Saturday, May 23, 2020

"मेरी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है।" -अनुभव सिन्हा

बनारस की मिटटी की सुगंध को बाज़ार भला कब तक दबा कर रख सकता था! बॉक्स-ऑफिस की सांप-सीढ़ी पर कई बार चढ़ने-गिरने के बाद आखिरकार मुल्क, आर्टिकल 15 और थप्पड़ फिल्मों से अनुभव सिन्हा को अपनी सिनेमाई ज़मीन मिल गई. उनका सिनेमा अब समाज का आइना बन चुका है. सवाल पूछना उनकी आदत बन चुकी है. बात चाहे उनके नए सिनेमा की हो या वास्तविक जीवन की. अगर आप उनके सोशल मीडिया पर ध्यान दें तो वह सरकार, समाज और प्रशासन से निर्भीकता से तीखे सवाल रोज़ करते रहते हैं. ट्रोल भी ज़बरदस्त होते हैं. गालियां भी खूब पड़ती हैं, लेकिन इन सबसे उनके विचार और व्यवहार में लेस मात्र का फर्क नहीं पड़ता. उनका बेबाक और संवेदनशील व्यक्तित्व अब मुखर है. #रघुवार्ता में हमने उनसे कोरोना काल में सिनेमा, समाज, थिएटर बनाम ओटीटी, देश की वर्तमान तस्वीर और फिल्म निर्माण की नयी चुनौतियों पर सवाल किये... जवाब आप पढ़ें और अपने विचार साझा करें.


वर्ष 2018 में आपके जीवन में कौन-सी घटना घटी कि आपके अंदर का निर्देशक अचानक बदल गया. दस, तथास्तु, कैश, रा.वन और तुम बिन 2 के निर्देशक ने मुल्क जैसी एक झकझोर देने वाली फिल्म बनायी। और तबसे यह सिलसिला आर्टिकल 15 और थप्पड़ के साथ जारी है. 
नाराज़गी थी शायद। अपने मुल्क से। अपने आप से। वो दिनकर जी की कविता में है ना 'जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध'। मैं अपराधियों की फ़ेहरिस्त से निकलने को इतना बेचैन था कि बोलना ज़रूरी हो गया। दिल से निकली थी बात सो दिल तक पहुँची। फिर लगा अब दिल की ही बात करेंगे।

मुल्क से फिल्म निर्देशन और विषयों के चुनाव में आपकी दिशा और राह बदली. इस बदलाव का ज़रूरी एहसास कब और क्यों हुआ?
अब विषयों का चुनाव नहीं करता मैं। विषय मुझे चुनते हैं। इतना भर जाते हैं मेरे अंदर कि मेरा फट जाना ज़रूरी हो जाता है। अब कोई विज्ञान नहीं है इस में कि मुझे कौन सी फ़िल्म बनानी है। अब तो बस इतना है की वो क्या है जो सोने नहीं दे रहा। और ज़रूरी नहीं है कि हमेशा ऐसा रहे।

मुल्क 

क्या बाज़ार के दबाव में आपने अपनी अंतरात्मा को दबा दिया था? हालाँकि आप पर कोई दबाव बना सके, ऐसा मुमकिन नहीं लगता.
ना ना। वो मैं ही था। तब मैं चुनता था फ़िल्में। मेरा, सही या ग़लत, विज्ञान था एक। छोटे शहर का, निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का मुंबई की चकाचौंध रौशनी में धीरे धीरे अपनी आँखें खोलने की कोशिश कर रहा था। समय लगना ही था। यही पता नहीं था कि फ़िल्में बनाते क्यों हैं।

आप एक संवेदनशील जागरूक नागरिक हैं. देश की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियां आपकी दिनचर्या और जीवन को किस कदर प्रभावित करती हैं?
जितने तरीक़े से प्रभावित किया जा सकता है उतने तरीक़े से करती हैं। मुंबई से गोरखपुर जाती ट्रेन जब उड़ीसा पहुँच जाती है तो कष्ट होता है। उन श्रमिकों के लिए जो अंदर हैं। ग़ुस्सा आता है। बहुत ज़्यादा ग़ुस्सा आता है। फिर बोलता हूँ। फिर गाली सुनता हूँ। डर भी जाता हूँ। पर फिर बोलता हूँ।


राजनितिक सन्दर्भ में बात करें तो क्या आप हमेशा विपक्ष में रहेंगे? या फिलहाल पक्ष की बजाय विपक्ष में रहना आपके हिसाब से देश की लिए हितकारी है?
जो सही लगेगा वो कहूँगा। जब तक कह सकूँगा। मेरी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। मोदी जी के विरुद्ध भी बोलता हूँ और समूचे विपक्ष के विरुद्ध भी। सो मेरे पक्ष का सरकार से कोई लेना देना नहीं। सही ग़लत से है। वो जो मुझे सही लगे। वो ग़लत भी हो सकता है। पर अपने आप से तो ईमानदार रहूँ?

