Saturday, August 2, 2008
मासूम चेहरे पर तरस खा जाती थी टीचर: सेलिना जेटली
[रघुवेंद्र सिंह]
मैं बचपन में बहुत झगड़ालू थी। जरा-जरा सी बात पर दूसरों से लड़ जाया करती थी। यह नहीं देखती थी कि सामने वाला मुझसे बड़ा है या फिर छोटा। अपनी शक्ति भर खूब लड़ती और अंत में दांत से काट कर या नाखून से खरोंच मारकर उड़न-छू हो जाती थी। मुझे यह बात बिल्कुल नहीं पसंद थी कि कोई मेरे किसी सामान को हाथ लगाए। मेरी ज्यादातर लड़ाइयां इसी बात पर होती थीं कि फलां ने मेरे सामान को हाथ कैसे लगाया? मुझे मम्मी इस बात के लिए बहुत डांटती थीं और कभी-कभार मारती भी थीं।
मैं पढ़ने में बहुत अच्छी थी। मेरा प्रिय विषय विज्ञान था। उस वक्त मैं खगोलशास्त्री बनने का सपना देखा करती थी। मुझे कॉमर्स विषय बिल्कुल नहीं भाता था। आज भी मैं जोड़ने-घटाने के मामले में कमजोर हूं।
मैं स्कूल में अक्सर अपने सहपाठियों के साथ लड़ती थी। सब मुझे लड़ाकू कहकर बुलाते थे। मेरी शरारतों के लिए टीचर मुझे क्लास के बाहर कान पकड़कर खड़ा कर देती थी। यही मेरी सजा होती थी। मैं कुछ ही देर खड़ी रहती कि उन्हें मेरे मासूम चेहरे पर तरस आ जाता। वे मुझे हिदायत देकर छोड़ देतीं। मैंने बचपन में जितनी पिटाई खाई है, उतना ही सबका प्यार भी पाया है।
मुझे बचपन में डिस्कवरी चैनल देखना अच्छा लगता था। मैं फिल्में देखने की शौकीन नहीं थी। मैं आर्मी बैकग्राउंड से हूं। मुझे वक्त का पाबंद होना सिखाया गया है। सच कहूं तो उस वक्त मम्मी-पापा की सारी नैतिक शिक्षाएं बुरी लगती थीं लेकिन आज उन बातों की कीमत समझ में आती है। मैं बच्चों से कहना चाहूंगी कि अपने मम्मी-पापा की बातों को ध्यान से सुनें और उन पर अमल करें। मम्मी-पापा हमेशा अपने बच्चों की भलाई के लिए ही कोई बात कहते हैं। अपनी पढ़ाई और आउटडोर एक्टिविटीज पर समान रूप से ध्यान दें। जितनी जरूरी पढ़ाई होती है उतना ही जरूरी खेलना भी होता है।
मेरे हिसाब से बचपन जिंदगी का सबसे बिंदास दौर है। वैसे तो उम्र के हर दौर की अपनी खूबसूरती है, लेकिन बचपन जैसा कोई दौर नहीं। जिंदगी बहुत रुलाती है इसलिए जब तक बचपन है, खूब हंसना चाहिए। वक्त से पहले बड़े होने की कोशिश बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। आज मैं अपने बचपन को बहुत मिस करती हूं। मैंने बचपन की हसीन यादों को सहेज कर रखा है। जब अकेले होती हूं तो उन्हें ही याद करके बचपन जी लेती हूं!
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