'बाइस्कोप देखकर बच्चे खराब हो जाते हैं।' मेरे कलकतिहवा बाबा (कलकत्ता रिटर्न) हमेशा यह बात कहा करते थे। उनकी यह बात छोटे बाबा, आजी, चाचा, पापा और आधुनिक सोच रखने वाली मेरी अम्मा के मस्तिष्क में भी बैठ चुकी थी। यह वजह है कि हमारे घर के किसी भी सदस्य, चाहे वह बच्चे हों या बड़े, को बाइस्कोप देखने की छूट नहीं थी। लड़कियों को तो बिल्कुल ही नहीं। मैं आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) के बगहीडाड़ गांव में पला-बढ़ा हूं। सन् 1991-92 की बात है। मुझे अच्छी तरह याद है, पूरे गांव में एकमात्र मेरे घर पर टीवी था। वह ब्लैक एन व्हाइट था। वह टीवी केवल उसी वक्त स्टार्ट किया जाता था, जब समाचार आ रहा होता था या फिर कोई धार्मिक या देशभक्ति सीरियल। टीवी घर से बाहर बैठक में लगाया गया था। ताकि घर की औरतें कोई कार्यक्रम न देख सकें। टीवी देखने से आंखें खराब हो जाती हैं और सबकी आदतें भी। समय की बर्बादी तो होती ही है। यह कलकतिहवा बाबा कहते थे। हां, कोई बढिय़ा बाइस्कोप आता था तो कलकतिहवा बाबा खुद ही घर की औरतों और बच्चों को बुलवा लेते थे। बढिय़ा बाइस्कोप से उनका तात्पर्य यह था जिसे सपरिवार देखा जा सके। उनमें धार्मिक एवं पारिवारिक बाइस्कोप के नाम आते थे। हीरो-हीरोइन के रोमांस एवं मार-धाड़ वाला बाइस्कोप देखने की इजाजत बिल्कुल नहीं थी।
नटखट विद्या बालन की मस्ती
मेरे मंझले चाचा की बेटी वंदना गोरखपुर में अपने मामा के यहां रहकर पढ़ाई करती थीं। वे मुझसे चार साल बड़ी हैं। उस वक्त मैं उनका सबसे प्यारा भाई और दोस्त हुआ करता था। दीदी के हिसाब से उनके मामा-मामी आधुनिक थे, क्योंकि वे लोग फिल्में देखना बुरी बात नहीं मानते थे। मैंने दीदी से अप्रत्यक्ष रूप से सीखा कि बाइस्कोप को फिल्में भी कहते हैं। अब मैं बाइस्कोप को फिल्म कहने लगा। दीदी माधुरी दीक्षित की बहुत बड़ी फैन थीं। वे माधुरी की प्रत्येक फिल्म रिलीज होते ही सिनेमाहाल में जाकर देख लेती थीं। फिल्म देखने के तुरंत बाद वे गोरखपुर से मुझे चिट्ठी लिखकर भेजतीं। उस चिट्ठी में वे अपना समाचार कम लिखतीं और माधुरी की फिल्मों के बारे में विस्तार से बताती थीं। माधुरी की 'साजन', 'बेटा', 'खलनायक' और 'दिल तो पागल है' फिल्में मैंने उनकी चिट्ठियों के जरिए देखी हैं। जिस चिट्ठी में वे लिखती कि मैं फलां तारीख को घर आ रही हूं तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। मैं बेसब्री से उनका इंतजार करता था। जैसे ही वे घर आतीं, मैं उनके पीछे-पीछे लग जाता था। अमूमन वे गर्मियों की छुट्टी में घर आती थीं। हम सब गर्मी में घर की छत पर सोते थे। रात को जल्दी से खाना खाकर हम छत पर बिस्तर लगा लेते और दीदी जैसे ही छत पर आतीं, घर के सभी लडक़े-लड़कियां उन्हें घेरकर बैठ जाते। उसके बाद वे फिल्मों की कहानी विस्तार से बतातीं। फिल्म की कहानी बताते समय वे माधुरी के लटके झटकों, मुस्कुराहट और उसकी अदाओं को एक्ट करके बताती थीं। बड़ा मजा आता था।
माधुरी दीक्षित जैसा कोई नहीं