एक देश और समाज के तौर पर क्या हमने अपने मजदूर वर्ग को निराश किया है? आपको नहीं लगता कि मजदूरों के नाम पर राजनीति करने वाली राजनितिक पार्टियों और समाज को इस समय सड़क पर होना चाहिए?
निराश किया है? मतलब हमने उनके सीनों में छुरे भोंके हैं। पीठ में भी नहीं। जब वो सारे पैदल हज़ारों किलोमीटर अपने घर जा रहे थे अपने भूखे बच्चों के साथ भूखे प्यासे, इस देश के सब से ताक़तवार, क़द्दावर नेताओं ने एक शब्द नहीं बोला उनके लिए। एक शब्द। उन्हें ही नहीं, हम सबको सड़क पर होना चाहिए था। उन्होंने बनाए हैं ये शहर। वो चलाते हैं ये शहर। हम न उन्हें ढंग से रोटी देते हैं, ना उनके बच्चों को शिक्षा। क्योंकि पढ़ा लिखा दिया तो शहर कौन चलाएगा। गटर में कौन उतरेगा।

थप्पड़ 

सोशल मीडिया पर आप अक्सर ट्रोलर्स के निशाने पर रहते हैं. खुलेआम नफरत और गाली-गलौज अब इतनी आम बात क्यों है? क्या यह हमारी भारतीय संस्कृति के विरुद्ध नहीं है?
उन बेचारों को भारतीय संस्कृति के बारे में पता नहीं। बेकार थे बच्चे। अब काम मिल गया। जैसा भी है। काम है। उस दिन देखा था एक मज़दूर सड़क पर बिखरा हुआ खाना खा रहा था बीच सड़क??? भूखा था। इतना भूखा कि कुछ भी खा ले। ये बच्चे भी इतने बेकार हैं कि कुछ भी काम करवा लो।

कोरोना वायरस ने देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है. आप निर्देशक होने के साथ एक निर्माता भी हैं. फिल्म उद्योग जगत इस समस्या से कैसे निबटेगा? 
थोड़ा सुधारता हूँ प्रश्न। कोरोना वाइरस ने देश की अर्थव्यवस्था की बची खुची कमर तोड़ दी है। मुझे लगता है कि अभी ऊँट ने बैठना शुरू भी नहीं किया है। किस करवट बैठेगा ये पता चलने में समय है। सरकारें और उद्योग चाहते हैं कि जल्दी शुरू हो सब, पर समस्या अभी पूरी तरह सामने आयी भी नहीं है.

आर्टिकल 15 

क्या ओटीटी प्लैटफॉर्म्स को अब दर्शकों का नया थियेटर मान लिया जाये? क्या सिनेमाहॉल्स का अस्तित्व अब खतरे में है?
बिलकुल नहीं। सिनेमा न कहीं गया, न कहीं जाएगा। हर दस साल में एक नयी टेक्नॉलजी आती है और लगता है कि बस अब सिनेमा खतम। उसके बाद बॉक्स-ऑफ़िस की औक़ात बढ़ती ही है, कम नहीं होती। ठहरिए। कोरोना ख़त्म होने दीजिए, फिर बात करेंगे। OTT भी यहीं रहेगा और सिनेमा भी। TV तो ख़ैर है ही।

फिल्म बिरादरी हमेशा सत्ता के साथ ही क्यों चलती है? एक जागरूक और प्रभावशाली नागरिक होने के नाते क्या इनका फ़र्ज़ नहीं है कि सही की प्रशंसा करने के साथ गलत पर प्रश्न भी करें?
पूर्णतया सत्य नहीं है। पर हाँ कमोबेश सत्य ही है। अपनी-अपनी ज़रूरतें होती हैं। अपने-अपने कारण होंगे। फ़र्ज़ वर्ज़ का तो मियाँ ऐसा है की पुराने जमाने की बातें हैं। अब तो तर्ज़ है। और हर तर्ज़ पर नाचा भी जा सकता है। नाचते हैं लोग। आइने नहीं होंगे घर में।

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