं, लेकिन मैं मेहनत करुंगा. मां कहती हैं कि धक्का लगेगा तब सीखूंगा. मुझे लंबी रेस का घोड़ा बनना है.’’
प्रतीक और उनकी मां के बीच कुछ बातों को लेकर अक्सर बहस होती है, लेकिन उनका हल आज तक नहीं निकल पाया है. विद्या कहती हैं कि उनके बारे में प्रतीक ही बताए तो अच्छा है. प्रतीक बताते हैं, ‘‘मेहनत करो, टाइम पर खाना खाओ, क्या खाना खाया, सिगरेट पीना बंद करो, गाड़ी धीरे चलाया करो, दुनियादारी सीखो.’’ इस फेहरिस्त के बाद प्रतीक की मां ने कहा, ‘‘इसे दुनियादारी की बिल्कुल नहीं समझ है. इसका कोई भी दोस्त इससे मीठी बात करता है और ये उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है. ये बच्चा समझता नहीं है कुछ. बहुत सिंपल है.’’ और वे एक वाकया बताती हैं, ‘‘एक दिन ये ढेर सारे कपड़े लेकर घर आया. मैंने पूछा कि इतने कपड़े क्या होंगे? इनका बिल कहां है? इसने कहा कि पैसे नहीं देने हैं. मैंने इससे कहा कि किसी ने दुकान ऐसे लुटाने के लिए नहीं खोली है. और एक साल बाद उन कपड़ों का लंबा सा बिल आया. मुझे झक मारकर पैसे देने पड़े.’’
प्रतीक के स्वभाव में यह बात स्मिता पाटिल से आई है. वे भी बिल्कुल सहज और सरल इंसान थीं. वे भी दुनियादारी से अंजान थीं. प्रतीक कहते हैं कि मां ने मुझे बताया है कि वे बहुत सच्ची इंसान थीं. हर चीज दिल से करती हैं. पता नहीं वह चीज मुझमें है कि नहीं, लेकिन उनके बारे में ऐसी बातें सुनकर अच्छा लगता है मुझे. विद्या पाटिल ने प्रतीक को स्मिता पाटिल की फिल्में नहीं दिखाई हैं. वे बताती हैं, ‘‘मैंने कभी प्रतीक को स्मिता की फिल्म नहीं दिखाई. क्या होता था कि उसकी फिल्म देखते हुए मुझे बहुत रोना आता था तो इसे ठीक नहीं लगता था. यह उठकर चला जाता था. मैंने कभी प्रतीक से नहीं कहा कि तू बैठ और उसकी फिल्म देख.’’
मां में प्रतीक की जान बसती है. वे उनके बिना अपनी कल्पना नहीं कर पाते हैं. प्रतीक कहते हैं, ‘‘मैंने मां से कह रखा है कि जब तक मैं बूढ़ा नहीं हो जाता, तब तक आपको मेरे साथ रहना है. अगर आपने मुझे छोड़ा तो मैं काम छोड़ दूंगा और शादी भी नहीं करुंगा. अगर मैं इन्हें देखूं नहीं और इनकी आवाज न सुनूं तो मेरे मन में बेचैनी सी होती है.’’ प्रतीक की यह बातें सुनकर विद्या पाटिल भावुक हो जाती हैं. उन्होंने प्रतीक की पीठ पर हाथ फेरते हुए भर्रायी आवाज में कहा, ‘‘पागल है ये. मैं बस यही चाहती हूं कि मेरे रहते हुए यह नाम कमा ले. उस दिन मैं समझूंगी कि मेरी परवरिश अच्छी रही. और मुझे पक्का यकीन है कि यह एक दिन नाम जरुर कमाएगा.’’
प्रतीक हाल में अपने नए घर में शिफ्ट हुए हैं. वह बांद्रा में ही मां के घर से पांच मिनट की दूरी पर स्थित है. आजकल वे उसकी इंटीरियर डेकोरेशन में बिजी हैं. उसी काम के सिलसिले में उन्होंने हमेशा विदा ली और बड़ी मौसी के साथ रवाना हो गए. उनके रुखसत होने के बाद उनकी मां ने कहा, ‘‘उसके सामने मैं नहीं बोल सकती थी, लेकिन मेरी जिंदगी का अब क्या भरोसा है. मेरी दोनों लंगस का ऑपरेशन हो चुका है. मैं ऑक्सीजन पर रहती हूं. मैं बस उसका नाम होते हुए देखना चाहती हूं. मैं चाहती हूं कि वह जल्द से जल्द दुनियादारी सीख जाए.’’
स्मिता पाटिल के बाद अब प्रतीक के रुप में विद्या पाटिल ने हिंदुस्तानी सिनेमा में जो योगदान दिया है, उसके लिए हिंदी सिनेमा उनका सदैव आभारी रहेगा.
Monday, April 16, 2012
दिलीप साब! आप चिरायु हों- अमिताभ बच्चन
जन्मदिन विशेष
हिंदी सिनेमा के महानतम अभिनेता दिलीप कुमार को सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के रुप में एक प्रिय प्रशंसक प्राप्त हैं. दिलीप कुमार को अमिताभ बच्चन अपना आदर्श मानते हैं. 11 दिसंबर को दिलीप कुमार जीवन के 89 बसंत पूरे कर रहे हैं. इस विशेष अवसर पर अमिताभ बच्चन के साथ दिलीप कुमार के बारे में रघुवेन्द्र सिंह ने बातचीत की. अमिताभ बच्चन के शब्दों में उस बातचीत को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है.
मेरे आदर्श हैं दिलीप साहब
दिलीप साहब को मैंने कला के क्षेत्र में हमेशा अपना आदर्श माना है, क्योंकि मैं ऐसा मानता हूं कि उनकी जो अदाकारी रही है, उनकी जो फिल्में रही हैं, जिनमें उन्होंने काम किया है, वो सब सराहनीय हैं. मैंने हमेशा उनके काम को पसंद किया है. बचपन में जब मैं उनकी फिल्में देखा करता था, तबसे उनका एक प्रशंसक रहा हूं. मुझे उनकी सभी फिल्में पसंद हैं, लेकिन गंगा जमुना बहुत ज्यादा पसंद आई थी. जब भी मैं दिलीप साहब को देखता हूं तो मैं ऐसा मानता हूं कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में अगर कला को लेकर, अदाकारी को लेकर, जब कभी इतिहास लिखा जाएगा तो यदि किसी युग या दशक का वर्णन होगा तो लोग कहेंगे कि ये ‘‘दिलीप साहब के पहले की बात है, या उनके बाद की.’’ वो अदाकारी के एक मापदंड बन गए हैं.
ताजा है पहली मुलाकात की याद
तब मैं फिल्म इंडस्ट्री में नहीं था. एक व्यक्तिगत छुट्टी मनाने के लिए परिवार के साथ मैं मुंबई आया था. यहां हमारे जो मित्र थे, वो एक शाम को हमें एक रेस्टोरेंट में ले गए और वहां पर दिलीप साहब आए. वहां मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई. मैं उनका ऑटोग्राफ चाहता था. मैं पास की स्टेशनरी शॉप में कॉपी खरीदने के लिए भागा. जब वापस आया, तो देखा कि वे व्यस्त थे. उस समय उन्होंने मुझे ऑटोग्राफ दिया नहीं. मैं थोड़ा निराश हुआ. फिल्मों में आने के बाद उनसे मेरी पहली मुलाकात किसी के घर पर दावत में हुई थी और फिर अचानक एक दिन मुझे उनके साथ शक्ति फिल्म में काम करने का अवसर मिला.
मुश्किल था उनका विरोध करना
शक्ति सलीम-जावेद साहब की कहानी थी. रमेश सिप्पी उस फिल्म के निर्देशक थे. सलीम-जावेद ने कहा कि यह एक अच्छी कहानी है, इसे बनाना चाहिए. दिलीप साहब होंगे, आप होंगे और रमेश सिप्पी साहब. जाहिर है कि जब आप दिलीप साहब जैसे बड़े कलाकार के साथ काम करेंगे तो काफी डर रहता है. हालांकि अभिनय में मुझे कई वर्ष बीत चुके थे. फिर भी जिस शक्स को आपने इतना सराहा है, अपना आदर्श माना है, अगर वो अचानक आपके सामने आकर खड़े हो जाएं तो डर लगता है. और शक्ति में जिस तरह की हमारी भूमिका थी कि मैं थोड़ा सा विरोधी हूं उनके सामने, वो भी एक कठिन चीज थी मेरे लिए क्योंकि आप जिसको इतना चाहते हैं, उनका विरोध कैसे कर सकते हैं? मुश्किल था मेरे लिए, लेकिन काम करते हुए बहुत अच्छा लगा. मैंने उनका काम करने का तरीका देखा. वे हर एक बात को, हर एक चीज को, बार-बार समझना, उसकी बारीकियों में जाना और जब तक वह एक दम सही न हो जाएं, तब तक प्रयास करते रहना, वह सब मैंने देखा.
