Friday, June 12, 2020

"अपने बचपन के नायक के सामने खड़े होकर उसे भला-बुरा कहना आसान नहीं रहा होगा आयुष्मान के लिए..." ✍ रघुवेन्द्र सिंह 


शूजित सरकार और जूही चतुर्वेदी की गुलाबो सिताबो आज रिलीज़ हो गयी है. अब तक न देखें हों भइया तो देख लीजिये. पुराने लखनऊ के बुढऊ नवाब मिर्ज़ा (अमिताभ बच्चन) की कहानी है. जो आत्मलिप्त हैं.. स्वार्थी हैं...  लालची हैं... चोर भी हैं. अपनी बेग़म के इंतकाल का इंतज़ार कर रहे हैं, ताकि जंजर हवेली उनके नाम हो सके. जवानी में उन्होंने बेगम से निकाह इसी हवेली के लालच में किया था. बुढ़ापा आ गया और आज भी उनकी ख्वाहिश पूरा होने की राह पर अटकी हुई है. अब इस उम्र में हवेली अपने नाम करवाकर मिर्ज़ा साहब क्या करेंगे, वह तो वही साहब जानें। किसी जमाने से कुछ किरायेदार उनकी हवेली में बस गए हैं और अब वह उनकी गले की हड्डी बन गए हैं. अब वो खुद को इसी हवेली का हिस्सा मानते हैं. उन्हीं में एक हैं अपने बांके रस्तोगी (आयुष्मान खुराना). बांके और मिर्ज़ा साहब जब भी एक-दूसरे के आमने-सामने आते हैं, सिर्फ तू-तू-मैं-मैं होती है. बांके और अन्य किरायेदार मिर्ज़ा को अपना दुश्मन मानते हैं. ऊपरी तौर पर गुलाबो सिताबो एक मकान मालिक और उसके किरायेदारों की कहानी नज़र आती है लेकिन असल कहानी तो मिर्ज़ा और उनकी बेगम की है. इंसान हो या वस्तु, उसका सही मोल अमूमन उसके हाथ से जाने के बाद ही समझ में आता है. 

अद्भुत अमिताभ बच्चन ने एक बार फिर चौंकाया है. उनके यादगार किरदारों में एक है- मिर्ज़ा। इस किरदार के लिए उन्होंने अपने अस्तित्व को मिटा दिया है और लखनवी मिर्ज़ा के नए सांचे में पूरी तरह ढल गए हैं. उनका चेहरा, चाल-ढाल, बोलचाल, परिधान, रवैया सब कुछ नया है. आँखों में एक स्थिर भाव है, जो पूरी रवानी के साथ फिल्म के अंत तक ठहरा रहता है. बेमिसाल हैं बच्चन! यकीनन ऐसा सिर्फ वही कर सकते हैं. उन्होंने इस फिल्म से एक बार फिर लेखकों और निर्देशकों के सामने चुनौती पेश की है कि वह आपकी कल्पना के परे जा सकते हैं. जूही चतुर्वेदी का धन्यवाद जो उन्होंने मिर्ज़ा की रचना की. आयुष्मान खुराना गुलाबो सिताबो में अपनी रौ में आगे बढ़ते दिख रहे हैं. अल्पशिक्षित बांके की सीमाओं और चुनौतियों को उन्होंने बखूबी समझा और जिया है. इस चरित्र के लिए उनका समर्पण और मेहनत काबिलेतारीफ है. अपने बचपन के महानायक के सामने खड़े होकर उसे भला-बुरा कहना आसान नहीं. बड़ा मज़ा आया फारूक जफ़र को बेग़म के रूप में देखकर. उफ्फ! शानदार अभिनय किया है उन्होंने. काश उनके लिए लेखक ऐसे ही रोचक-लज़ीज़ किरदार और लिखते ताकि हमें उन्हें स्क्रीन पर देखने का अवसर ज़्यादा मिलता. विजय राज और विजेंद्र काला तो हैं ही धुरंधर कलाकार! उनकी मौजूदगी एक फिल्म को मज़बूत बनाने के लिए काफी होती है. 

जूही चतुर्वेदी और शूजित सरकार वर्तमान समय की एक ऐसी लेखक-निर्देशक की जोड़ी हैं, जिनकी हर फिल्म बहुप्रतीक्षित रहती है. इस जोड़ी का कोई सानी नहीं है. गुलाबो-सिताबो में यदि जूही के शब्दों का जादू उभरकर आया है तो शूजित के निर्देशन का रंग भी दमक रहा है. जूही की खासियत है कि वह जिस परिवेश को अपनी कहानी में चुनती हैं, शब्दों का जाल उसी अनुरूप बुनती हैं. उन्होंने गुलाबो-सिताबो में स्थानीय शब्दों और मुहावरों का जमकर बेझिझक इस्तेमाल किया है. हमेशा की तरह इसमें भी उनके महिला चरित्र मुखर हैं, बेबाक हैं. बस इसमें एक कमी इस बात की खलती है कि उन्होंने समय काल रेखांकित नहीं किया है. जिसके कारण कई सवाल उठते हैं. हाँ, इस फिल्म को आपको थोड़ा धैर्य के साथ देखना पड़ेगा. आपके हाथ में इस समय फॉरवर्ड करने की सुपर पावर मौजूद है तो उसका इस्तेमाल सोच-समझ कर कीजियेगा जनाबशूजित और जूही की जोड़ी बनी रहे! 

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