अब मैं भी माधुरी दीक्षित का फैन बन चुका था। जिस अखबार या मैगजीन में माधुरी की तस्वीर दिख जाती, उसे काटकर रख लेता था। नए वर्ष पर भेजने वाले ग्रीटिंग कार्ड भी माधुरी की फिल्मों वाले खरीदता था। मेरे स्कूल की कॉपी और किताबों की जिल्द पर माधुरी की तस्वीर वाले कवर चढ़ चुके थे। मैं पढ़ाई शुरू करने से पहले किताबों को प्रणाम करता तो मेरी अम्मा पूछ देती थीं कि तुम विद्या मां के पैर छूते हो या माधुरी दीक्षित के? उन दिनों माधुरी का एक गाना दीदी तेरा देवर दीवाना खूब बज रहा था। हर तरफ उस गाने के बारे में लोग बात कर रहे थे। दीदी ने भी मुझे चिट्ठी लिखकर बता दिया था कि माधुरी की बेस्ट फिल्म है, हो सके तो इसे जरूर देखना। मैंने अम्मा से वह फिल्म देखने की गुजारिश की, लेकिन जवाब ना मिला।
मेरी अम्मा जन्मदिन का केक खिलाती हुईं
गर्मी की छुट्टियां शुरू हो चुकी थीं। मुझे और छोटे भाई को लेकर अम्मा मामा के गांव कपरियाडीह गयी थीं। कपरियाडीह मऊ के घोसी जिले में पड़ता है। मामा के गांव पहुंचकर मैंने देखा कि वहां भी दीदी तेरा देवर दीवाना का शोर मचा हुआ है। मेरी दोनों मौसी, मामी और उनकी बेटी अम्मा से हम आपके हैं कौन फिल्म दिखाने की जिद करने लगीं। अम्मा ने पूछा कि हम आपके हैं कौन किसकी फिल्म है? उन्होंने बताया कि यह वही फिल्म है जिसका गाना दीदी तेरा देवर दीवाना आजकल खूब बज रहा है। उन लोगों ने अम्मा को बताया कि पड़ोस के कुछ लोग फिल्म देखकर आए हैं। वे बता रहे हैं कि पारिवारिक फिल्म है। इसे जरूर देखना चाहिए। मामा के यहां भी किसी को सिनेमाहाल में फिल्म देखने की इजाजत नहीं थी। अम्मा नाना-नानी की दुलारी बेटी हैं। सबको पता था कि यदि वे सबको फिल्म दिखाने ले जाएंगी तो कोई मना नहीं करेगा। अम्मा ने सबकी बात सुन ली और हम आपके हैं कौन देखने जाने के लिए हां कह दिया। अब समस्या यह थी कि सब लोग जाएंगे कैसे? अम्मा ने एक जीप बुक की। इस बात की जानकारी जब पड़ोस की औरतों को मिली तो वे भी फिल्म देखने जाने के लिए तैयार हो गयीं।
जानकी कुटीर की होली पार्टी में अपनी प्रेरणा शबाना आज़मी के संग
एक दिन पहले ही घर के सभी लोग फिल्म देखने की तैयारी में लग गए। सबने नए कपड़े निकालकर रख लिए। जिस कपड़े की क्लिच बिगड़ गयी थी, उसे प्रेस किया गया। ऐसा लग रहा था जैसे घर में शादी होने वाली है। दूसरे दिन सुबह उठकर फटाफट सब नहा धोकर तैयार हो गए। जीप आने में थोड़ी देर हुई तो लोग व्याकुल हो गए। नाना को भेजकर जीप को बुलाया गया। उसके बाद मामा, दोनों मामी, दोनों मौसी, अम्मा, पड़ोस की दो औरतें, उनके बच्चे, मैं और छोटा भाई जीप में ठूंसकर घोसी फिल्म देखने रवाना हुए। वहां पहुंचकर हमने देखा कि विजय सिनेमाहाल के बाहर भारी भीड़ लगी है। उस भीड़ में बच्चे, बड़े, बूढ़े, नौजवान, औरतें सब शामिल थे। भीड़ देखकर हम लोग घबरा गए कि पता नहीं टिकट मिलेगी या नहीं। मामा भागकर टिकट खिडक़ी पर गए। वे टिकट लेकर लौटे तो सबकी जान में जान आयी।
सन्नी देओल के शिकंजे में
सिनेमा हाल में प्रवेश करते समय मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरी जन्म जन्मांतर की मुराद पूरी हो रही हो। मन ही मन मैं सोच रहा था कि अब मैं दीदी को गर्व से बताऊंगा कि मैंने सिनेमाहाल में फिल्म देख ली। मन ही मन मैं मौसी और मामी को धन्यवाद कह रहा था। मैं पहली बार सिनेमाहाल में फिल्म देखने जा रहा था। हम आपके हैं कौन शुरू हुई। हम सब मजे से फिल्म देखने लगे। अचानक मुझे सिसकने की आवाज सुनायी दी। मैंने ध्यान से देखा तो पाया कि सब रो रहे थे। उस समय भाभी की मौत का दृश्य चल रहा था। मुझे रोना नहीं आया। हां, मुझे माधुरी और सलमान के बीच के दृश्य खूब भा रहे थे। फिल्म के अंतिम दृश्य में मुझे उस वक्त जरूर रोना आया था जब माधुरी की शादी मोहनीश बहल से होने जा रही थी। दरअसल, तब तक मैं खुद को प्रेम समझने लगा था। मुझे लग रहा था कि वह सब मेरे साथ हो रहा है। दिलचस्प बात यह है कि उस फिल्म की चर्चा अगले कुछ दिनों तक घर में लगातार होती रही। अम्मा दूसरे ही दिन दवाई का बहाना करके नानी के साथ दोबारा हम आपके हैं कौन देखकर आ गयीं। उसके बाद हर गर्मी की छुïट्टी में अम्मा हमें फिल्म दिखाने घोसी लेकर जाती थीं।