डेथ सीन करने की चुनौती
शक्ति का क्लाइमेक्स सीन हमने यहीं एयरपोर्ट पर किया था. डेथ सीन किसी कलाकार के लिए आम तौर पर बड़ा मुश्किल समय होता है कि कैसे किया जाए. और इतने सारे डेथ सीन हमने कर लिए थे. शोले में, दीवार में, मुकद्दर का सिकंदर में, तो हमेशा मन के अंदर एक विडंबना बनी रहती है कि डेथ सीन को कैसे करें कि नयापन आए. तो दिलीप साहब के साथ विचार-विमर्श किया वहीं पर और फिर उसी तरह किया जैसा कि आपने फिल्म में देखा है. मैं दाद देना चाहूंगा दिलीप साहब की क्योंकि उन्होंने उस सीन में एक शब्द नहीं कहा, क्योंकि वे जानते थे कि एक कलाकार के लिए वह समय बड़ा आवश्यक होता है कि वह कांसंट्रेट करे.
कलाकार की इज्जत करना उनसे सीखें
मैंने जितनी बार भी दिलीप साहब से कहा कि मैं रिहर्स करना चाहता हूं और मैंने कहा कि मैं किसी डुप्लीकेट के साथ कर लेता हूं तो उन्होंने कहा कि नहीं. उन्होंने मेरा पूरा सहयोग दिया. और उन्होंने कभी एक आवाज भी नहीं निकाली, जब मैं काम कर रहा था या मुझे याद है जो उन्होंने बीच में इधर-उधर की कुछ बात की हो. मुझे याद है जब मैं वह सीन रिहर्स कर रहा था, तो पीछे प्रोडक्शन के लोग काम कर रहे थे, ऊंची आवाज में वो कुछ बात कर रहे थे, तो दिलीप साहब ने उन्हें डांट दिया कि चुप रहिए आप. आप कलाकार की इज्जत नहीं करते हैं. देख नहीं रहे हैं आप. तो मुझे बड़ा अच्छा लगा यह देखकर कि अन्य कलाकारों के लिए भी उनके मन में इतनी इज्जत थी.
जब तीन बजे रात को पहुंच गए दिलीप साहब के घर
कई बार हम उनके घर रात-बिरात पहुंच जाते थे. और हमेशा वह बड़े ही दयालु और कहा जाए कि बहुत ही स्वागतमंद रहे. मुझे याद है. एक शाम सलीम साहब, जावेद साहब और हम अपने घर में बैठे हुए थे. ऐसे ही बातचीत चल रही थी. और बातचीत करते-करते तकरीबन रात के एक-दो बज गए. तो मैंने उन लोगों सेे कहा कि चलिए मैं आप लोगों को घर छोड़ देता हूं. रास्ते में जाते-जाते उन्होंने कहा कि यार, दिलीप साहब से मिलने का बड़ा मन कर रहा है. मैंने कहा अरे भई, रात के दो-तीन बज रहे हैं. कहां जाएंगे? तो उन्होंने कहा कि चलिए चलते हैं. देखते हैं कि क्या होता है. हम तीनों रात के तकरीबन तीन बजे उनके घर में चले गए. वो सो रहे थे. वो उठकर के आए. और एक-डेढ़ घंटे हमारे साथ बैठे रहे और बातें करते रहे. इतना उनका अनुभव है, इतनी कहानियां हैं जीवन की कि किस तरह से किसने क्या किया, कौन सा रोल कैसे हुआ, फिल्म के अलावा भी उनके पास इतनी जानकारी है कि उनको बैठकर सुनने में ही बड़ा आनंद मिलता है. हम लोग काफी देर तक बतियाते रहे. ये सेवेंटीज-एटीज की बात है.
टीवी व विज्ञापन में मेरा काम करना उन्हें पसंद नहीं
नई जेनरेशन के बारे में उन्होंने कभी मुझसे कोई जिज्ञासा प्रकट नहीं की. यदा-कदा मैं उनके इंटरव्यूज पढ़ता रहता हूं जिसके द्वारा पता चलता है कि वो क्या सोचते हैं. मेरे खयाल में उनके मन में यह बात है कि एक कलाकार को अदाकारी के साथ ही अपना संबंध रखना चाहिए. जब मैंने टेलीविजन में काम किया या जब मैंने इंडोर्समेंट किए तो शायद उनको पसंद नहीं आया. पसंद मतलब.. वो कहते थे कि तुम ये सब क्यों करते हो? अदाकारी ही किया करो. लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई हैं. अभी हाल ही में उनसे प्राण साहब के जन्मदिन पर मुलाकात हुई थी और हाल ही में कौन बनेगा करोड़पति में दिलीप साहब के ऊपर एक प्रश्न आया तो मैंने उनके बारे में कुछ बातें की. उसके बारे में उन्हें सायरा जी के जरिए पता चला तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुम उस एपीसोड की डीवीडी भेजो, मैं देखना चाहता हूं कि तुमने मेरे बारे में क्या कहा.
सबकी प्रेरणा हैं दिलीप साहब
मैं दिलीप साहब के अभिनय को मिस करता हूं. मैं ऐसा मानता हूं कि उन्होंने एक नए युग की शुरुआत की. अगर हमारा भारतीय सिनेमा का इतिहास युगों में बांटा जाएगा तो निश्चित ही दिलीप साब का जो युग था, उसका ऐसे ही वर्णन होगा कि ये दिलीप साहब से पहले की बात है और ये दिलीप साहब के बाद की बात है. कला के क्षेत्र में हम सब लोग प्रेरित होते हैं और ये विश्व भर की बात है. जितने भी लोग कला से संबंध रखते हैं, चाहे वो कवि हों, पेंटिंग करते हों, चाहे मॉडलिंग करते हों, कुछ भी करते हों, कहीं न कहीं से उनको प्रेरणा मिलती है. तो उनको देख करके ही, इतना ही हमारे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है कि हम दिलीप साहब को देखकर ही इंस्पायर होते हैं. मेरे लिए तो यही सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि मुझे दिलीप साहब के साथ काम करने का अवसर मिला. और वो क्षण मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा. उनके साथ हमारा लगाव निरंतर रहा है, बल्कि अभी दो दिन पहले ही उनसे एसएमएस पर मेरी बातचीत हुई. हर साल वो मुझे जन्मदिन पर बधाई देते हैं और मैं उन्हें जन्मदिन पर बधाई देता हूं. कई दिनों से वह अस्वस्थ हैं. मैं उनसे कह रहा था कि आप मेरी फिल्म पा देखिए तो उन्होंने कहा कि मैं जरुर देखूंगा. सायरा जी से मेरी बातचीत होती रहती है और मैं अभी उनसे मिलने भी जाऊंगा.
दिलीप साहब का व्यक्तित्व
मेरे खयाल से लोगों के मन में ये एक अजीब सी धारणा है कि क्योंकि कलाकार है और वह स्टार है तो उसका जो व्यक्तित्व है या उसका स्वभाव है, वह अलग तरीके का होगा. हमारे मन के अंदर ऐसी कोई धारणा नहीं है. हम लोग आम आदमी की तरह हैं. आम आदमी की तरह काम करते हैं और हमारे साथ जो काम करेगा, उसके साथ मिल-जुलकर ही काम करेंगे. ऐसा मान लेना कि मैं एक स्टार हूं तो मैं जब चलूं तो लोग बैठ जाएं और जब मैं खड़ा होऊं तो सब लोग झुक जाएं, ऐसा कुछ वातावरण होता नहीं है. हम सब आम इंसान हैं. दिलीप साब का व्यक्तित्व ऐसा ही है. काम के प्रति लगन होनी चाहिए और अपने परफॉर्मेंस को हम जितना नैचुरली कर सकें, वह कोशिश करनी चाहिए. दिलीप साहब बहुत ही नैचुरल एक्टर हैं. देखकर लगता नहीं कि वे अदाकारी कर रहे हैं. ऐसा ही काम करने की हम भी उनसे प्रेरणा लेते हैं.
दुख है कि गंगा जमुना के लिए उन्हें पुरस्कार नहीं मिला
उन्हें गंगा जमुना के लिए पुरस्कार नहीं दिया गया, इस बात का मुझे हमेशा दुख रहेगा. कई बार लोग मुझसे कहते हैं कि साहब आपको दीवार के लिए पुरस्कार नहीं मिला, मुकद्दर का सिकंदर के लिए नहीं मिला, लावारिस के लिए नहीं मिला, शराबी के लिए नहीं मिला, तो मैं उनसे कहता हूं कि छोड़ो, ये तो मैगजीन का निर्णय होता है, जो पुरस्कार देती है. अगर दिलीप साहब को उन्होंने गंगा जमुना के लिए पुरस्कार नहीं दिया तो फिर मैं किस खेत की मूली हूं. यह बात मैंने कुछ साल पहले फिल्मफेयर के एक समारोह में कही थी कि इस बात का हमेशा मुझे दुख रहेगा कि उन्होंने गंगा जमुना के लिए दिलीप साहब को पुरस्कार नहीं दिया. उस समारोह में दिलीप साहब मुख्य अतिथि थे.
