Thursday, April 19, 2012

प्रतीक के जीवन के सबसे खास महिला से मिलिए


प्रतीक की दुनिया अपनी नानी विद्या पाटिल से शुरू होती है और उन्हीं पर खत्म हो जाती है. वे नानी को मां कहते हैं. मां-बेटे इस अनूठे रिश्ते की गहराई में उतरने का प्रयास कर रहे हैं रघुवेन्द्र सिंह.

प्रतीक सोलह दिन के थे, जब उनकी मां स्मिता पाटिल ने उन्हें अपनी मां विद्या पाटिल के सुपुर्द किया और दुनिया को अलविदा कह गईं. विद्या तीन बेटियों की परवरिश और उनकी शादी के पश्चात औपचारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुकी थीं. वे नाती के साथ बुढ़ापे का सुख लेने का इंतजार कर रही थीं, लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और तय कर रखा था. अचानक एक बार फिर विद्या पर मां की जिम्मेदारी आ गई. विद्या पाटिल कहती हैं, ‘‘मां की कमी को मैं पूरा तो नहीं कर सकती थी, लेकिन स्मिता ने मुझे जो जिम्मेदारी दी थी, मैं उसे सौ क्या, दो सौ प्रतिशत अच्छी तरह से निभाना चाहती थी.’’

प्रतीक की परवरिश में विद्या पाटिल को बेटी को खोने का गम भुलाने का बहाना मिल गया. वे अपना सारा समय प्रतीक के साथ गुजारती थीं. उन्होंने प्रतीक को बड़े लाड-प्यार से पाला है. वे बताती हैं,‘‘मराठी में अनाहुद बोलते हैं यानी मालूम नहीं होता, एक अंजाना सा डर हमेशा रहता था. मुझे डर लगा रहता था कि कोई प्रतीक को उठाकर न ले जाए, उसे कुछ हो न जाए. मुंबई में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं न. मैंने कभी उसे अपने से दूर नहीं छोड़ा.’’ मां के बगल में बैठे प्रतीक शांतिपूर्वक बड़े गौर से सारी बातें सुन रहे हैं.

प्रतीक के बचपन का जिक्र आता है और माहौल खुशनुमा बन जाता है. दरअसल, प्रतीक बचपन में बहुत नटखट थे. उन्होंने अपनी बाइक से घर की सीढिय़ां और कुछ कोने तोड़े हैं और बल्ले से कांच का बंटाधार किया है. प्रतीक की दूसरी मासूम शरारतों के बारे में विद्या हंसते हुए कहती हैं, ‘‘घर में कहीं छुपकर बैठ जाता था और फिर किसी से कहता था कि जाकर मां से बोलो कि मुझे ढूंढें. किसी कबर्ड में छुप जाता था, बाथरुम में छुप जाता था. ये मेरे साथ किचन में रहता था. मैंने इसके लिए चौकी-बेलन खरीद दिया था. ये बैठकर रोटी बनाता था.’’ प्रतीक की शरारतों को याद करते-करते अचानक उन्हें बेटी की याद आ जाती है. ‘‘यह सब देखकर मुझे कभी-कभी रोना आता था. उसकी शरारतें देखने के लिए उसकी मां नहीं थी.’’

प्रतीक जिद्दी भी बहुत थे. उन्हें क्रिकेट खेलने का शौक आठ साल की उम्र में लग गया था. नाना जब कभी विदेश जाते तो वे उनसे बल्ला लाने की जिद करते थे. विद्या बताती हैं कि क्रिकेट के लिए यह पागल रहता था. घर में आठ-दस बैट पड़े हैं. प्रतीक बीच में बोल पड़ते हैं, ‘‘मैं घर में भी क्रिकेट खेलता था. कभी-कभी तो सीजन बॉल से खेलता था.’’ प्रतीक की मां ने चार साल की उम्र में उनका एडमिशन कराटे की क्लास में करवाया. फिर हारमोनियम सीखने के लिए भेजा, लेकिन प्रतीक का मन कहीं नहीं लगा. विद्या कहती हैं, ‘‘इसका मन बहुत जल्दी किसी चीज से हट जाता है. मुझे नाम याद नहीं है, लेकिन मैंने इसे बारह चीजों की क्लास में भेजा. मगर यह कहीं टिका नहीं.’’