'हम आपके हैं कौन' फिल्म ने मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। अब मेरे अंदर हर फिल्म को देखने की चाह होने लगी, लेकिन अम्मा की इजाजत नहीं मिलती थी। शायद अम्मा के मन में अभी तक यह डर था कि फिल्में देखकर मैं बिगड़ जाऊंगा। अब चचेरे भाई बहनों के साथ मिलकर मैं चोरी-चोरी टीवी पर फिल्में देखने लगा। हम उस वक्त टीवी वाली कोठरी में चोरी से घुस जाते थे, जब दुआर पर कोई नहीं होता था। कभी-कभी पकड़े जाते तो डांट खानी पड़ती थी। उन दिनों वीसीआर का चलन था। किसी के यहां तिलक, शादी, गवना या अन्य कोई समारोह होता तो सभी बच्चों की मांग वीसीआर होती थी। ऐसे समारोहों में वीसीआर आने की खबर मिलते ही हम सब के बीच यह चर्चा शुरू हो जाती थी कि कौन-कौन सी फिल्में आ रही हैं। हम उस तारीख का बेसब्री से इंतजार करते थे। अफसोस की बात है कि मैं चर्चाओं में जरूर शामिल रहता था, लेकिन वीसीआर देखने कभी नहीं जा पाता था। मेरी अम्मा जाने ही नहीं देती थीं। दूसरे दिन मैं दोस्तों से उन फिल्मों की कहानी सुनकर अपनी प्यास बुझा लेता था। हां, हमारे घर के समारोह में वीसीआर लगता तो मैं जरूर फिल्म देखता था। अम्मा फिल्म देखने की इजाजत देने के साथ ही कह देती थीं कि एक फिल्म देखकर सोने आ जाना। दिसंबर की कडक़ती ठंड में हम सब रजाई लेकर पुआल पर बैठकर फिल्में देखा करते थे। 'राजा की आएगी बारात', 'तिरंगा', 'नागिन', 'नगीना', 'करण अर्जुन', 'शोला और शबनम', 'बोल राधा बोल, दूल्हे राजा, बीवी नंबर वन, कुली नंबर वन, राजा, बादल, राजा हिंदुस्तानी', 'मोहब्बतें', 'धडक़न', 'कुछ कुछ होता है' जैसी कई फिल्में मैंने सर्द रातों में खुले आसमान के नीचे बैठकर देखी हैं।
पोज़र
मैंने अपने शहर आजमगढ़ में आजतक मात्र एक फिल्म देखी है। उसमें भी धोखा हो गया। उस वक्त मैं कक्षा बारह में पढ़ रहा था। मैं दोस्तों के साथ अपने स्कूल के एक मास्टर जी के घर शादी में गया था। मास्टर जी ने लौटते समय हमें विदाई के तौर पर बीस-बीस रूपए दिए थे। दरअसल, वे हमसे बेहद खुश थे। हमने पूरी रात जागकर उनकी बेटी की शादी में काम किया था। वहां से लौटते समय हमने शहर के मुरली हाल में फिल्म देखने का फैसला किया। गोविंदा की फिल्म 'जंग' लगी थी। हम टिकट लेकर हाल में घुस गए। मन में डर भी था कि गांव या घर का कोई हमें देख न ले। हम बहुत बड़ा रिस्क ले रहे थे। जब फिल्म शुरू हुई तो पता चला कि वह पुरानी है। उसे हम दो बार टीवी पर देख चुके हैं। उसका वास्तविक नाम 'फर्ज की जंग' था। सिनेमाहाल वालों ने नाम बदल कर उसे लगाया था। हमें बड़ा गुस्सा आया। खैर, पंखा चल रहा था और हम सब रात भर के जगे थे, सो हम वहीं सो गए। फिल्म खत्म हुई तो किसी ने हमें जगाया और हम सिनेमाहाल वाले को गाली देते हुए घर चल पड़े। सारे दोस्त मुझे कोस रहे थे। मेरी वजह से उनका पंद्रह रूपया बर्बाद हो चुका था। आज भी हमारे शहर में नाम और पोस्टर बदलकर सिनेमाहाल वाले पुरानी फिल्में चलाते रहते हैं।