फ्रेम करवाई है उनकी चिट्ठी
मैं दिलीप साहब को हमेशा अपनी सारी फिल्में देखने के लिए बुलाता हूं. मैंने उनको ब्लैक देखने के लिए बुलाया था. वो प्रीमियर पर आए थे. वह बड़ा अद्भुत क्षण था मेरे लिए. जब फिल्म खत्म हुई तो वह पहले निकल आए थे और मेरा इंतजार कर रहे थे. यहीं आईमैक्स में. जब मैं आया तो उन्होंने आकर मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए. और कुछ शब्द नहीं निकले.. न मेरे मुंह से और न उनके मुंह से. बहुत ही भावुक समय था वह. मुझे बहुत ही अच्छा लगा. फिर उसके बाद उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी. उस चिट्ठी को मैंने फ्रेम करवाकर अपने ऑफिस में रखा हुआ है. दिलीप साहब के जन्मदिन के अवसर पर मैं यही कहूंगा कि उन्हें स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो. यही सबसे बड़ी चीज है. खुशियां तो स्वास्थ्य के साथ आ ही जाती हैं. काम तो अब वो कर नहीं रहे हैं. मैं यही चाहता हूं कि वो चिरायु हों.. बस. मैं उनके जन्मदिन पर पत्र लिखूंगा और व्यक्तिगत तौर पर बधाई दूंगा.
-फिल्मफेयर, दिसम्बर-2011
हिंदी सिनेमा के महानतम अभिनेता दिलीप कुमार को सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के रुप में एक प्रिय प्रशंसक प्राप्त हैं. दिलीप कुमार को अमिताभ बच्चन अपना आदर्श मानते हैं. 11 दिसंबर को दिलीप कुमार जीवन के 89 बसंत पूरे कर रहे हैं. इस विशेष अवसर पर अमिताभ बच्चन के साथ दिलीप कुमार के बारे में रघुवेन्द्र सिंह ने बातचीत की. अमिताभ बच्चन के शब्दों में उस बातचीत को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है.
मेरे आदर्श हैं दिलीप साहब
दिलीप साहब को मैंने कला के क्षेत्र में हमेशा अपना आदर्श माना है, क्योंकि मैं ऐसा मानता हूं कि उनकी जो अदाकारी रही है, उनकी जो फिल्में रही हैं, जिनमें उन्होंने काम किया है, वो सब सराहनीय हैं. मैंने हमेशा उनके काम को पसंद किया है. बचपन में जब मैं उनकी फिल्में देखा करता था, तबसे उनका एक प्रशंसक रहा हूं. मुझे उनकी सभी फिल्में पसंद हैं, लेकिन गंगा जमुना बहुत ज्यादा पसंद आई थी. जब भी मैं दिलीप साहब को देखता हूं तो मैं ऐसा मानता हूं कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में अगर कला को लेकर, अदाकारी को लेकर, जब कभी इतिहास लिखा जाएगा तो यदि किसी युग या दशक का वर्णन होगा तो लोग कहेंगे कि ये ‘‘दिलीप साहब के पहले की बात है, या उनके बाद की.’’ वो अदाकारी के एक मापदंड बन गए हैं.
ताजा है पहली मुलाकात की याद
तब मैं फिल्म इंडस्ट्री में नहीं था. एक व्यक्तिगत छुट्टी मनाने के लिए परिवार के साथ मैं मुंबई आया था. यहां हमारे जो मित्र थे, वो एक शाम को हमें एक रेस्टोरेंट में ले गए और वहां पर दिलीप साहब आए. वहां मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई. मैं उनका ऑटोग्राफ चाहता था. मैं पास की स्टेशनरी शॉप में कॉपी खरीदने के लिए भागा. जब वापस आया, तो देखा कि वे व्यस्त थे. उस समय उन्होंने मुझे ऑटोग्राफ दिया नहीं. मैं थोड़ा निराश हुआ. फिल्मों में आने के बाद उनसे मेरी पहली मुलाकात किसी के घर पर दावत में हुई थी और फिर अचानक एक दिन मुझे उनके साथ शक्ति फिल्म में काम करने का अवसर मिला.
मुश्किल था उनका विरोध करना
शक्ति सलीम-जावेद साहब की कहानी थी. रमेश सिप्पी उस फिल्म के निर्देशक थे. सलीम-जावेद ने कहा कि यह एक अच्छी कहानी है, इसे बनाना चाहिए. दिलीप साहब होंगे, आप होंगे और रमेश सिप्पी साहब. जाहिर है कि जब आप दिलीप साहब जैसे बड़े कलाकार के साथ काम करेंगे तो काफी डर रहता है. हालांकि अभिनय में मुझे कई वर्ष बीत चुके थे. फिर भी जिस शक्स को आपने इतना सराहा है, अपना आदर्श माना है, अगर वो अचानक आपके सामने आकर खड़े हो जाएं तो डर लगता है. और शक्ति में जिस तरह की हमारी भूमिका थी कि मैं थोड़ा सा विरोधी हूं उनके सामने, वो भी एक कठिन चीज थी मेरे लिए क्योंकि आप जिसको इतना चाहते हैं, उनका विरोध कैसे कर सकते हैं? मुश्किल था मेरे लिए, लेकिन काम करते हुए बहुत अच्छा लगा. मैंने उनका काम करने का तरीका देखा. वे हर एक बात को, हर एक चीज को, बार-बार समझना, उसकी बारीकियों में जाना और जब तक वह एक दम सही न हो जाएं, तब तक प्रयास करते रहना, वह सब मैंने देखा.
डेथ सीन करने की चुनौती
शक्ति का क्लाइमेक्स सीन हमने यहीं एयरपोर्ट पर किया था. डेथ सीन किसी कलाकार के लिए आम तौर पर बड़ा मुश्किल समय होता है कि कैसे किया जाए. और इतने सारे डेथ सीन हमने कर लिए थे. शोले में, दीवार में, मुकद्दर का सिकंदर में, तो हमेशा मन के अंदर एक विडंबना बनी रहती है कि डेथ सीन को कैसे करें कि नयापन आए. तो दिलीप साहब के साथ विचार-विमर्श किया वहीं पर और फिर उसी तरह किया जैसा कि आपने फिल्म में देखा है. मैं दाद देना चाहूंगा दिलीप साहब की क्योंकि उन्होंने उस सीन में एक शब्द नहीं कहा, क्योंकि वे जानते थे कि एक कलाकार के लिए वह समय बड़ा आवश्यक होता है कि वह कांसंट्रेट करे.
कलाकार की इज्जत करना उनसे सीखें
मैंने जितनी बार भी दिलीप साहब से कहा कि मैं रिहर्स करना चाहता हूं और मैंने कहा कि मैं किसी डुप्लीकेट के साथ कर लेता हूं तो उन्होंने कहा कि नहीं. उन्होंने मेरा पूरा सहयोग दिया. और उन्होंने कभी एक आवाज भी नहीं निकाली, जब मैं काम कर रहा था या मुझे याद है जो उन्होंने बीच में इधर-उधर की कुछ बात की हो. मुझे याद है जब मैं वह सीन रिहर्स कर रहा था, तो पीछे प्रोडक्शन के लोग काम कर रहे थे, ऊंची आवाज में वो कुछ बात कर रहे थे, तो दिलीप साहब ने उन्हें डांट दिया कि चुप रहिए आप. आप कलाकार की इज्जत नहीं करते हैं. देख नहीं रहे हैं आप. तो मुझे बड़ा अच्छा लगा यह देखकर कि अन्य कलाकारों के लिए भी उनके मन में इतनी इज्जत थी.
जब तीन बजे रात को पहुंच गए दिलीप साहब के घर
कई बार हम उनके घर रात-बिरात पहुंच जाते थे. और हमेशा वह बड़े ही दयालु और कहा जाए कि बहुत ही स्वागतमंद रहे. मुझे याद है. एक शाम सलीम साहब, जावेद साहब और हम अपने घर में बैठे हुए थे. ऐसे ही बातचीत चल रही थी. और बातचीत करते-करते तकरीबन रात के एक-दो बज गए. तो मैंने उन लोगों सेे कहा कि चलिए मैं आप लोगों को घर छोड़ देता हूं. रास्ते में जाते-जाते उन्होंने कहा कि यार, दिलीप साहब से मिलने का बड़ा मन कर रहा है. मैंने कहा अरे भई, रात के दो-तीन बज रहे हैं. कहां जाएंगे? तो उन्होंने कहा कि चलिए चलते हैं. देखते हैं कि क्या होता है. हम तीनों रात के तकरीबन तीन बजे उनके घर में चले गए. वो सो रहे थे. वो उठकर के आए. और एक-डेढ़ घंटे हमारे साथ बैठे रहे और बातें करते रहे. इतना उनका अनुभव है, इतनी कहानियां हैं जीवन की कि किस तरह से किसने क्या किया, कौन सा रोल कैसे हुआ, फिल्म के अलावा भी उनके पास इतनी जानकारी है कि उनको बैठकर सुनने में ही बड़ा आनंद मिलता है. हम लोग काफी देर तक बतियाते रहे. ये सेवेंटीज-एटीज की बात है.