प्रतीक को उनकी मां प्यार से चिमनी (चिडिय़ा), छोटी चिमनी, चू और पिटलू बुलाती हैं. इसके पीछे की वजह पूछने पर विद्या हंसती हैं, ‘‘यह छोटी चिडिय़ा की तरह हमेशा चू-चू करता रहता था.’’ अपने इन सीक्रेट नाम का खुलासा होते देख प्रतीक शरमा जाते हैं. उनकी बड़ी मौसी अनीता गुजारिश करती हैं कि इन नामों के बारे में न लिखें. प्रतीक का मन पढ़ाई में कभी नहीं लगा, लेकिन वे खेलकूद में खूब रुचि लेते थे. प्रतीक बचाव के लहजे में कहते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है कि मुझे पढ़ाई बिल्कुल पसंद नहीं थी, लेकिन मैं बोर जल्दी हो जाता था. स्पोट्र्स में मेरा ज्यादा इंट्रेस्ट था. मैं स्कूल के सभी कैंप्स में जाता था.’’

प्रतीक के एक और राज का खुलासा उनकी मां ने इस बातचीत में किया. उन्होंने बताया कि प्रतीक बचपन से ही लड़कियों से बहुत शर्माता है. उनके शब्दों में, ‘‘लडक़ी देखी नहीं कि यह छुप जाता था. मालूम नहीं क्यों? कितने लडक़े लड़कियां देखकर उनसे चिपक जाते हैं, लेकिन ये जब लड़कियां इसके साथ खेलने के लिए आती थीं, तो बाथरुम में छुप जाता था.’’ इसका कारण पूछने पर बगल में बैठे प्रतीक शरमा जाते हैं. ‘‘मैं आज भी लड़कियों से शर्माता हूं. उनकी अटेंशन से मैं अजीब सा हो जाता हूं. जैसे हाल में मैं एक प्रमोशन के लिए गया था. एक लडक़ी ने आकर सीधे चेहरे पर पूछ लिया कि क्या आप सिंगल हो? क्या आपको गर्लफ्रेंड चाहिए? मुझ बहुत शर्म आती है इन चीजों से.’’

विद्या पाटिल ने कभी इस बात का प्रचार नहीं किया कि प्रतीक स्मिता पाटिल के बेटे हैं. वे कहती हैं, ‘‘हम कभी किसी से नहीं बोलते थे कि ये स्मिता पाटिल का बेटा है. नई जेनरेशन को मालूम भी नहीं है कि स्मिता पाटिल कौन है? वैसे भी हमें ढिंढोरा पीटना पसंद नहीं है. हम बहुत सरल लोग हैं.’’ प्रतीक का कहना है कि स्कूल में कभी-कभी लोग आकर मम्मी-पापा के बारे में पूछते थे. लेकिन कभी किसी ने मुझे स्पेशल अटेंशन नहीं दी कि ये फलां सेलीब्रिटी का बेटा है.
प्रतीक ने किसी तरह बारहवीं की पढ़ाई पूरी की. उसके बाद आगे की पढ़ाई करने से उन्होंने मना कर दिया. विद्या कहती हैं, ‘‘बारहवीं करके इसने मेरे ऊपर मेहरबानी की. मैंने चैन की सांस ली जब इसने बारहवीं की पढ़ाई पूरी की.’’ प्रतीक एक दिन अभिनेता बनेंगे, इसका अंदाजा उनकी मां को भी नहीं था. उनकी क्रिकेट में गहरी रुचि थी. अनुमान लगाया जा रहा था कि वे क्रिकेट में करियर बनाएंगे, लेकिन कुछ वक्त के बाद क्रिकेट से भी प्रतीक का मन हट गया. बकौल प्रतीक, ‘‘बारहवीं तक मैंने क्रिकेट की कोचिंग सीरियसली ली थी, लेकिन बाद में मैं दोस्तों के साथ ज्यादा बाहर जाने लगा. मस्ती ज्यादा होने लगी और क्रिकेट छूट गया.’’

विद्या पाटिल की ख्वाहिश थी कि प्रतीक अभिनय में जाएं. उन्होंने उनका एडमिशन सुभाष घई के एक्टिंग स्कूल व्हिसलिंगवुड में करवाया, लेकिन वहां दो महीने में प्रतीक ने एक बार अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी. फलस्वरुप उन्हें एक्टिंग स्कूल से निकाल दिया गया. विद्या पाटिल बताती हैं, ‘‘इसकी मां इतनी बड़ी एक्ट्रेस थीं तो मैं सोचती थी कि ये उस लाइन में जाए. लेकिन ये कहीं टिकता ही नहीं था. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं इसका क्या करुं. प्रहलाद हमारे पुराने मित्र हैं. स्मिता के अच्छे दोस्त थे. मैंने प्रतीक को उनके पास भेजा. प्रहलाद ने पहले ही दिन ऑफिस में सभी लडक़े-लड़कियों के सामने बोला कि जाओ और संडास साफ करो. इसने साफ किया, लेकिन शाम को रोते हुए मेरे पास आया. मैंने इसे समझाया कि किसी भी काम को छोटा नहीं समझना चाहिए.’’

