माँ बे'बस' चल पड़ी है
-रघुवेन्द्र सिंह
गर्भ में सपनों को लेकर
शहर को धिक्कार कर
आज मीलों के सफर पर
माँ बे'बस' चल पड़ी है.
माँ बे'बस' चल पड़ी है
मुश्किलें तन कर अड़ी हैं
प्रसव पीड़ा की घड़ी है
पर किसे उसकी पड़ी है.
पर किसे उसकी पड़ी है
मुस्कुराती दुष्कर घड़ी है
काल की नज़रें गड़ी हैं
जोड़े कर ममता खड़ी है.
जोड़े कर ममता खड़ी है
मौत से माँ लड़ पड़ी है
जीत जिसकी भी हो इसमें,
मानवता लज्जित खड़ी है.
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