टीवी व विज्ञापन में मेरा काम करना उन्हें पसंद नहीं
नई जेनरेशन के बारे में उन्होंने कभी मुझसे कोई जिज्ञासा प्रकट नहीं की. यदा-कदा मैं उनके इंटरव्यूज पढ़ता रहता हूं जिसके द्वारा पता चलता है कि वो क्या सोचते हैं. मेरे खयाल में उनके मन में यह बात है कि एक कलाकार को अदाकारी के साथ ही अपना संबंध रखना चाहिए. जब मैंने टेलीविजन में काम किया या जब मैंने इंडोर्समेंट किए तो शायद उनको पसंद नहीं आया. पसंद मतलब.. वो कहते थे कि तुम ये सब क्यों करते हो? अदाकारी ही किया करो. लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई हैं. अभी हाल ही में उनसे प्राण साहब के जन्मदिन पर मुलाकात हुई थी और हाल ही में कौन बनेगा करोड़पति में दिलीप साहब के ऊपर एक प्रश्न आया तो मैंने उनके बारे में कुछ बातें की. उसके बारे में उन्हें सायरा जी के जरिए पता चला तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुम उस एपीसोड की डीवीडी भेजो, मैं देखना चाहता हूं कि तुमने मेरे बारे में क्या कहा.
सबकी प्रेरणा हैं दिलीप साहब
मैं दिलीप साहब के अभिनय को मिस करता हूं. मैं ऐसा मानता हूं कि उन्होंने एक नए युग की शुरुआत की. अगर हमारा भारतीय सिनेमा का इतिहास युगों में बांटा जाएगा तो निश्चित ही दिलीप साब का जो युग था, उसका ऐसे ही वर्णन होगा कि ये दिलीप साहब से पहले की बात है और ये दिलीप साहब के बाद की बात है. कला के क्षेत्र में हम सब लोग प्रेरित होते हैं और ये विश्व भर की बात है. जितने भी लोग कला से संबंध रखते हैं, चाहे वो कवि हों, पेंटिंग करते हों, चाहे मॉडलिंग करते हों, कुछ भी करते हों, कहीं न कहीं से उनको प्रेरणा मिलती है. तो उनको देख करके ही, इतना ही हमारे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है कि हम दिलीप साहब को देखकर ही इंस्पायर होते हैं. मेरे लिए तो यही सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि मुझे दिलीप साहब के साथ काम करने का अवसर मिला. और वो क्षण मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा. उनके साथ हमारा लगाव निरंतर रहा है, बल्कि अभी दो दिन पहले ही उनसे एसएमएस पर मेरी बातचीत हुई. हर साल वो मुझे जन्मदिन पर बधाई देते हैं और मैं उन्हें जन्मदिन पर बधाई देता हूं. कई दिनों से वह अस्वस्थ हैं. मैं उनसे कह रहा था कि आप मेरी फिल्म पा देखिए तो उन्होंने कहा कि मैं जरुर देखूंगा. सायरा जी से मेरी बातचीत होती रहती है और मैं अभी उनसे मिलने भी जाऊंगा.
दिलीप साहब का व्यक्तित्व
मेरे खयाल से लोगों के मन में ये एक अजीब सी धारणा है कि क्योंकि कलाकार है और वह स्टार है तो उसका जो व्यक्तित्व है या उसका स्वभाव है, वह अलग तरीके का होगा. हमारे मन के अंदर ऐसी कोई धारणा नहीं है. हम लोग आम आदमी की तरह हैं. आम आदमी की तरह काम करते हैं और हमारे साथ जो काम करेगा, उसके साथ मिल-जुलकर ही काम करेंगे. ऐसा मान लेना कि मैं एक स्टार हूं तो मैं जब चलूं तो लोग बैठ जाएं और जब मैं खड़ा होऊं तो सब लोग झुक जाएं, ऐसा कुछ वातावरण होता नहीं है. हम सब आम इंसान हैं. दिलीप साब का व्यक्तित्व ऐसा ही है. काम के प्रति लगन होनी चाहिए और अपने परफॉर्मेंस को हम जितना नैचुरली कर सकें, वह कोशिश करनी चाहिए. दिलीप साहब बहुत ही नैचुरल एक्टर हैं. देखकर लगता नहीं कि वे अदाकारी कर रहे हैं. ऐसा ही काम करने की हम भी उनसे प्रेरणा लेते हैं.
दुख है कि गंगा जमुना के लिए उन्हें पुरस्कार नहीं मिला
उन्हें गंगा जमुना के लिए पुरस्कार नहीं दिया गया, इस बात का मुझे हमेशा दुख रहेगा. कई बार लोग मुझसे कहते हैं कि साहब आपको दीवार के लिए पुरस्कार नहीं मिला, मुकद्दर का सिकंदर के लिए नहीं मिला, लावारिस के लिए नहीं मिला, शराबी के लिए नहीं मिला, तो मैं उनसे कहता हूं कि छोड़ो, ये तो मैगजीन का निर्णय होता है, जो पुरस्कार देती है. अगर दिलीप साहब को उन्होंने गंगा जमुना के लिए पुरस्कार नहीं दिया तो फिर मैं किस खेत की मूली हूं. यह बात मैंने कुछ साल पहले फिल्मफेयर के एक समारोह में कही थी कि इस बात का हमेशा मुझे दुख रहेगा कि उन्होंने गंगा जमुना के लिए दिलीप साहब को पुरस्कार नहीं दिया. उस समारोह में दिलीप साहब मुख्य अतिथि थे.
फ्रेम करवाई है उनकी चिट्ठी
मैं दिलीप साहब को हमेशा अपनी सारी फिल्में देखने के लिए बुलाता हूं. मैंने उनको ब्लैक देखने के लिए बुलाया था. वो प्रीमियर पर आए थे. वह बड़ा अद्भुत क्षण था मेरे लिए. जब फिल्म खत्म हुई तो वह पहले निकल आए थे और मेरा इंतजार कर रहे थे. यहीं आईमैक्स में. जब मैं आया तो उन्होंने आकर मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए. और कुछ शब्द नहीं निकले.. न मेरे मुंह से और न उनके मुंह से. बहुत ही भावुक समय था वह. मुझे बहुत ही अच्छा लगा. फिर उसके बाद उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी. उस चिट्ठी को मैंने फ्रेम करवाकर अपने ऑफिस में रखा हुआ है. दिलीप साहब के जन्मदिन के अवसर पर मैं यही कहूंगा कि उन्हें स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो. यही सबसे बड़ी चीज है. खुशियां तो स्वास्थ्य के साथ आ ही जाती हैं. काम तो अब वो कर नहीं रहे हैं. मैं यही चाहता हूं कि वो चिरायु हों.. बस. मैं उनके जन्मदिन पर पत्र लिखूंगा और व्यक्तिगत तौर पर बधाई दूंगा.
-फिल्मफेयर, दिसम्बर-2011
Tuesday, April 10, 2012
दमदार कश्यप बंधु
बड़े भाई ने हिंदी फिल्मों के पारंपरिक ढांचे को ढाह दिया और एक नई सिनेमाई परंपरा की शुरुआत की, और छोटे भाई ने हिंदी सिनेमा की प्रचलित परंपरा की परिधि में रहकर कीर्ति अर्जित की. हिंदी सिनेमा की पाठशाला में दोनों साथ बैठा करते थे, फिर एक क्रांतिकारी और दूसरा अनुयायी कैसे बन गया? चर्चित फिल्मकार बंधुओं अनुराग कश्यप और अभिनव कश्यप के साथ पहली बार उनके रोमांचक अतीत की यात्रा कर रहे हैं रघुवेन्द्र सिंह.
अनुराग कश्यप ने अपना वादा निभाया. उन्होंने अपने छोटे भाई अभिनव कश्यप से स्वयं बात की और फिल्मफेयर के लिए इस संयुक्त बातचीत का प्रबंध अपने घर पर किया. कश्यप बंधुओं का एक साथ बातचीत के लिए तैयार होना हमारे लिए प्रसन्नता और उत्साह का विषय था. हमारी इस भावना से जब अनुराग और अभिनव वाकिफ हुए तो दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े. अनुराग ने अपनी हंसी पर नियंत्रण किया और बड़े सहज भाव से कहा, ‘‘लोगों को पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि हम आपस में बात नहीं करते. लोगों के बीच हमारी ऐसी छवि कैसे बन गई है? (अभिनव की ओर देखकर)’’ दोनों भाई फिर एक साथ ठहाका मारकर हंस पड़े. फिर अनुराग ने अपने सवाल का जवाब खुद दिया, ‘‘हम दोनों अलग-अलग किस्म की फिल्में बनाते हैं, शायद इसलिए लोगों का ऐसा लगता है.’’
बाजार में स्थापित अपनी छवि के अनुकूल अनुराग और अभिनव ने सानंद फिल्मफेयर के लिए फोटोशूट किया. कभी अनुराग ने अभिनव की जेब से पर्स निकालते हुए, तो कभी दोनों ने आपस में फाइट करते हुए हमारे जोशीले फोटोग्राफर प्रथमेश बांदेकर के लिए खुशी-खुशी पोज किया.इस मजेदार फोटोशूट के पश्चात हमने बातचीत के लिए अनुराग कश्यप के उस विशेष कमरे का रुख किया, जिसकी दीवारें तमाम देशों की फिल्मों की डीवीडी से सजी थीं. कमरे के बीचोबीच रखे सोफे पर बैठते हुए अनुराग ने कहा, ‘‘मैं और कल्की इसी कमरे में बैठकर फिल्में देखते हैं.’’ दोनों भाईयों के संपूर्ण अतीत के बारे में जानने के लिए मेरा मन बेचैन हो रहा था. उनके समक्ष जब यह बात जाहिर हुई तो दोनों ने एक-दूसरे के बचपन का कत्था-चिट्ठा खोलना शुरू कर दिया.