प्रतीक के करियर को लेकर विद्या पाटिल की फिक्र तब कम हुई, जब प्रहलाद के ऑफिस से अब्बास टायरवाला की पत्नी पाखी ने प्रतीक को जाने तू या जाने ना फिल्म के लिए चुना. विद्या बताती हैं, ‘‘प्रतीक घर आया और बोला कि मां, मैं शूटिंग के लिए अलीबाग जा रहा हूं. आमिर खान के प्रोडक्शन की फिल्म है. सच्ची बोलूं तो मुझे मालूम नहीं था कि आमिर खान कौन है. मैं सिनेमा देखती नहीं ना. हमारा फिल्म लाइन से कोई संबंध नहीं है.’’ स्मिता पाटिल की मां अगर यह कहें कि उनका फिल्म लाइन से कोई ताल्लुक नहीं तो चौंकना लाजमी है. उन्होंने बताया कि हमारी पॉलिटिकल-सोशल लाइफ रही है. इंडस्ट्री से स्मिता का संबंध था. मैं न तो कभी स्मिता के फिल्म के सेट पर गई और न ही प्रतीक के.

जाने तू या जाने ना फिल्म प्रतीक ने मौज-मस्ती करने के लिहाज से साइन की थी, लेकिन उसके उत्साहजनक रिस्पांस ने उन्हें अभिनय के बारे में गंभीरता से सोचने के लिए विवश कर दिया. प्रतीक बताते हैं, ‘‘मैंने सोचा कि छोटा सा रोल है, थोड़ा सा डायलॉग है, बोलकर आ जाऊंगा. लीड रोल क्या होता है, हीरोइन क्या होती है, बड़ा बैनर क्या होता है, पॉलिटिक्स क्या होती है, मुझे कुछ नहीं मालूम था. मुझे पता था कि वहां स्विमिंग पूल है. वहां जाऊंगा और खूब स्विमिंग करुंगा. मैं शूट करके वापस मुंबई आया और वापस अपनी जिंदगी जीने लगा.’’

विद्या पाटिल लाडले बेटे की लाइफ के उस सबसे खूबसूरत पल, जिसे टर्निंग प्वाइंट कहा जा सकता है, को आज भी नहीं भूली हैं. वे जाने तू या जाने ना फिल्म के प्रीमियर पर गई थीं. विद्या उत्साह पूर्वक उस पल को याद करती हैं, ‘‘मैं प्रतीक को स्क्रीन पर देखकर खुशी के मारे जोर-जोर से हंसने लगी. सच कहूं तो फिल्म देखते समय मुझे हर क्षण पर स्मिता की याद आ रही थी. मैंने मन में ही बोला कि बस, अब प्रतीक को लाइन मिल गई. मेरी सारी चिंता खत्म हो गई कि यह क्या करेगा.’’ विद्या आगे कहती हैं, ‘‘इसकी मां के साथ भी ऐसा ही हुआ था. पहले श्याम बेनेगल को लगा कि वह एक्टिंग कर सकती है. उसके बाद हमें पता चला. प्रतीक के मामले में पहले पाखी को लगा कि यह एक्टिंग कर सकता है. फिर हमें इसका एहसास हुआ. मेरी खुशकिस्मती की पाखी आईं. मुझे अक्ल आई कि इसे प्रहलाद के पास भेजा. हमारी फैमिली का लक था या इसकी मां ने इसे बुद्धि दी, जो भी था, लेकिन इसका एक्टिंग में आना लिखा था.’’

प्रतीक के सहज अभिनय की सराहना हर कोई करता है. विद्या मानती हैं कि प्रतीक के अभिनय में स्मिता पाटिल जैसी सहजता है. वे कहती हैं, ‘‘उसकी मां की सारी चीजें इसमें हैं. यह नैचुरल काम करता है. प्रतीक नसीब वाला है. इसे अच्छे डायरेक्टर मिले हैं. अब इसको मेहनत करनी होगी और बहुत आगे जाना होगा. मैं इससे कहती हूं कि मेहनत करो, टाइम से सेट पर जाओ. भाषा पर मेहनत करो. इसकी मां को आठ-दस भाषाएं आती थीं.’’ प्रतीक अपनी मां की यह बातें गौर से सुनने के बाद कहते हैं, ‘‘मुझमें कमियां हैं, लेकिन मैं मेहनत करुंगा. मां कहती हैं कि धक्का लगेगा तब सीखूंगा. मुझे लंबी रेस का घोड़ा बनना है.’’