मुंबई के शुरूआती दिनों में
मैं ग्रेजुएशन के लिए इलाहाबाद आया। वहां सिनेमा से मेरी घनिष्ठता बढ़ी। शुरूआती दिनों में मैं इलाहाबाद के सिनेमाहाल में फिल्म देखने जाने से पहले घर पर अम्मा को फोन करके पूछता था। वे इजाजत देतीं, तभी मैं फिल्म देखने जाता। बाद में यह सिलसिला खत्म हो गया। शायद अब मैं बड़ा हो चुका था। इलाहाबाद में हमें महीने भर के खर्चे के लिए घर से गिनकर पैसे मिलते थे। प्रत्येक फिल्म हाल में देखना हम अफोर्ड नहीं कर सकते थे। सो, हम सभी दोस्त मिलकर पैसा इकट्ठा करते और हर दूसरे सप्ताह किराए पर सीडी लाते एवं बीते सप्ताह की नई फिल्मों की सीडी लाकर पूरी रात बैठकर देखते थे। यह सिलसिला तीन वर्ष तक अनवरत चलता रहा।
फिल्मफेयर समारोह की शाम
दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान जब एक फ्रेम में आये तो हम मौजूद थे
मैंने सपरिवार आखिरी फिल्म संजय दत्त की 'महानता' (वर्ष 1996) देखी थी। घोसी के विजय सिनेमाहाल में। आज मुंबई के मल्टीप्लेक्स में हर सप्ताह फिल्म देखता हूं, लेकिन यहां वह मजा नहीं मिलता, जो घोसी और इलाहाबाद में मिलता था। मैंने बचपन में कभी नहीं सोचा था कि एक दिन फिल्म इंडस्ट्री को करीब से देखने और जानने का मौका मिलेगा। मैं अब गांव जाता हूं तो एक बात मुझे हैरान करती है। गांव में कई औरतें ऐसी हैं जिन्होंने आजतक हाल में फिल्म देखी ही नहीं है। यह बात सोचने वाली है। मजे की बात यह है कि आजकल अम्मा सुबह नौ बजे या कभी देर रात फोन करके नाश्ते और डिनर के बारे में पूछती हैं और मैं कहता हूं कि अभी नहीं खाया है तो वे कहती हैं, सिनेमा के चक्कर में तुम बिगड़ गए। तुम्हारे कलकतिहवा बाबा सही कहते थे।
पसंदीदा फिल्में
1- आवारा
2- शोले
3- दीवाना
4- हम आपके हैं कौन
5- दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे
6- कुछ कुछ होता है
7- कभी खुशी कभी गम
8- हम दिल दे चुके सनम
9- कहो ना प्यार है
10- ओए लकी लकी ओए
1- आवारा
2- शोले
3- दीवाना
4- हम आपके हैं कौन
5- दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे
6- कुछ कुछ होता है
7- कभी खुशी कभी गम
8- हम दिल दे चुके सनम
9- कहो ना प्यार है
10- ओए लकी लकी ओए
रघुवेंद्र के दोनों हाथ जेब में रहते हैं और आँखें बात करते समय चमकती रहती हैं.उनके व्यक्तित्व की कोमलता आकर्षित करती है.वे फिल्मों को अपनी प्रेयसी मानते हैं और उसकी मोहब्बत में मुंबई आ चुके हैं.वे पत्रकारिता से जुड़े हैं और फ़िल्म इंडस्ट्री की मेल-मुलाकातों में उनका मन खूब रमता है.अपने बारे में वे लिखते हैं...राहुल सांकृत्यायन एवं कैफी आजमी जैसी महान साहित्यिक हस्तियों की जन्मभूमि आजमगढ़ में पैदाइश। आधुनिक शिक्षा के लिए अम्मा-पापा ने इलाहाबाद भेजा और हम वहां सिनेमा से प्रेम कर बैठे। वे चाहते थे कि हम आईएएस अधिकारी बनें, लेकिन अपनी प्रेयसी से मिलने की जुगत में हम फिल्म पत्रकारिता में आ गए। आजकल हम बहुत खुश हैं। अपनी प्रेयसी के करीब रहकर भला कौन खुश नहीं होगा? उनका पता है raghuvendra.s@gmail.com
नोट : यह संस्मरण वरिष्ठ फिल्म पत्रकार और समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज के लोकप्रिय ब्लॉग 'चवन्नी चैप' की हिंदी टॉकीज़ सीरीज़ के लिए मैंने कुछ वर्ष पूर्व लिखा था.
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