अनुराग से उम्र में अभिनव दो साल छोटे हैं. अपने बड़े भाई के बचपन के यादों की पोटली को अभिनव ने यूं खोला ‘‘अखबार में फिल्म के इस्तेहार आते थे. ये उसे काटते थे और पोस्टर बनाते थे. फिर मनगढंत कहानियां बनाकर हमें सुनाते थे.’’ अनुराग हंसते हुए कहते हैं, ‘‘और इन्हें लगता था कि वो कहानियां सच हैं.’’ बात जारी रखते हुए अनुराग अपने छोटे भाई के बचपन के दिनों को याद करते हैं, ‘‘इनको पैसे का प्रेम बचपन से है. हम नाना-नानी के घर जाते थे. हमें लौटते वक्त सब लोग पैसे देते थे. अभिनव अनेक बहाने बनाकर उनसे डबल पैसा ले लेते थे. फिर मुगलसराय से दो-दो रुपए में चेन वाली रिंग खरीदकर ले आते थे और स्कूल में दस-दस रुपए में उसे बेचते थे.’’ अनुराग अपनी बात खत्म करते कि उससे पहले ही अभिनव ने कहा, ‘‘मुझे गरीब लाइफ शुरु से पसंद नहीं. पॉकेट मनी के लिए सब करना पड़ता था. लेकिन ये हमसे पैसा छीन लेते थे और उन पैसों से कॉमिक्स खरीदकर ले आते थे.’’
नन्हीं उम्र से अनुराग गंभीर स्वभाव के हैं. उनकी तुलना में अभिनव बचपन में अधिक शरारती थे. एक मजेदार वाकया अनुराग बताते हैं, ‘‘अभिनव मुझे बहुत चिढ़ाते थे. मुझे गुस्सा जल्दी आता था. मैं आज भी गुस्सैल हूं. उसका कारण यही हैं. एक दिन मैंने चाकू लेकर इन्हें दौड़ा लिया कि आज या तो तू रहेगा या मैं. इन्हें पूरे घर में मैंने दौड़ाया कि आज तो मैं खून कर दूंगा. (अनुराग ठहाका लगाते हैं). उस वक्त ये तीन साल के थे और मैं पांच साल का था.’’ ïअभिनव जज्बाती लहजे में कहते हैं कि ये मुझसे प्यार भी बहुत करते थे. उसका सबूत इनकी साढ़े नौ उंगलियां हैं. बचपन में ये मुझे झूला झुला रहे थे. इनकी एक उंगली कट गई.
अनुराग और अभिनव की जिंदगी पैरलल चली है. पिताजी की नौकरी ट्रांसफरेबल होने के कारण दोनों का बचपन उत्तर प्रदेश के कई शहरों में गुजरा. अनुराग का जन्म गोरखपुर में हुआ, जबकि अभिनव ने ओबरा की आबोहवा में अपनी आंख खोली. दोनों फैजाबाद के कांवेंट स्कूल में साथ पढऩे जाते थे. उसके बाद अनुराग को देहरादून के ग्रीन स्कूल में भेज दिया गया और अभिनव का एडमिशन टांडा के ललिता शास्त्री मांटेसरी स्कूल में करा दिया गया. दोनों भाई थोड़े समय की जुदाई के बाद फिर एकजुट हुए गवालियर के सिंधिया स्कूल में. यहां दोनों हॉस्टल में रहते थे. अनुराग बताते हैं, ‘‘अभिनव के गणित में सौ में सौ नंबर आते थे. ये कॉमर्स पढ़ते थे. सबको विश्वास था कि बड़ा होकर ये पैसे कमाएगा, और मैं नहीं. मैं हिंदी और भूगोल में अच्छा नंबर लाता था.’’ अनुराग ने कॉलेज की पढ़ाई के लिए दिल्ली के हंसराज कॉलेज में प्रवेश लिया तो कुछ साल बाद अभिनव भी उनके पीछे-पीछे वहां पहुंच गए. अभिनव कहते हैं, ‘‘मैंने जानबूझकर हंसराज में एडमिशन लिया, क्योंकि इनके रहने से मैं वहां सुरक्षित महसूस करता था.’’
अनुराग के फिल्म पोस्टरों और मनगढंत कहानियों ने अभिनव को भी धीरे-धीरे फिल्मों से जोड़ दिया. घर में टीवी नहीं था इसलिए दोनों भाई अपने पड़ोसी के घर में जाकर टीवी पर चित्रहार देखते थे. दोनों मम्मी और पापा के शुक्रगुजार हैं कि वे उन्हें घर में किराए पर वीसीआर लाने की इजाजत दे देते थे. अभिनव बताते हैं, ‘‘महीने में एक बार मम्मी-पापा की परमिशन से हम टीवी और वीसीआर किराए पर लाते थे. हम चार फिल्में लाते थे और रात भर जागकर उन्हें देखते थे.’’ थिएटर में दोनों भाईयों ने बहुत कम फिल्में देखी हैं. अनुराग बताते हैं, ‘‘हमें थिएटर में पिक्चर दिखाने तभी ले जाया जाता था, जब अमिताभ बच्चन या धर्मेन्द्र की फिल्में लगती थीं. जैसे आज की ऑडियंस सिर्फ सलमान खान को देखती है, वैसे ही हम उस वक्त केवल अमिताभ और धर्मेंद्र को देखते थे.’’
अनुराग-अभिनव के बीच उम्र का अंतर कम था इसीलिए उनके बीच भाई से अधिक दोस्त का रिश्ता कायम रहा. दोनों एक-दूसरे के राजदां रहे. कॉलेज के दिनों में एक-दूसरे के अफेयर्स की चर्चा पर अनुराग ने ठहाका लगाया, और कहा कि हमारी ज्यादा लव स्टोरी नहीं थी क्योंकि हम दोनों थके हुए थे. अभिनव बाद में इस मामले में एक्सपर्ट हो गए. अभिनव ने दबे लफ्जों में कहा, ‘‘कहां से एक्सपर्ट होंगे. तेइस साल की उम्र में मेरी शादी हो गई और इनकी पच्चीस की उम्र में. लड़कियों के मामले में हम दोनों गए गुजरे थे.’’ अनुराग और अभिनव की शादी का दिलचस्प किस्सा है. अभिनव अपनी गर्लफ्रेंड चतुरा राव से शादी करके जल्द से जल्द सेटल होना चाहते थे, लेकिन उनके मम्मी-पापा ने कहा कि जब तक बड़े बेटे की शादी नहीं होगी, तुम्हारी शादी नहीं हो सकती. अभिनव ने अनुराग पर दबाव बनाया और अनुराग को हड़बड़ी में अपनी गर्लफ्रेंड आरती बजाज से शादी करनी पड़ी. दोनों भाईयों का रिसेप्शन एक साथ आयोजित हुआ था.
अनुराग-अभिनव को सिनेमा से प्रेम बचपन से था, लेकिन इसे अपनी जिंदगी बनाने का फैसला दोनों ने बहुत बाद में लिया. अनुराग बताते हैं, ‘‘दिल्ली में एक फिल्म फेस्टिवल अटेंड करने के बाद मैंने फिल्ममेंकिंग में जाने का फैसला किया. उसके पहले मैं एक्टर बनना चाहता था. मैं थिएटर करता था.’’ 1992 में अनुराग अपनी मंजिल की खोज में मुंबई आ गए. दो वर्ष पश्चात अभिनव भी अपने भाई के पास आ गए. अभिनव मुंबई एमबीए की पढ़ाई करने के लिए आए थे, लेकिन हमेशा की तरह बड़े भाई के नक्शेकदम पर चलने से वे खुद को रोक नहीं पाए. अभिनव बताते हैं, ‘‘मैंने भी थिएटर ज्वाइन कर लिया. एक प्ले था मिडनाइट समर. उसका हिंदी अडॉप्टेशन था. उसमें मुझे पहले ही दिन कुत्ता बना दिया. मेरा काम था कुत्ते की तरह हांफना. मैं तीसरे दिन थक गया और फिर वहां गया ही नहीं.’’ अनुराग कहते हैं कि नहीं-नहीं, इनका एक्सीडेंट हो गया था. ये दो लोगों के साथ बाइक पर जा रहे थे. इतने थके थे कि बाइक पर सोने लगे और एक्सीडेंट हो गया. अभिनव गर्व के साथ कहते हैं कि मेरे गुरु हमेशा भैया रहे हैं.