प्रतीक और उनकी मां के बीच कुछ बातों को लेकर अक्सर बहस होती है, लेकिन उनका हल आज तक नहीं निकल पाया है. विद्या कहती हैं कि उनके बारे में प्रतीक ही बताए तो अच्छा है. प्रतीक बताते हैं, ‘‘मेहनत करो, टाइम पर खाना खाओ, क्या खाना खाया, सिगरेट पीना बंद करो, गाड़ी धीरे चलाया करो, दुनियादारी सीखो.’’ इस फेहरिस्त के बाद प्रतीक की मां ने कहा, ‘‘इसे दुनियादारी की बिल्कुल नहीं समझ है. इसका कोई भी दोस्त इससे मीठी बात करता है और ये उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है. ये बच्चा समझता नहीं है कुछ. बहुत सिंपल है.’’ और वे एक वाकया बताती हैं, ‘‘एक दिन ये ढेर सारे कपड़े लेकर घर आया. मैंने पूछा कि इतने कपड़े क्या होंगे? इनका बिल कहां है? इसने कहा कि पैसे नहीं देने हैं. मैंने इससे कहा कि किसी ने दुकान ऐसे लुटाने के लिए नहीं खोली है. और एक साल बाद उन कपड़ों का लंबा सा बिल आया. मुझे झक मारकर पैसे देने पड़े.’’

प्रतीक के स्वभाव में यह बात स्मिता पाटिल से आई है. वे भी बिल्कुल सहज और सरल इंसान थीं. वे भी दुनियादारी से अंजान थीं. प्रतीक कहते हैं कि मां ने मुझे बताया है कि वे बहुत सच्ची इंसान थीं. हर चीज दिल से करती हैं. पता नहीं वह चीज मुझमें है कि नहीं, लेकिन उनके बारे में ऐसी बातें सुनकर अच्छा लगता है मुझे. विद्या पाटिल ने प्रतीक को स्मिता पाटिल की फिल्में नहीं दिखाई हैं. वे बताती हैं, ‘‘मैंने कभी प्रतीक को स्मिता की फिल्म नहीं दिखाई. क्या होता था कि उसकी फिल्म देखते हुए मुझे बहुत रोना आता था तो इसे ठीक नहीं लगता था. यह उठकर चला जाता था. मैंने कभी प्रतीक से नहीं कहा कि तू बैठ और उसकी फिल्म देख.’’

मां में प्रतीक की जान बसती है. वे उनके बिना अपनी कल्पना नहीं कर पाते हैं. प्रतीक कहते हैं, ‘‘मैंने मां से कह रखा है कि जब तक मैं बूढ़ा नहीं हो जाता, तब तक आपको मेरे साथ रहना है. अगर आपने मुझे छोड़ा तो मैं काम छोड़ दूंगा और शादी भी नहीं करुंगा. अगर मैं इन्हें देखूं नहीं और इनकी आवाज न सुनूं तो मेरे मन में बेचैनी सी होती है.’’ प्रतीक की यह बातें सुनकर विद्या पाटिल भावुक हो जाती हैं. उन्होंने प्रतीक की पीठ पर हाथ फेरते हुए भर्रायी आवाज में कहा, ‘‘पागल है ये. मैं बस यही चाहती हूं कि मेरे रहते हुए यह नाम कमा ले. उस दिन मैं समझूंगी कि मेरी परवरिश अच्छी रही. और मुझे पक्का यकीन है कि यह एक दिन नाम जरुर कमाएगा.’’

प्रतीक हाल में अपने नए घर में शिफ्ट हुए हैं. वह बांद्रा में ही मां के घर से पांच मिनट की दूरी पर स्थित है. आजकल वे उसकी इंटीरियर डेकोरेशन में बिजी हैं. उसी काम के सिलसिले में उन्होंने हमेशा विदा ली और बड़ी मौसी के साथ रवाना हो गए. उनके रुखसत होने के बाद उनकी मां ने कहा, ‘‘उसके सामने मैं नहीं बोल सकती थी, लेकिन मेरी जिंदगी का अब क्या भरोसा है. मेरी दोनों लंगस का ऑपरेशन हो चुका है. मैं ऑक्सीजन पर रहती हूं. मैं बस उसका नाम होते हुए देखना चाहती हूं. मैं चाहती हूं कि वह जल्द से जल्द दुनियादारी सीख जाए.’’

स्मिता पाटिल के बाद अब प्रतीक के रुप में विद्या पाटिल ने हिंदुस्तानी सिनेमा में जो योगदान दिया है, उसके लिए हिंदी सिनेमा उनका सदैव आभारी रहेगा.









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