अभिनव कभी अपने भाई पर बोझ नहीं बने, बल्कि उन्होंने हमेशा उनके लिए मुश्किलें आसान कीं. अभिनव के मुंबई आने से पूर्व अनुराग का संघर्ष बहुत मुश्किल था. अनुराग के मुताबिक, ‘‘1993-94 तक बहुत कडक़ी थी. अभिनव के आने के बाद कडक़ी चली गई. ये सीरियल वगैरह से पैसे कमाते थे और मैं अपना स्ट्रगल करता रहा.’’ अभिनव हंसते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा काम था घर चलाना. मैं दस साल तक टीवी से जुड़ा रहा. उस दौरान मेरी एजुकेशन हो रही थी. सत्या के बाद अनुराग विदेश में फिल्म फेस्टिवल में जाने लगे. दुनिया बहुत घूमी इन्होंने. उस दौरान इनका इंटरऐक्शन जिन लोगों के साथ हुआ, उस हिसाब से इनका ओरिएंटेशन हुआ. मेरी जिंदगी इंडिया में रही. मेरा पहला वल्र्ड ट्रिप दबंग फिल्म के दौरान हुआ. एक गीत की शूटिंग के लिए हम दुबई गए थे.’’ अनुराग जोड़ते हैं कि मुंबई में मेरी मुलाकात श्रीराम राघवन से हो गई. मेरी एक अलग जर्नी शुरू हो गई.
अभिनव दस वर्ष तक अनवरत टेलीविजन के लिए काम करते रहे. अनुराग और अभिनव ने शुरूआती दिनों में टीवी के लिए एक साथ लेखन भी किया है. अभिनव बताते हैं, ‘‘हमने तीन साल साथ डायलॉग लिखा. त्रिकाल और कभी कभी सीरियल हमने साथ लिखा था.’’ अनुराग ने बताया कि डर सीरियल इनकी रचना थी. मैंने सिर्फ अपना नाम जोड़ दिया था. इस खुलासे के बाद अभिनव ने बताया कि वो प्रोड्यूसर डर अनुराग के साथ बनाना चाहते थे और ये बिजी थे. उन्होंने हड़बड़ी में मुझे साइन कर लिया. मैंने लिखा था, लेकिन जब डायरेक्ट करने की बात आई तो उन्होंने कहा कि अगर तुम अपने भाई का नाम इसमें जोड़ दो तो मैं तुम्हे ब्रेक दे दूंगा. मैंने इनको पटाया और राइटिंग में इनका नाम जोड़ दिया.
अभिनव ने 2002 में फिल्म बनाने का पहला प्रयास किया. कुछ दिक्कतें सामने आईं तो वे मणिरत्नम से निर्देशन का गुर सीखने मद्रास चले गए. अभिनव बताते हैं,‘‘मैंने सीरियस सिनेमा बनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन मैं जहां भी जाता था, लोग मेरी तुलना अनुराग से करते थे. फिर कहते थे कि एक भाई तो है ही, हमें फिल्म बनानी होगी तो उन्हें लेंगे, आपको क्यों लेंगे?’’ अभिनव की यह बात ध्यान से सुनने के बाद अनुराग ने कहा, ‘‘वक्त कितनी तेजी से बदलता है. अब मैं पब्लिक के बीच जाता हूं तो लोग कहते हैं कि इनके भाई ने दबंग बनाई है. मैं खुश हूं कि अब हमारी अलग-अलग पहचान है. लोग इन्हें अभिनव कश्यप और मुझे अनुराग कश्यप के नाम से जानते हैं.’’ अभिनव ने सफाई देने के अंदाज में कहा कि लोग मुझे अनुराग का भाई कहते थे तो मुझे शर्म नहीं आती थी, लेकिन मैं इनकी परछाई बनकर नहीं रहना चाहता था. मैं संजय कपूर था, ये अनिल कपूर थे. मेरा अपना कोई वजूद नहीं था. मैं अपनी पहचान बनाना चाहता था. और मैंने पहली फिल्म जानबूझकर इनसे अलग नहीं बनाई. सलमान खान के हां कहने के बाद उसे उनके तरीके से ढाला गया.
अनुराग-अभिनव एक-दूसरे की फिल्मों के सबसे बड़े आलोचक और प्रशंसक हैं. अनुराग को अभिनव की पहली फिल्म दबंग बहुत पसंद आई. अनुराग कहते हैं, ‘‘राजकुमार हिरानी और इम्तियाज अली के अलावा हाल के दिनों में मुझे सिर्फ अभिनव का काम पसंद आया. इन्होंने फैमिली और लव स्टोरी को बहुत अच्छी तरह एडिट किया था. मुझे गैंग ऑफ वासेपुर फिल्म में वही काम करने में परेशानी हो रही है. मुझे दबंग का क्लाइमेक्स अविश्वसनीय लगा. विलेन की डेथ मुझे समझ में नहीं आई.’’ अनुराग की फिल्मों के बारे में अभिनव कहते हैं, ‘‘उम्मीद करता हूं कि एक दिन मैं भी इनके जैसा सिनेमा बना पाऊंगा. स्टोरी टेलिंग में इनसे अच्छा फिल्ममेकर इंडिया में इस वक्त नहीं है. मैं इनसे फिल्मों में वॉयलेंस कम करने के लिए कहता रहता हूं. इनकी फिल्मों की एक मजबूरी है कि उनमें स्टार फिट नहीं होते.’’ गौरतलब है कि अनुराग और अभिनव के सिनेमा में पैरेंट्स को अभिनव का सिनेमा ज्यादा पसंद है. अभिनव कहते हैं कि हमारे पैरेंट्स छोटी शहर की टिपीकल ऑडियंस हैं. वो सिनेमा के स्टूडेंट नहीं हैं.
अनुराग ने एक दिलचस्प बात यह बताई कि उनकी फिल्मों की स्क्रीनिंग के बाद अभिनव से दो दिन तक उनकी बात नहीं होती. उसका कारण अभिनव ने बताया, ‘‘मैं निडरता से इनकी फिल्म की खामियां बता देता हूं. मुझे परवाह नहीं रहती कि ये बुरा मान जाएंगे. इन्हें बुरा लगता है, लेकिन बाद में जब इन्हें समझ में आता है कि मेरा पक्ष सही है तो ये नॉर्मल हो जाते हैं.’’ अनुराग बताते हैं कि उनकी फिल्मों देव डी, गुलाल, दैड गर्ल इन यलो बूट्स में अभिनव का बहुत योगदान है. अभिनव के अनुसार, ‘‘मैं चाहता हूं कि ये किसी का नुकसान न करें. अगर फिल्म रुपया कमाएगी, तभी ये फिल्म बनाते रहेंगे.’’
अनुराग जिद्दी स्वभाव के हैं. वे अपनी फिल्म की खातिर किसी प्रकार से झुकने के लिए तैयार नहीं होते थे, लेकिन अब उनकी वह सोच परिवर्तित हो गई है. इस बात का श्रेय अपने छोटे भाई को देते हुए अनुराग कहते हैं, ‘‘मैं पहले किसी की नहीं सुनता था. अब सुनने लगा हूं. अभिनव, कल्की और सुनील बोरा की वजह से मुझमें यह बदलाव आया है. अब मैं जब कोई स्क्रिप्ट लिखता हूं तो दूसरे की राय लेता हूं. मैं आज इतना काम कर पा रहा हूं क्योंकि अभिनव का मुझे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से सपोर्ट है.’’ अभिनव अपने भैया की सोच और उनके सिनेमा का सम्मान किस कदर करते हैं, इसका अनुमान उनके इस कथन से लगाया जा सकता है, ‘‘अनुराग नए-नए दरवाजे खोलते हैं. भविष्य में हमारा सिनेमा किस दिशा में जाएगा, इसका निर्धारण वही करेंगे.’’
कश्यप बंधु अगर किसी फिल्म के लिए एकजुट होंगे तो निसंदेह वह फिल्म चर्चा का विषय बनेगी और उसकी प्रतीक्षा सिनेप्रेमी बेसब्री से करेंगे. मगर प्रश्न यह है कि क्या कश्यप बंधु किसी फिल्म के लिए एकजुट होंगे. इसका जवाब अभिनव देते हैं, ‘‘हो सकता है कि भविष्य में ये कोई स्क्रिप्ट लिखें और मैं उसे डायरेक्ट करूं.’’ अनुराग कहते हैं कि संभव है कि हम दोनों मिलकर एक बड़ी फिल्म प्रोड्यूस करें. एक दिन हम साथ जरुर आएंगे. पहले हम स्थायी हो जाएं, हमारा दर्शक वर्ग तैयार हो जाए. हम दो सडक़ों की तरह हैं, जो एक दिन जरुर मिलेंगी.
अनुराग की योजना अगले साल अपने बैनर में दस फिल्में प्रोड्यूस करने की है. जबकि अभिनव दबंग के बाद अपनी अगली बड़ी फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे हैं. कश्यप बंधुओं को करीब से जानने वालों का कहना है कि आने वाले समय में फिल्म इंडस्ट्री में उनकी ताकत बढ़ेगी. उनका अपना एक पावरफुल कैंप होगा. अनुराग कहते हैं, ‘‘जो लोग ऐसा सोचते हैं, उनके मुंह में घी-शक्कर. लेकिन हम यहां राज करने नहीं आए हैं. बंगला बनाने नहीं आए हैं. हम पिक्चर बनाने आए हैं. किसी प्रकार का समझौता किए बगैर हम अपनी पसंद की फिल्में बनाते रहेंगे.’’ भाई की बात का समर्थन करते हुए अभिनव कहते हैं कि हम किसी तरह की रेस में नहीं हैं. भावी योजनाओं के बारे में पूछने पर अनुराग-अभिनव ने दिलचस्प जवाब दिया. अनुराग ने कहा, ‘‘मैं सिनेमा में कॉमर्स ढूंढने की कोशिश करूंगा.’’ ‘‘और मैं कॉमर्स में सिनेमा ढूंढने की कोशिश करूंगा.’’ जोर का ठहाका लगाते हुए अभिनव ने कहा.
अनुराग कश्यप की पसंदीदा फिल्में
प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, उड़ान.
अभिनव कश्यप की पसंदीदा फिल्में
ब्लैक फ्राइडे, बैंडिट क्वीन और शोले.
अनुराग कश्यप के पसंदीदा निर्देशक
गुरुदत्त, राजकपूर, राजकुमार हिरानी.
अभिनव कश्यप के पसंदीदा निर्देशक\
बिमल रॉय, राजकुमार हिरानी, इम्तियाज अली.
अनुभूति की दस्तक
अनुराग और अभिनव की छोटी बहन अनुभूति अपनी पहली फिल्म निर्देशित करने की तैयारी कर रही हैं. वे गैंग ऑफ वासेपुर में अनुराग की असिस्टेंट थीं. अनुभूति मुंबई में अपने पति के साथ रहती हैं. अनुराग ने उन्हें अपने बैनर में फिल्म बनाने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया. अनुराग ने जानकारी दी कि अनुभूति अपना फिल्म बनाने जा रही हैं. वे जिस दिन हमसे मदद मांगेंगी, दोनों भाई उनके लिए खड़े होंगे.
-फिल्मफेयर, नवम्बर-2011
Monday, April 9, 2012
अब्बा कैफी आजमी को याद कर रही हैं शबाना आजमी
कैफी आजमी बहुत कम उम्र में जाने-माने शायर हो चुके थे. वे मुशायरों में स्टार थे, लेकिन वे पूरी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे. वे पार्टी के कामों में मशरूफ रहते थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी के पेपर कौमी जंग में लिखते थे और ग्रासरूट लेवल पर मजदूर और किसानों के साथ पार्टी का काम भी करते थे. इसके लिए पार्टी उनको माहवार चालीस रूपए देती थी. उसी में घर का खर्च चलता था. उनकी बीवी शौकत आजमी को बच्चा होने वाला था. कम्युनिस्ट पार्टी की हमदर्द और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की मेंबर थीं इस्मत चुगतई. उन्होंने अपने शौहर शाहिर लतीफ से कहा कि तुम अपनी फिल्म के लिए कैफी से क्यों नहीं गाने लिखवाते हो. कैफी साहब ने उस वक्त तक कोई गाना नहीं लिखा था. उन्होंने लतीफ साहब से कहा कि मुझे गाना लिखना नहीं आता है. उन्होंने कहा कि तुम फिक्र मत करो. तुम इस बात की फिक्र करो कि तुम्हारी बीवी बच्चे से है और उस बच्चे की सेहत ठीक होनी चाहिए. उस वक्त शौकत आजमी के पेट में जो बच्चा था, वह बड़ा होकर शबाना आजमी बना.
कैफी साहब ने 1951 में पहला गीत बुजदिल फिल्म के लिए लिखा रोते-रोते बदल गई रात. हमको याद करना चाहिए कि कैफी साहब ट्रेडीशनल बिल्कुल नहीं थे. शिया घराने में एक जमींदार के घर में उनकी पैदाइश हुई थी. मर्सिहा शिया के रग-रग में बसा हुआ है. मुहर्रम में मातम के दौरान हजरत अली को जिन अल्फाजों में याद करते हैं, वह शायरी में है. उसकी एक रिद्म है. शिया घरानों में इस चीज की समझ हमेशा से रही है. उसके बाद, वे जिस माहौल में पले-बढ़े, वहां शायरी का बोल-बाला था. गयारह साल की उम्र में उन्होंने लिखा था, ‘‘इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकूं, न रोने से कल पड़े.’’ गैर मामूली टैलेंट उनमें हमेशा से था. उस जमाने में जो भी फिल्मों से जुड़े, चाहे वह साहिर हों, मजरूह हों, शैलेंद्र हों, कैफी साहब हों, सबने इसे रोजगार का जरिया बनाया. ये सब शायरी करते थे, लेकिन शायरी की वजह सो कोई आमदनी नहीं थी. फिल्म आमदनी का एक जरिया बन गई.
एक नानू भाई वकील थे, जो स्टंट टाइप की फिल्में लिखते थे. उनके लिए भी कैफी साहब ने गीत लिखे. साथ में वे पार्टी का काम भी करते रहते थे. उनको पहला बड़ा ब्रेक मिला 1959 में, फिल्म कागज के फूल में. अबरार अल्वी ने उन्हें गुरूदत्त से मिलवाया. गुरूदत्त से बड़ी जल्दी उनकी अच्छी बन गई. कैफी साब कहते थे, ‘‘उस जमाने में फिल्मों में गाने लिखना एक अजीब ही चीज थी. आम तौर पर पहले ट्यून बनती थी. उसके बाद उसमें शब्द पिरोए जाते थे. ये ठीक ऐसे ही था कि पहले आपने कब्र खोद ली. फिर उसमें मुर्दे को फिट करने की कोशिश करें. तो कभी मुर्दे का पैर बाहर रहता था तो कभी कोई अंग. मेरे बारे में फिल्मकारों को यकीन हो गया कि ये मुर्दे ठीक गाड़ लेता है, इसलिए मुझे काम मिलने लगा.’’ वे यह भी बताते हैं कि कागज के फूल का जो मशहूर गाना है वक्त ने किया क्या हंसीं सितम.. ये यूं ही बन गया था. एस डी बर्मन और कैफी आजमी ने यूं ही यह गाना बना लिया था, जो गुरूदत्त को बेहद पसंद आया. उस गाने के लिए फिल्म में कोई सिचुएशन नहीं थी, लेकिन गुरूदत्त ने कहा कि ये गाना मुझे दे दो. इसे मैं सिचुएशन में फिट कर दूंगा. आज अगर आप कागज के फूल देखें तो ऐसा लगता है कि वह गाना उसी सिचुएशन के लिए बनाया गया है.
कैफी साहब के गाने बेइंतेहा मशहूर हुए, लेकिन फिल्म कामयाब नहीं हुई. गुरूदत्त डिप्रेशन में चले गए. उसके बाद कैफी साहब के पास शोला और शबनम फिल्म आई. उसके गाने बहुत मशहूर हुए. जाने क्या ढूंढती हैं ये आंखें मुझमें और जीत ही लेंगे बाजी हम-तुम, लेकिन फिर फिल्म नहीं चली. फिर अपना हाथ जगन्नाथ आई. एक के बाद एक कैफी साहब की काफी फिल्में आईं और सबके गाने मशहूर, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर एक भी फिल्म नहीं चली. शमां जरूर एक फिल्म थी, जिसमें सुरैया थीं, उसके गाने मशहूर हुए और वह पिक्चर भी चली. लेकिन ज्यादातर जिन फिल्मों में इन्होंने गाने लिखे, वह नहीं चलीं. फिर फिल्म इंडस्ट्री ने इनसे पल्ला झाडऩा शुरू कर दिया और लोग यह बात कहने लगे कि कैफी साहब लिखते तो बहुत अच्छा हैं, लेकिन ये अनलकी हैं.
इस माहौल में चेतन आनंद एक दिन हमारे घर में आए. उन्होंने कहा कि कैफी साहब, बहुत दिनों के बाद मैं एक पिक्चर बना रहा हूं. मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म के गाने आप लिखें. कैफी साहब ने कहा कि मुझे इस वक्त काम की बहुत जरूरत है और आपके साथ काम करना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, लेकिन लोग कहते हैं कि मेरे सितारे गर्दिश में हैं. चेतन आनंद ने कहा कि मेरे बारे में भी लोग यही कहते हैं. मैं मनहूस समझा जाता हूं. चलिए, क्या पता दो निगेटिव मिलकर एक पॉजिटिव बन जाए. आप इस बात की फिक्र न करें कि लोग क्या कहते हैं. कर चले हम फिदा जाने तन साथियों.. गाना बना. हकीकत (1964) फिल्म के तमाम गाने और वह पिक्चर बहुत बड़ी हिट हुई. उसके बाद कैफी साहब का कामयाब दौर शुरू हुआ. चेतन आनंद साहब की तमाम फिल्में वो लिखने लगे, जिसके गाने बहुत मशहूर हुए.
हीर रांझा (1970) में कैफी साहब ने एक इतिहास कायम कर दिया. उन्होंने पूरी फिल्म शायरी में लिखी. हिंदी सिनेमा के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. आप उसका एक-एक शब्द देखें, उसमें शायरी है. उन्होंने इस फिल्म पर बहुत मेहनत की. वह रात भर जागकर लिखते थे. उन्हें हाई ब्लडप्रेशर था. सिगरेट बहुत पीते थे. इसी दौरान उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ और फिर पैरालसिस हो गया. उसके बाद फिर एक नया दौर शुरू हुआ. नए फिल्ममेकर्स कैफी साहब की तरफ अट्रैक होने लगे. उनमें चेतन आनंद के बेटे केतन आनंद थे. उनकी फिल्म टूटे खिलौने के गाने उन्होंने लिखे. उसके बाद उन्होंने मेरी दो-तीन फिल्मों टूटे खिलौने, भावना, अर्थ के गाने लिखे. बीच में सत्यकाम, अनुपमा, दिल की सुनो दुनिया वालों बनीं. ऋषिकेष मुखर्जी के साथ भी उन्होंने काम किया. अर्थ के गाने बहुत पॉपुलर हुए और फिल्म भी बहुत चली.
कैफी साहब का लिखने का अपना अंदाज था. जब डेडलाइन आती थी, तब वे लिखना शुरू करते थे. वो रात को गाने लिखने बैठते थे. उनका एक खास तरह का राइटिंग पैड होता था. वे सिर्फ मॉन्ट ब्लॉक पेन से लिखते थे. बाकी उनकी कोई जरूरत नहीं होती थी. ऐसा नहीं होता था कि बच्चों शोर मत करो, अब्बा लिखना शुरू कर रहे हैं. उनका अपना स्टडी का कमरा था, उसको वो हमेशा खुला रखते थे. हम लोग कूदम-कादी करते रहते थे. रेडियो चलता रहता था, ताश खेला जा रहा होता था. मैं हमेशा अब्बा से यह सवाल पूछती थी कि क्या गाने हकीकत की जिंदगी से प्रेरित होते हैं? अब्बा कहते थे कि शायर के लिए, राइटर के लिए, यह बहुत जरूरी है कि जो घटना घटी है, वह उससे थोड़ा सा अलग हो जाए, तब वह लिख सकता है. फिल्म की जो लिरिक राइटिंग है, वह महदूद होती है. वो सिचुएशन पर डिपेंड होती है. शायर जिंदगी को परखता है. जब आप जिंदगी के दर्द को महसूस करते हैं, जिंदगी से मुहब्बत महसूस करते हैं तब आप अपने अंदर के इमोशन से इन टच रहते हैं.
कैफी साहब ने गर्म हवा (1973) के डायलॉग लिखे, जो जिंदगी से जुड़े हुए थे. जावेद साहब को एक-एक डायलॉग याद हैं. मजेदार बात है कि गर्म हवा में सबको एक किरदार जो याद रहता है वह है बलराज साहनी की मां का, जो कोठरी में जाकर बैठ जाती है और कहती है कि यह घर मैं बिल्कुल नहीं छोड़ूंगी. यह किस्सा मम्मी की नानी के साथ हुआ था, जो उन्होंने कैफी साहब को सुनाया था, जिसे उन्होंने हूबहू लिख दिया था. गीता और बलराज जी के बीच में बहुत सारे सीन हैं. वह मेरे और अब्बा के बीच के रिश्ते से हैं. फारुक और गीता के बीच के सीन मेरे और बाबा के बीच के हैं. वो हमेशा अपने आस-पास की घटनाओं पर नजर रखते थे. मैं आजाद हूं फिल्म के गीत कितने बाजू कितने सर में उनकी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सक्रियता का असर देखा जा सकता है.
कैफी साहब ने बहुत मुख्तलिफ डायरेक्टरर्स के साथ काम किया. उस वक्त जिन लोगों का बहुत नाम था, जिनमें कैफी साहब, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, जां निसार अख्तर और शैलेंद्र थे, ये सब लेफ्टिस्ट मूवमेंट से जुड़े थे और सब प्रोग्रेसिव राइटर्स थे. उनके पास जुबान की माहिरी थी. उस जमाने में गानों में जो जुबान इस्तेमाल होती थी, वो हिंदुस्तानी थी और उसमें उर्दू बहुत अच्छी तरह से शामिल थी. चाहे आप शैलेंद्र को देख लें, साहिर को देखें, जां निसार अख्तर को देखें या फिर कैफी साहब को, सबके गीतों में बाकायदा शायरी और जिंदगी का एक फलसफा भी होता था.
कैफी साहब के लिखे तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो (अर्थ), कर चले हम फिदा (हकीकत), दो दिन की जिंदगी (सत्यकाम), जरा सी आहट (नौनिहाल), झूम-झूम ढलती रात (कोहरा), ये नैन (अनुपमा) मुझे बहुत पसंद हैं. मैं इन गीतों को बार-बार सुनती हूं. हां, पाकीजा (1972) फिल्म का चलते-चलते कोई यूं ही मिल गया था.. भी मुझे बहुत पसंद है.
आज जिस तरह के गाने लिखे जाते हैं और उनमें जिस तरह के अल्फाज होते हैं, उस पर मुझे बहुत अफसोस है. मैं सोचती हूं कि कहां चले गए वो गाने. आज हम हिंदी फिल्म के गानों को खो रहे हैं. मुझे लगता है कि यह हम गलती कर रहे हैं. जाहिर है कि वक्त के साथ सबको बदलना चाहिए, लेकिन हिंदी फिल्म की सबसे बड़ी ताकत उसका गाना है. यह उसे दुनिया के सभी सिनेमा से अलग बनाता है. अगर हम उसकी खूबी यानी यूएसपी को निकाल देंगे तो फिर हमारे पास रह क्या जाएगा? मुझे लगता है कि हमें इस दौर से निकलना चाहिए.
आजकल के गानों में अल्फाज सुनाई ही नहीं देते हैं. बिना अल्फाज के मुझे गाने का मतलब ही नहीं समझ में आता है. मैं सोचती हूं कि कब आएगा वह पुराना वक्त? मुझे यकीन है कि वह वक्त आएगा जरूर, क्योंकि आप देखिए जिस जमाने में एक लडक़ी को देखा तो ऐसा लगा.. गाना चल रहा था, उसी जमाने में सरकाई लेओ खटिया जाड़ा लगे भी चला था. ठीक वैसा ही दौर चल रहा है आज. हम लोगों के साथ ज्यादती कर रहे हैं. हम कहते हैं कि उनको अच्छे गीत का टेस्ट नहीं है, लेकिन अगर हम उन्हें वैसे गाने दे ही नहीं रहे हैं तो वो सुनेंगे कहां से? और फिर हम इस गलत नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि गाने की कोई अहमियत नहीं होती है. मुझे लगता है कि कैफी साहब की दसवीं सालगिरह पर हमें एक बार फिर कमिट करना चाहिए.. वो इतने बड़े शायर थे, हम उनके काम को उठाएं, संभालें, देखें और युवा लेखकों को प्रेरणा दें ताकि वे कुछ सीखें.
जब फूट-फूटकर रो पड़ीं शबाना
अर्थ
कैफी आजमी द्वारा लिखित अर्थ फिल्म के गीत तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो.. की शूटिंग दो दिन तक हुई थी. इस गीत की शूटिंग के दौरान हर शॉट के बाद शबाना आजमी की आंखों से बरबस आंसू निकल आते थे. बकौल शबाना, ‘‘मेरी आंखों से भर-भरकर आंसू निकल आते थे, क्योंकि वो इतनी नजाकत से लिखे हैं. कैसे बताएं कि वो तन्हा क्यों हैं.. इतनी खूबसूरती से यह गाना लिखा हुआ है.’’ कैफी आजमी के जीवन पर एक नज़र:-
-कैफी आजमी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में मिजवां ग्राम में 1919 में हुआ था.
-कैफी आजमी की जन्मतिथि उनकी अम्मी को याद नहीं थी. उनके मित्र डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर सुखदेव ने उनकी जन्मतिथि चौदह जनवरी रख दी.
-उन्होंने 1943 में कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली. बाद में वे प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के सक्रिय कार्यकर्ता बने.
-1951 में वे फिल्मों से जुड़े. शाहिद लतीफ की फिल्म बुजदिल में उन्होंने पहली बार गीत लिखे. बाद में उन्होंने हीर रांझा, मंथन और गर्म हवा फिल्मों का लेखन किया.
-कैफी आजमी ने सईद मिर्जा की फिल्म नसीम (1997) में अभिनय किया. यह किरदार पहले दिलीप कुमार निभाने वाले थे.
-कैफी आजमी केवल मॉन्ट ब्लॉक पेन से लिखते थे. उनकी पेन की सर्विसिंग न्यूयॉर्क के फाउंटेन हॉस्पिटल में होती थी. जब उनकी मौत हुई, तो उनके पास अट्ठारह मॉन्ट ब्लॉक पेन थे.
-कैफी आजमी को सात हिंदुस्तानी (1969) के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
-भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया था. इसके अलावा, उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं गर्म हवा (1975) के लिए सर्वश्रेष्ठ कथा, पटकथा एवं संवाद के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
-कैफी आजमी ने कुल अस्सी हिंदी फिल्मों में गीत लिखे हैं.
(जनवरी २०१२-फिल्मफेयर)
-रघुवेंद्र सिंह
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